जिद पर अड़कर कमलनाथ से बुरी तरह पिछड़े अशोक गहलोत

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जिद पर अड़कर कमलनाथ से बुरी तरह पिछड़े अशोक गहलोत

हरीश दिवेकर, BHOPAL. सोनिया गांधी ने एक बार फिर दिखा दिया कि सख्त फैसले लेने में वो अब भी नहीं चूकेंगी। पर अफसोस ये सख्ती दिखाने में अगर वो इतनी देर नहीं करतीं तो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की इतनी फजीहत न होती जितनी अध्यक्ष के चुनाव से ऐन पहले हो रही है। ये कड़े कदम भी सोनिया गांधी तब ही उठा सकीं जब कमलनाथ दिल्ली में उनका मजबूत समर्थन बनकर उतरे। इस सियासी घटनाक्रम के बाद पार्टी के दो पिलर माने जा रहे कमलनाथ और अशोक गहलोत के बीच कमलनाथ ने अपना कद बढ़ा लिया है। वहीं गहलोत कमलनाथ के आगे अब काफी कमजोर नजर आ रहे हैं।





कांग्रेस परिवार के भरोसे का दूसरा नाम थे गहलोत





बमुश्किल 3 दिन पहले तक अशोक गहलोत कांग्रेस में गांधी परिवार के भरोसे का दूसरा नाम थे। पार्टी को फिर से जोड़ने और मजबूती देने की उम्मीद थे। कद भी इतना बड़ा था कि उनके नाम का विरोध कहीं  किसी स्तर पर नहीं था। लेकिन सियासत के जादूगर के नाम मशहूर अशोक गहलोत का कॉन्फिडेंस कब ओवरकॉन्फिडेंस में तब्दील हुआ शायद वो खुद ही समझ नहीं सके। एक तरफ राहुल गांधी भारत जोड़ो के लिए मीलों चल रहे हैं तो दूसरी तरफ अशोक गहलोत ने पार्टी तोड़ने की पहल भले ही न की हो लेकिन उसे रोकने की भी कोई कोशिश नहीं की। इस बार गांधी परिवार की नीयत और मिजाज को समझने में गलती कर गए। ये भी इत्तेफाक है कि कमलनाथ के दिल्ली जाने के बाद कांग्रेस के हालात फिर कंट्रोल में आए। कांग्रेस पर जब जब संकट गहराया है कमलनाथ और अशोक गहलोत का नाम एक साथ आया है। इस बार भी दोनों की चर्चा हैं लेकिन वजह अलग-अलग हैं।





गहलोत पर गांधी परिवार के भरोसे की इंतेहा





अशोक गहलोत पर गांधी परिवार के भरोसे की इंतेहा इसी से समझी जा सकती है कि गांधी परिवार ने खुद उन्हें गैर गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का फैसला किया। लेकिन जैसे ही बात राजस्थान के मुखिया की कुर्सी की आई गहलोत सबकुछ भूल गए। गांधी परिवार का भरोसा, कांग्रेस की आस। सारा सियासी ड्रामा उस वक्त क्रिएट किया कि जब गांधी परिवार के युवराज भरी दोपहरी में सड़कों की खाक छान रहे हैं। तंबू में रात बिता रहे हैं। गांधी परिवार कांग्रेस की वापसी के लिए संघर्ष कर रहा है। आलाकमान उन्हें पूरी पार्टी की कमान सौंप रहे थे और वो सिर्फ एक राज्य की कुर्सी के लिए फिक्रमंद थे।





