जनजातीय बहुल सुकमा सीट अविभाजित मप्र की पहली विधानसभा का हिस्सा रही है, कांग्रेस का है मजबूत किला, नक्सलवाद बड़ी समस्या

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Vivek Sharma
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 जनजातीय बहुल सुकमा सीट अविभाजित मप्र की पहली विधानसभा का हिस्सा रही है, कांग्रेस का है मजबूत किला, नक्सलवाद बड़ी समस्या

SUKMA. शाबरी नदी के किनारे बसे सुकमा जिला बस्तर का दक्षिणी भाग है जो 16 जनवरी साल 2012 में बना। छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी से करीब 400 किमी दूर है। ओडिशा, तेलंगाना, आंधप्रदेश राज्यों और बस्तर, बीजापुर, दंतेवाड़ा जिलों के साथ सीमा साझा कर रहे सकुमा जिले की सबसे बड़ी समस्या नक्सलवाद है। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस जिले में मानो विकास रूठा बैठा है। प्रकृति की गोद में बैठे इस जिले को नक्सलवाद की मानो नजर लग गई है जिसके कारण यहां आए दिन खून बहता रहता है।





सियासी मिजाज 





 सुकमा जिले की कोंटा विधानसभा सीट 1952 से अस्तित्व में आई। यह अविभाजित मध्यप्रदेश की सबसे पहली विधानसभा का हिस्सा थी। यह सीट शुरुआत से ही आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित है। इस सीट पर जो नतीजे आते हैं वो राजनैतिक पार्टियों के चेहरे पर हवाइयां उड़ाने के लिए काफी है। 1952 में हुए पहले चुनाव में ही इस सीट से निर्दलीय उम्मीदवार पीलू ने जीत दर्ज की थी। 1957 में पहली बार यह सीट कांग्रेस के खाते में गई थी। 1962 में फिर एक बार यहां से निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की।  दरसअसल यहां से बस्तर महाराज प्रवीर चंद्र भंजदेव ने समूचे बस्तर में निर्दलीय उम्मीदवार खड़े कर दिए थे जिससे चुनाव दिलचस्प हो गए थे। साल 1993 में ये सीट पूरे प्रदेश में चर्चा की विषय बन गई थी क्योंकि यहां से CPI के मनीष कुमार ने जीत दर्ज की थी। अब तक हुए 14 चुनावों में 9 बार कांग्रेस, दो बार बीजेपी दो बार निर्दलीय और दो बार सीपीआई उम्मीदवार जीता।





सियासी समीकरण





 आदिवासी बाहुल्य इस इलाके में कांग्रेस का एक तरफा राज रहा है... लेकिन कभी कभी जनता ने यहां से चौकाने वाले परिणाम भी दिए हैं. ऐसे ही दो परिणाम साल 1962 और 1993 में आए थे। 1962 में यहां से निर्दलीय उम्मीदवार जीते तो 1993 में CPI के मनीष कुमार जीत दर्ज की थी। वहीं 1998 से लेकर 2018 तक ये सीट लगातार कांग्रेस के पास है।  इस सीट से कांग्रेस के दिग्गज नेता और बघेल सरकार में आबकारी और उद्योग मंत्री कवासी लखमा लगातार विधायक हैं।





जातिगत समीकरण 





 कोंटा की  93 फीसदी आबादी आदिवासी है। वहीं अनुसूचित जाति के करीब 1 फीसदी मतदाता हैं। वहीं करीब 2 फीसदी मतदाता मुस्लिम है। इस इलाके में एक फीसदी मतदाता ईसाई धर्म के भी हैं। इलाके की साक्षरता दर करीब 48 फीसदी है। वहीं इस इलाके में वोटिंग को लेकर लोगों को बीच जागरुकता की कमी है। साल 2018 मे हुए विधानसभा चुनाव में कोंटा सीट पर मात्र 35 फीसदी ही वोटिंग हुई थी।





मुद्दे 





 सुकमा जिला नक्सल प्रभावित है। ग्रामीण इलाकों में प्रशासन की पहुंच नहीं होने के कारण योजनाओं की मॉनिटरिंग एक बड़ी चुनौती है। कई गांव ऐसे हैं जहां अरसे से माओवादियों का क़ब्ज़ा है। पुलिस और ग्रामीणों के बीच टकराव एक बड़ा मसला है। सिलगेर में ग्रामीण एक साल से लगातार आंदोलन कर रहे हैं। यहां फ़ोर्स ने कैंप लगाया और ग्रामीणों ने विरोध किया। विरोध हिंसक हुआ तो फायरिगं हुई और इस फायरिंग में तीन लोगों की मौत हो गई। ग्रामीणों की माने तो इस कार्रवाई में 5 लोगों की मौत हुई थी। इलाके में स्वास्थ्य शिक्षा जैसी बुनियादी चीजें बड़ा मुद्दा है। उद्योग मंत्री बनने के बाद भी कोई उद्योग कवासी नहीं लगा पाए। हालांकि परिस्थितियां उद्योग लगाने की इजाज़त देती भी नहीं हैं। इन सवालों के जवाब में दोनों ही दलों के नेताओं ने एक-दूसरे पर जमकर आरोप-प्रत्यारोप लगाए। 







  • विधानसभा सीटों पर जाकर द सूत्र ने लिया जायजा



  • क्या है विधायकों का परफॉर्मेंस, टटोली जनता की नब्ज


  • क्या 4 साल में उम्मीदों पर खरे उतरे विधायक ?


