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'पलटूराम' बनने या बनाने में क्या सिर्फ एक ही पक्ष जिम्मेदार होता है ?

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The Sootr CG
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'पलटूराम' बनने या बनाने में क्या सिर्फ एक ही पक्ष जिम्मेदार होता है ?

नीतीश कुमार ने विभिन्न अंतरालों में कुल 22 साल के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में 8वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक नया रिकॉर्ड बनाया है। (यद्यपि सबसे ज्यादा समय 24 सालों के लिए मुख्यमंत्री पद पर पवन कुमार चामलिंग रहे, लेकिन शपथ सिर्फ पांच बार ही ली)। वैसे भारतीय राजनीति के इतिहास का नीतीश कुमार का एक और अनोखा रिकॉर्ड यह भी है कि वे देश के एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री रहे हैं, जहां उनकी पार्टी कभी भी बहुमत में नहीं रही। अर्थात गठबंधन में अल्पमत में भी रहकर वे मुख्यमंत्री बनने में हमेशा सफल (8 बार) रहे हैं। इस प्रकार विश्व के सात अजूबों के समान भारतीय राजनीति के आठवें अजूबे से कम नीतीश कुमार नहीं हैं। 





वर्ष 1967 में जब दल बदल के कारण देश की राजनीति में अस्थिरता का एक दौर आया था, खासकर मुख्यमंत्री भजनलाल द्वारा पूरी सरकार का ही दल बदलने के बाद से उस दलबदल को आया राम-गया राम का नाम दिया गया था। उक्त ‘‘दलबदल विकसित/विकासशील’’ होकर आज नीतीश कुमार के संदर्भ में दलबल के साथ पाला बदलना हो गया। वर्ष 2017 में नीतीश कुमार के महागठबंधन को छोड़कर पाला बदलकर एनडीए के साथ सरकार बनाने पर लालू यादव ने उन्हें पलटू राम की ‘‘पदवी से नवाजा’’ था।





22 सालों के मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में नीतीश बाबू हमेशा ‘‘सुशासन बाबू’’ ही कहलाये। फिर चाहे वे कहीं भी रहे हों और कितने ही घाटों का पानी पिया हो। जिस प्रकार ‘कमल’ कीचड़ से निकलकर भी विश्व में आज वह सबसे ज्यादा ‘चहेता’ है, ठीक उसी प्रकार नीतीश कुमार हर (राजनीतिक) गंदे तालाब में रहकर भी अपनी बेदाग सुशासन बाबू की छवि को बनाये रखने में आश्चर्यजनक रूप से सफल रहे हैं। सुशासन बाबू की ऐसी छवि आज की राजनीति में प्रायः देखने को नहीं मिलती है। शायद इसी कारण से प्रत्येक दल/गठबंधन का प्रयास उन्हे अपने पाले में ले जाने का होता है, जिस कारण से ही नीतीश कुमार ‘पलटूराम’ बनें।  





नीतीश कुमार के आठवीं बार और महागठबंधन के तीसरी बार पुनः मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही अधिकांश मीडिया सहित भाजपा-एनडीए ने लालू प्रसाद यादव द्वारा नीतीश कुमार को प्रदत उक्त पदवी ‘पलटूराम’ की पहचान को एक राजनैतिक हथियार बनाकर नीतीश कुमार को खुब पानी पी पीकर बुरी तरह से कोसा। आज विपक्ष को छोड़कर, अधिकांश मीडिया से लेकर भाजपा-एनडीए नीतीश कुमार को ‘पलटूराम’ कहकर आलोचनात्मक मजा के साथ गुस्से का इजहार कर रही है, यानी ‘‘चित भी मेरी पट भी मेरी’’। परंतु मीडिया सहित भाजपा यह भूल रही है कि जब नीतीश कुमार ने पहली बार महागठबंधन छोड़कर पलटूराम बनकर एनडीए का नेतृत्व किया था, तब इन्ही मीडिया व भाजपा ने गले लगाकर नीतीश कुमार का स्वागत किया था। तब भाजपा व मीडिया को जनादेश के अपमान के साथ विश्वासघात की बात ध्यान व दिमाग में नहीं आई? मात्र सुविधा की राजनीति के मद्देनजर भाजपा और मीडिया का ‘‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’’?