कांग्रेस का घटनाक्रम तेजी से बदला





बीते दो दिनों में कांग्रेस का घटनाक्रम तेजी से बदला। राहुल गांधी ने एक व्यक्ति एक पद की हिमायत की। गहलोत ने सुर बदले और सीएम का पद छोड़ने पर राजी नजर आए। इसके बाद उनके समर्थकों ने नया हंगामा बरपा दिया। सीएम कोई भी चलेगा लेकिन सचिन पायलट नहीं होने चाहिए। इस बार सचिन पायलट गहलोत और गहलोत खेमे से ज्यादा परिपक्व तरीके से बर्ताव करते नजर आए। जो शुरू से लेकर अब तक खामोश हैं। उनके समर्थक भी पर्दे के पीछे हर सियासी सीन को ऑब्जर्व कर रहे हैं। पायलट की चुप्पी के आगे गहलोत मात खा गए। दो दिन तक पॉलिटिकल ड्रामा जमकर हुआ। गहलोत शायद इस गलतफहमी में थे, एक और राज्य में सरकार गिरने के डर से गांधी परिवार झुक जाएगा। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। सोशल मीडिया पर तो ये खबरें भी वायरल हुईं कि गहलोत खेमे के कुछ मंत्री और विधायक सिर्फ दो साल के लिए सीट गंवाने के मूड में नहीं है। गहलोत खेमा खुद ही टूट गया। चंद कट्टर समर्थक बचे थे वो भी नोटिस मिलने के बाद बैकफुट पर है। सारे ड्रामे के बाद ऑब्जर्वर्स की रिपोर्ट के आधार पर गहलोत को क्लीन चिट मिल गई है। इस क्लीन चिट के साथ क्या वो भरोसा भी वापस मिल सकेगा जो अब तक गांधी परिवार उन पर जताता आ रहा है।





कुर्सी के लिए ताक पर भरोसा





क्या ये क्लीन चिट उस माल को क्लीन कर सकती है जो कुर्सी  के लिए इस कदर जमा है कि हर भरोसे को ताक पर रख दिया गया। जिस नाम के भरोसे राहुल गांधी सब कुछ छोड़ कर भारत जोड़ो यात्रा कर रहे हैं। उसी यात्रा पर तंज कसने वाले बीजेपी के कांग्रेस तोड़ो का सबसे बड़ा फेस फिलहाल गहलोत बनते दिखाई नहीं दे रहे हैं। गहलोत शायद पर्चा भरें भी चुनाव लड़ें भी। पर अब गांधी परिवार के उसी भरोसे के भागीदार बन सकेंगे जो अब तक गांधी परिवार ने उन पर जताया है।





कांग्रेस को गहलोत और कमलनाथ पर भरोसा





अहमद पटेल के निधन के बाद गांधी परिवार ने जिन दो नेताओं पर सबसे ज्यादा भरोसा किया उसमें एक अशोक गहलोत रहे हैं और दूसरे कमलनाथ रहे हैं। कमलनाथ और उनके पांच साल बाद कांग्रेस की छात्र विंग से राजनीति की शुरूआत करने वाले गहलोत दोनों, बीते कुछ सालों से एक ही कश्ती पर सवार हैं। सीएम बनने के बाद बगावत कमलनाथ ने भी देखी और गहलोत ने भी देखी। कमलनाथ बगावत संभाल नहीं सके न सरकार बचा सके। जबकि गहलोत ने न सिर्फ सरकार बचाई बल्कि बड़ा रसूख रखने वाले बागी नेता सचिन पायलट के तेवर भी ठंडे कर दिए। इस नाते क्राइसिस मैनेजमेंट में गहलोत को आगे होना चाहिए था लेकिन हुआ उल्टा। सबसे ज्यादा भरोसेमंद गहलोत बीते दो दिन पार्टी के लिए सबसे बड़े क्राइसिस बने नजर आए और जो कमलनाथ अपनी सरकार नहीं संभाल सके वो क्राइसिस मैनेजमेंट के लिए जल्दबाजी में दिल्ली तलब किए गए और गांधी परिवार की ताकत बने।





संकट के वक्त कांग्रेस को याद आते हैं दो नाम





इस कंपेरिजन से गुरेज किया ही नहीं जा सकता। बीते कुछ सालों से जब जब कांग्रेस संकट में आई है आलाकमान को सिर्फ दो नाम याद आए हैं। एक कमलनाथ और दूसरा अशोक गहलोत। वैसे भी पार्टी के पास इन दो नेताओं का कद का कोई और नेता बचा नहीं है। खुद गांधी परिवार के तीनों सदस्य का पॉलीटिकल करियर इन दोनों नेताओं के सामने ही शुरू हुआ। सोनिया गांधी भले ही कांग्रेस की कमान संभाल चुकी हों। असल में वो भी दोनों के सामने कांग्रेस में जूनियर ही हैं।





