सोशल मीडिया की हिंसक अराजकता के लिए क़ानूनी लक्ष्मण रेखा

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The Sootr CG
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सोशल मीडिया की हिंसक अराजकता के लिए क़ानूनी लक्ष्मण रेखा

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उपयोग में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन, भारत जैसे विशाल देश में अब भी आबादी का एक हिस्सा अंध विश्वास, कम शिक्षित और बेहद गरीबी से प्रभावित है। उसे भ्रामक प्रचार से उत्तेजित कर हिंसक उपद्रव में शामिल करने के लिए निहित स्वार्थी संगठन और विदेशी एजेंसियों के षड्यंत्र होते रहते हैं। यही कारण है कि भारत सरकार ने सोशल मीडिया के लिए नियमों का प्रावधान कर कुछ कदम उठाना शुरू किए हैं। ट्वीटर संचालित करने वाली कंपनी ने इससे विचलित होकर क़ानूनी लड़ाई छेड़ दी है। जबकि हाल के महीनों में ट्वीटर, फेसबुक, व्हाट्स अप, यू ट्यूब पर गंभीर भड़काऊ बातें फोटो वीडियो का सिलसिला बढ़ता गया है।





भारत में जब इस अराजकता पर किसी नियंत्रण की बात उठती है, तो नागरिक अभिव्यक्ति के अधिकारों का झंडा उठाने वाले कुछ लोग और संगठन हाय तौबा करने लगते हैं। वे इस तथ्य की अनदेखी करते हैं कि पिछले वर्ष दुनिया के 48 देशों ने सोशल मीडिया कंपनियों पर कार्रवाई की है। सोशल मीडिया के दुरूपयोग पर 56 देशों में गिरफ्तारियां हुई हैं। अधिक गड़बड़ी करने पर 21 देशों में सोशल मीडिया पर रोक लगी। ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने हाल ही में घोर अपमानजनक फोटो के साथ सामग्री को रोकने, चौबीस घंटे में उसे हटाने आदि के कड़े नियम कानून लागू कर दिए हैं।





लक्ष्मण रेखा का मतलब, सत्ता का साथ देना नहीं





अखबार, टीवी न्यूज़ चैनल, वेबसाइट के बाद अब ट्वीटर, फेस बुक पर भी नियम कानून का नया फंदा। हर दूसरे तीसरे हफ्ते अभिव्यक्ति की आज़ादी के दुरुपयोग अथवा सत्ता के दबाव का मुद्दा अदालत पहुँच रहा है। संयोग है कि कुछ महीने पहले ब्लूम्सबरी पब्लिशर्स इंडिया ने मेरी अंग्रेजी भाषा की पुस्तक 'पावर प्रेस एन्ड पॉलिटिक्स' प्रकाशित कर बाजार और ऑनलाइन खरीदी के लिए लाई। नतीजा यह है कि मीडिया के कई पत्रकार संपादक टीवी चैनल अथवा यूटूयूब चैनल के लिए तात्कालिक स्थितियों से जोड़कर मुझसे जवाब मांग रहे हैं। अभिव्यक्ति के अधिकार के साथ उसकी सीमाओं का पाठ मेरे प्रेरक सम्पादकों से मिला होने के कारण मैं आज भी उन्मुक्त और अनुत्तरदायी पत्रकारिता के विरुद्ध हूँ। इस पर मेरे कई नए पुराने साथी सोशल मीडिया पर अपनी नाराजगी भी व्यक्त कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि सीमाओं और लक्ष्मण रेखा की दुहाई का मतलब सत्ता का साथ देना है। पत्रकार ही नहीं विभिन्न वर्ग के परिचित अपरिचित भी सवाल उठाते हैं कि क्या इस समय मीडिया पर आपात काल से भी अधिक सत्ता का दबाव है या सब बिकाऊ हो गए हैं?





