अमिताभ को ब्रेक देने के पहले किसने पूछा- तुम फिल्मों में रिजेक्ट क्यों हुए?

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आज बात एक एक मशहूर डिरेक्टर, राइटर, स्क्रिप्ट राइटर और भी जाने क्या-क्या थे, वो थे ख्वाजा अहमद अब्बास। अब्बास साहब 7 जून 1914 को पानीपत में पैदा हुए थे। 1 जून 1987 को उनका मुंबई में निधन हुआ। मतलब अब्बास जून में ही धरती पर आए और जून में ही धरती से रुखसत हुए। अब्बास साहब कमाल की शख्सियत थे। अब्बास ने राज कपूर के लिए ‘आवारा’, ‘श्री-420’, ‘मेरा नाम जोकर’, जागते रहो, और ‘बॉबी’ लिखी है। जब बॉबी लिखी, तब वो 57-58 साल के रहे होंगे, लेकिन कहानी यंग जेनरेशन के लिए लिखी। आदमी उम्र के आंकड़े से नहीं, विचारों से युवा होता है। आज की कहानी है- मामू का सुपरस्टार।

अब्बास का जन्म एक क्रांतिकारी परिवार में हुआ था। उनके दादा ख्वाजा गुलाम अब्बास 1857 स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानियों में से एक थे। वे पानीपत के पहले क्रांतिकारी थे, जिन्हें अंग्रेजी हूकुमत ने तोप से बांध कर उड़ा दिया था। देश के प्रति ईमानदारी, वफादारी और प्रेम उन्हें विरासत में मिली थी और यही वजह थी कि उनकी फिल्मों, लेखनी और पटकथा में ही नहीं उनके रोम-रोम में देशभक्ति समाई नजर आती थी।

अब्बास की तालीम हाली मुस्लिम हाई स्कूल में और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुई। पढ़ाई पूरी करने के बाद अब्बास ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ से जुड़े और रिपोर्टर और फिल्म समीक्षक का काम करने लगे। इसके बाद वीकली ‘ब्लिट्ज’ में उनका कॉलम ‘लास्ट पेज’ काफी मशहूर हुआ था। अब्बास ने इप्टा के लिए खूब नाटक लिखे और कई नाटकों का निर्देशन भी किया। ‘यह अमृता है’, ‘बारह बजकर पांच मिनट’, ‘जुबैदा’ और ‘चौदह गोलियां’ उनके मशूहर नाटक रहे।

पत्रकारिता के दौरान ही अब्बास ने फिल्मों की ओर रुख किया। 1946 में उन्होंने फिल्म बनाई 'धरती के लाल'। इसमें अब्बास साहब ने एक्टिंग भी की। यह फिल्म बंगाल के अकाल पर बनी थी और कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सराही गई। हालांकि, उस समय चल रहे हिंदू-मुस्लिम दंगों के चलते फिल्म दिखाई नहीं जा सकी। उन्होंने मुन्ना नाम की भी एक फिल्म बनाई थी, जो भारत की पहली बिना गाने वाली फिल्म थी। आज महिलाओं को लेकर तमाम बातें कही जाती हैं, बहस-मुबाहिसे होते हैं। लेकिन 1960 के दशक में अब्बास साहब इस विषय पर ग्यारह हजार लड़कियां फिल्म बना चुके हैं।

1951 में अब्बास ने ‘नया संसार’ नाम से अपनी खुद की फिल्म कंपनी खोल ली और इस बैनर तले उन्होंने कई सार्थक फिल्में बनाईं। ‘राही’ (1953) जो चाय के बागानों में काम करने वाले श्रमिकों की दुर्दशा पर थी। वी. शांताराम की चर्चित फिल्म ‘डॉ. कोटनिस की अमर कहानी’ भी अब्बास के अंग्रेजी उपन्यास ‘एंड वन डिड नॉट कम बैक’ पर आधारित थी। अपने 35 साल के करियर में अब्बास ने 13 फिल्में बनाईं, करीब 40 फिल्मों की कहानी और स्क्रीन प्ले लिखा। करीब 68 किताबें लिखी। एक फिल्म क्रिटिक जयप्रकाश चौकसे ने एक बार लिखा था कि शायद अब्बास जिंदगी में सोए नहीं, उनके पास इतना वक्त ही कहां था।

वरिष्ठ पत्रकार रेहान फ़ज़ल (Rehan Fazal) अपने एक लेख- 'अगर ना होते अमिताभ के मामू जान ख़्वाजा अहमद अब्बास' में लिखते हैं कि अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) को ख़्वाजा अहमद अब्बास ने ही अपनी फिल्म 'सात हिंदुस्तानी' में मौका दिया था। अमिताभ बच्चन उन्हें मामू कहा करते थे। 

अब्बास ने अमिताभ बच्चने के साथ पहली मुलाकात का पूरा विवरण अपनी आत्मकथा, 'आई एम नॉट एन आईलैंड' में लिखा है-

"बैठिए, आपका नाम?"

"अमिताभ"(बच्चन नहीं)

"पढ़ाई?"

"दिल्ली यूनिवर्सिटी से बीए"

"आपने पहले कभी फ़िल्मों में काम किया है?"

"अभी तक किसी ने मुझे अपनी फ़िल्म में नहीं लिया।"

"क्या वजह हो सकती है?"

"उन सबने कहा कि मैं उनकी हीरोइनों के लिए कुछ ज़्यादा ही लंबा हूं।"

"हमार