कमलनाथ अब गहलोत से काफी आगे निकले





महाराष्ट्र में जब महाविकास अघाड़ी की सरकार संकट में आई तब कमलनाथ ही वहां भेजे गए थे। वो हालात काबू करने में एमपी या महाराष्ट्र में कब कितने कामयाब हुए ये अलग बात है। लेकिन अब तक कोई वाक्या ऐसा पेश नहीं आया जिसके दम पर ये कहा जाए कि वो गांधी परिवार के भरोसे की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं। अब तक गहलोत भी इस मामले में उन्हें टक्कर दे ही रहे थे, या यूं कहें कि कुछ आगे ही चल रहे थे। लेकिन अब उन्हीं की वजह से पार्टी सबसे पड़े संकट और सबसे ज्यादा शर्मसार करने वाले हालात में पहुंच चुकी हैं। इस बार भी सोनिया गांधी को सबसे पहले कमलनाथ की ही याद आए। कमलनाथ के वहां पहुंचने के चंद घंटे बाद ही कांग्रेस के सियासी हालात फिर काबू में नजर आए। गहलोत और कमलनाथ की कांग्रेसी उम्र में सिर्फ 5 साल का अंतर है। दोनों कभी आगे कभी पीछे चलते रहे। तमाम नाकामियों के बावजूद कमलनाथ अब गहलोत से काफी आगे निकल चुके हैं।





क्या गहलोत दोबारा हासिल कर पाएंगे कांग्रेस का भरोसा





1998 में कांग्रेस ने उस वक्त अशोक गहलोत  को सीएम की गद्दी सौंपी थी जब वो विधायक भी नहीं थे। राजस्थान की सियासत में दबदबा रखने वाले महिपाल मदेरणा को दरकिनार कर पार्टी ने एक प्रस्ताव पास कर गहलोत को कुर्सी पर बैठा दिया। ये जानते हुए कि इससे जाट वोटर्स और मदेरणा समर्थकों की नाराजगी झेलनी पड़ेगी। उसी तरह प्रस्ताव पासकर आलाकमान ने इस बार भी नया फैसला लिया है। अफसोस है जिस वफादारी और शांति के साथ मदेरणा गुट ने आलाकमान का फैसला माना था।  अशोक गहलोत का खेमा उस खामोशी से आलाकमान के फैसले को सिर माथे नहीं ले सका। इस पूरे घटनाक्रम से अशोक गहलोत भले ही पल्ला झटक लें। पर क्या दोबारा पार्टी का भरोसा हासिल करने में कामयाब होंगे। फिलहाल जो हालात है उसे देखकर ये अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि गहलोत ने न सिर्फ ग्रेंड ओल्ड पार्टी का मुख्य बनने का मौका गंवाया है बल्कि गांधी परिवार के बरसों पुराने विश्वास को भी हिला दिया है।





बैकफुट पर अशोक गहलोत जैसा सीनियर लीडर





देश में कांग्रेस का जनाधार लगातार सिकुड़ रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के बाद से कांग्रेस लगातार बुरे वक्त से गुजर रही। लेकिन ये कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि बीते चंद घंटों में कांग्रेस पर जो गुजरी है वो अब तक का सबसे बुरा वक्त था। जब सबसे भरोसेमंद सिपहसालार सबसे बड़ा मौकापरस्त बनता दिखाई दिया। कुर्सी की चाहत शायद हर रिश्ते-नाते और पुरानी वफादारियों पर भारी पड़ गई। लेकिन इस सियासी घटनाक्रम ने कांग्रेस को सख्त फैसले लेना फिर सिखा दिया। एक बार फिर कमलनाथ का सुर्खियों में रहा जुमला याद आ रहा है। जब उन्होंने दो टूक कहा जो कांग्रेस छोड़ना चाहते हैं उन्हें वो खुद अपनी कार से छोड़ने जाएंगे। यही सख्ती इस बार आलाकमान के फैसले से झलकी है। जिसने अशोक गहलोत जैसे सीनियर लीडर को बैकफुट पर ला दिया है। अब यही रुख कायम रहा तो उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस शायद कुछ बेहतर स्थिति में नजर आए।



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