मीडिया पर दबाव नया नहीं, दबाव में तो टाटा - बिड़ला भी रहते थे





टीवी इंटरव्यू या अन्य मंचों पर मेरा पहला उत्तर होता है- मेरी पुस्तक खरीदकर पढ़िए। मैंने अपने संबंधों और चुनौतियों से अधिक मुझसे वरिष्ठ रहे सम्पादकों के कार्यकाल में पिछले पचास वर्षों में रहे सत्ता के संबधों अथवा दबावों का प्रामाणिक विवरण लिखा है। पहले भी पत्रकारिता पर आई मेरी पुस्तकों में कुछ उल्लेख रहा है। इस कारण ट्वीटर और सोशल मीडिया के लिए नए नियम कानून को लेकर भी बहुत हद तक सहमत हूँ। हाल के कई अदालती फैसलों ने यह विश्वास बढ़ा दिया है कि कोई सत्ता सरकार संविधान में मिले अधिकार छीने जाने के प्रयासों को कड़ाई से रोक देती है। इसलिए न्याय पालिका पर तो भरोसा रखें। जहाँ तक दबावों की बात है, मैं आपात काल और सेंसर काल के पहले या बाद भी सम्पादकों द्वारा झेले जाते रहे दबावों का उल्लेख करता हूँ। एक दिलचस्प उदहारण देश के बड़े अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समेन में संपादक रहे एस निहाल सिंह ने मुझे बताया था। नेहरू के सत्ता काल में वह स्टेट्समैन में रिपोर्टर थे। उन्होंने ज्योतिषी से बातचीत कर एक रिपोर्ट लिखी कि वित्त मंत्री कृष्णमाचारी ज्योतिष पर बहुत भरोसा करते हैं और दक्षिण भारत का एक ज्योतिषी दिल्ली में आकर पांच सितारा होटल में ठहरता है और मंत्री जी बराबर उसके पास जाकर मिलते, सलाह मशविरा करते हैं। यह रिपोर्ट अखबार के साप्ताहिक स्तम्भ 'यस्टरडे इन दिल्ली" में जाना थी। छपने से पहले किसी वरिष्ठ सहयोगी से यह सूचना मंत्री तक पहुँच गई, तब वित्त मंत्री ने अखबार पर बहुत दबाव डाला कि यह रिपोर्ट न छापें, क्योंकि इससे नेहरू उनसे बहुत नाराज हो जाएंगे। सामान्यतः उस अखबार में दबाव नहीं माना जाता था, लेकिन वित्त मंत्री के दबाव में वह छोटी रिपोर्ट तक नहीं प्रकाशित हो सकी। हाँ, निहाल सिंह जब संपादक रहे, उन्होंने सत्ता या प्रबंधन के दबाव को नहीं स्वीकारा और इस कारण उन्हें दो—तीन बार नौकरी भी छोड़ना पड़ी। आपात काल से भी बहुत पहले सत्ता और प्रबंधन के दबाव का एक मामला कुलदीप नायर ने मुझे सुनाया था। तब स्टेट्समैन के बोर्ड में जेआरडी टाटा हुआ करते थे। उन्होंने एक बार बुलाकर कहा कि इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के झगड़ों की खबरें छपने से बहुत समस्याएं आ रही हैं। नायर जी ने उनसे कहा कि वह केवल सही तथ्य लिख रहे हैं। फिर टाटा ने बोर्ड के अपने ख़ास पलिकीवाला से बात की, जीएम ईरानी के बारे में पूछा। अखबार में वैसी ख़बरें चलती रहीं, तब टाटा ने अपने शेयर वापस लेकर खुद अलग होना उचित समझा। आशय, दबाव में टाटा बिड़ला भी रहते थे। इसलिए आजकल के मालिकों और सरकार के दबावों को नया क्यों समझा जाना चाहिए?





सैनिक की तरह पत्रकारों को भी उठाना होंगे खतरे





कुलदीपजी और बीजी वर्गीज जैसे सम्पादकों ने पहले लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी के साथ काम किया, लेकिन बाद में उनकी सबसे अधिक आलोचना की। इसलिए जो पत्रकार दस साल पहले कांग्रेस राज की नीतियों और नेताओं के काम को सही मानते थे और अब राहुल की कांग्रेस को बर्बाद एवं मोदी सरकार की नीतियों व कदमों को उचित मानते हैं, तो उन्हें बिका हुआ और अवसरवादी क्यों कहा जाए? अभिव्यक्ति की उनकी अपनी स्वतंत्रता है। मैंने अपनी पुस्तक में ऐसे कई सम्पादकों को सत्ता या प्रबंधन के दबाव में नौकरी छोड़ने या निकाले जाने के प्रामाणिक उदाहरण दिए हैं। इनमें हिरण्मय कार्लेकर, अजीत भट्टाचार्जी, राजेंद्र माथुर, मनोहर श्याम जोशी, विनोद मेहता जैसे दिग्गज संपादक शामिल हैं। कुछ सम्पादकों के तो केबिन तक सील हुए। जबकि हाल के सात वर्षों में दिल्ली के किसी प्रधान संपादक को हटाने की खबर नहीं हैं। प्रबंधन अपनी मज़बूरी या किसी दबाव में किसी पत्रकार को हटाता है तो यह उसका अधिकार है। मीडिया में अपना स्वतंत्र काम करने के लिए व्यक्ति नौकरी न करे, तब भी जीवनयापन या चैनल अख़बार चलाने के लिए धन चाहिए। अब किसी विचार, पार्टी के समर्थन और विरोध के लिए अभियान चलना हो तो फिर निष्पक्षता का दावा कैसे किया जा सकता है। असली बात यह है कि सेना के सिपाही या सेनापति की तरह पत्रकारों को निर्भीक होकर खतरे तो उठाना होंगे। इसी लोकतंत्र और संविधान के नियम कानून के अनुसार अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा करना होगी।





विश्वसनीयता के लिए जरूरी है लक्ष्मण रेखा





महात्मा गाँधी ने 1946 में अपने अख़बार 'हरिजन में लिखा था कि पश्चिम की तरह पूर्व में भी अख़बार लोगों की बाइबल, कुरान और भगवदगीता बनते जा रहे हैं। अखबार में जो छपता है, उसे लोग ईश्वरीय सत्य मान लेते हैं। लोग किसी छपी बात को देवी सत्य मान लेते हैं। इस कारण सम्पादकों और अन्य पत्रकारों का दायित्व बढ़ जाता है। गांधीजी ने उस समय पाठकों को भी चेताया था कि "मैं स्वयं कभी अख़बारों की रिपोर्टिंग पर बहुत अधिक भरोसा नहीं करता और अखबारों के पाठकों को चेतावनी देना चाहता हूँ कि वे उनमें छपी बातों से आसानी से प्रभावित न हों।" इस दृष्टि से प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की विश्वसनीयता तथा पत्रकारों या सामाजिक नेताओं की भूमिका को लेकर आज भी बहस जारी है। इसलिए समाज, संसद, सुप्रीम कोर्ट तथा सोशल मीडिया की देशी विदेशी कंपनियों को नियम कानूनों की नई लक्ष्मण रेखा तय करना होगी। 



( लेखक आई टी वी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ और आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं ) 



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