  • क्या कहती है क्षेत्र की जनता ?


  • बस्तर संभाग का दक्षिणी जिला है सुकमा


  • प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है सुकमा


  • इलाके की सबसे बड़ी समस्या है नक्सलवाद


  • सुकमा की 93 फीसदी आबादी आदिवासी


  • इस सीट पर अब तक हुए 14 चुनाव


  • 9 बार कांग्रेस, 2 बार बीजेपी ने दर्ज की जीत


  • एक बार निर्दलीय, एक बार CPI उम्मीदवार जीते


  • साल 2018 में करीब 35 फीसदी हुई थी वोटिंग






  • इसके अलावा द सू्त्र ने इलाके के प्रबुद्धजनों, वरिष्ठ पत्रकारों औऱ आम जनता से चर्चा की तो कुछ सवाल निकल कर आए







    • इलाके में अब तक कोई उद्योग क्यों नहीं आए ?



  • पुलिस फोर्स औऱ नक्सलियों के बीच ग्रामीण पीस रहे हैं लेकिन कवासी लखमा मौन क्यों है


  • इलाके में स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए क्या काम किए ?


  • ग्रामीण इलाकों में आपकी उपलब्धता कम क्यों है ?


  • इलाके के स्कूलों में शिक्षक और कई जगह भवन ही नहीं है ऐसा क्यों ?






  •  इन सवालों के जवाब विधायक कवासी लखमा ने लिखित में दिए







    • मैं ग्रामीण इलाकों में  जाता हूं, पर इसका प्रचार नहीं करता।



  • नक्सलियों का विषय संवेदनशील है, यह केंद्र और राज्य सरकार का विषय है, और इस पर काम हो रहा है।


  • दो साल कोरोना में गुजरे,स्वास्थ्य समेत हर मसले पर काम हो रहा है। पंद्रह बरस बीजेपी की सरकार थी, तब केवल आदिवासियों को परेशान किया गया।


  • विधानसभा क्षेत्र असामान्य परिस्थितियों से लंबे समय से जूझ रहा है, स्थिति बेहतर हो सके इसकी कोशिश लगातार कर रहा हूंं। 


  • विपक्ष को आरोप लगाने के अलावा कुछ नहीं आता।






  • राजनैतिक इतिहास





    यह आदिवासी बाहुल्य इलाक़ा है,जिनकी राजनैतिक चेतना कैसी थी यह सीट के विधानसभावार परिणाम बताते हैं। आज की कोंटा विधानसभा 1952 में सुकमा विधानसभा थी। तब पहला विधायक निर्दलीय थे, जिनका नाम पीलू था।1957 में यह सीट कांग्रेस के पास चली गई। यह सीट 1962 में एक बार फिर निर्दलीय के खाते में गई,बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ने समूचे बस्तर में निर्दलीय प्रत्याशी खड़े कर दिए थे और जैसा आज भी है महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव उनकी हत्या के पचास बरस बाद आदिवासी जनमानस में अजर अमर किरदार की तरह हैं। 





    2018 तक कांग्रेस के पास 





    1962 में निर्दलीय प्रत्याशी दरअसल महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव का प्रत्याशी था। सुकमा याने कोंटा में 1972 और 1977 में भारतीय जनसंघ यहाँ से जीत गई। 1980 में सुकमा जो कोंटा विधानसभा के रुप में अस्तित्व में आई थी उसने फिर से निर्दलीय को विधायक बना दिया। 1985 में यह सीट फिर कांग्रेस के पास लौटी। 1990 और 1993 में यह सीट बेहद चर्चित हो गई क्योंकि यहां से CPI ने जीत दर्ज की। 1998 से यह सीट 2018 तक लगातार कांग्रेस के पास है। यहां से कवासी लखमा इन बीस बरसों में लगातार विधायक रहे हैं। यही कवासी लखमा भूपेश बघेल सरकार में आबकारी और उद्योग मंत्री हैं।





    कांग्रेस का मजबूत गढ़ 





    छत्तीसगढ़ के दक्षिणी इलाके में बसे सुकमा जिले की कोंटा विधानसभा सीट कांग्रेस का मजबूत गढ़ रही है। पांच राज्य में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे भी उसी के अनुरुप आए। कोंटा से कांग्रेस के कवासी लखमा ने बीजेपी के धनीराम बरसे को हरा दिया। सीपीआई के प्रत्याशी मनीष कुंजुम तीसरे नंबर पर रहे। कोंटा से कांग्रेस के विधायक कवासी लखमा पिछले तीन चुनावों में यहां जीत दर्ज करते हैं। ये सीट कांग्रेस का गढ़ मानी जाती है. भारतीय जनता पार्टी के लिए राज्य में सत्ता विरोधी लहर के बीच इस सीट पर जीत दर्ज करने की एक मुश्किल चुनौती है।





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