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आखिर ‘‘पलटूराम’’ बनने के लिए कौन से दो मूल तत्वों-तथ्यों की आवश्यकता होती है, इसको जरा समझिए! राजनीति में पलटूराम का मतलब होता है, एक पक्ष का साथ देकर/लेकर, फिर स्वार्थ वश या अन्य किसी भी कारण से उसका साथ छोड़कर विपक्ष (विरोधी पक्ष) के साथ जाकर मिल जाना। मतलब साफ है, पलटूराम होने के लिए दो पक्षों का होना न केवल नितांत आवश्यक है, बल्कि दोनों की सहमति के साथ भागीदारी भी आवश्यक है। एक पक्ष वह है, जहां वह था, जिसे अब वह छोड़ रहा है और दूसरा पक्ष वह है, जहां वह नहीं था, परन्तु अब वह जुड़कर उसे गले लगा रहा है। जिस प्रकार प्रकार रिश्वत के लिए दो पक्षों की आवश्यकता होती है और दोनों पक्षों की भागीदारी होकर वे बराबर के जिम्मेदार (अपराधी) माने जाते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है, पलटूराम बनने/बनाने में भी दोनों पक्ष बराबर के जिम्मेदार होते हैं। अर्थात एनडीए व महागठबंधन नीतीश कुमार को ‘पलटूराम’ बनाने में सफल होने के लिए अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते हैं और न ही अपने योगदान को नकार सकते हैं, तब पलटूराम की बनाई गई नकारात्मक छवि से व स्वयं दूर कैसे भाग सकते है?





इसलिए जिस प्रकार एक सिक्के के दो पहलू होते है, या कहावत है, ‘कांच के घर में रहकर दूसरों के घर में पत्थर नहीं फेंका जाता है’, कम से कम वर्तमान राजनीति में आरोप और प्रत्यारोप लगाने के पूर्व दलों को अपने अपने गिरेबान में अवश्य झाँक लेना चाहिए। यदि राजनीतिक दल व राजनेता ऐसा करने में सफल हो जाये तो निम्न स्तर की राजनीतिक कटुता जो उच्च से उच्चतर की ओर बढ़ती जा रही है, निश्चित रूप से वह कटुता तेजी से गिर जायेगी। बजाय ‘मन मन भावे मुंड हिलाने के’, ‘‘पलटूराम’’ को समस्त पक्ष खासकर मीडिया को इसी दृष्टि से देखना चाहिए। 





मीडिया व भाजपा बार-बार वर्ष जुलाई 2017 में नीतीश कुमार की अंतरात्मा की आवाज पर महागठबन को छोड़ते समय (जिसे वह अब ‘भूल’ कह चुके है) के बयान व उसके प्रत्युत्तर में लालू यादव द्वारा दी गई पलटूराम की संज्ञा को दिखा रही है। परंतु मीडिया वर्ष 2015 में एनडीए छोड़ते समय नीतीश कुमार के बयान और प्रति उत्तर में भाजपा की प्रतिक्रियाओं को उस तरीके से नहीं दिखा रहा है। राजनेतागण तो सुविधा की राजनीति के सिद्धहस्त हैं, जो आज की राजनीति की कटु हकीकत है। उनके लिये तो ‘‘घी का लड्डू टेढ़ा ही भला’’। परंतु देश के लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया भी सुविधा व सहूलियत का क्यों शिकार हो रहा है? इसलिए जब कुछ मीडिया कुछ अन्य मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ कहते है, तो चुप रह जाना पड़ता है।

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दूसरी महत्वपूर्ण बात ‘‘पलटूराम’’ द्वारा जनादेश के अपमान के साथ विश्वासघात की जोर-शोर से की जा रही है। नीतीश कुमार का यह कदम 2020 के जनादेश का अपमान है तथा जनता और भाजपा के साथ विश्वासघात है, यदि उच्च स्तर की राजनीतिक नैतिकता और शुचिता का मापदंड लागू किया जाए तो। क्योंकि प्राप्त जनादेश के विपरीत जनता द्वारा नकारे गए दलों के साथ सरकार बनाई गई हैं। परन्तु तब क्या यही आरोप, सिद्धांत व परसेप्शन तब क्यों नहीं लागू किया गया? जब वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबन के साथ भारी बहुमत प्राप्त कर मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार के द्वारा वर्ष 2017 में उन्हे छोड़कर एनडीए के साथ सरकार बनाई गई। ‘अपना ढेंढर देखे नहीं, दूसरे की फुल्ली निहारे’। तब क्या जनादेश का अपमान व महागठबंधन के साथ विश्वासघात नहीं हुआ था? तब तो मीडिया ने उन्हें ऐसा दुलराया था, जैसे ‘सुबह का भूला शाम को घर वापस आ गया हो’। भाजपा से यह प्रश्न पूछने पर वे दाये-बाये होकर नीतीश कुमार के उस बयान को सामने ला देते है, जब नीतीश कुमार उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव द्वारा माल निर्माण में की गई गड़बड़ी के कारण पड़ा सीबीआई छापे से उजागर हुए तथाकथित भ्रष्टाचार का जवाब न देने पर असहज स्थिति महसूस कर रहे होते हो।  





वैसे जनता ने जिस गठबंधन को 5 साल के लिए चुना है, किसी भी कारण से उसे छोड़कर उस विरोधी गठबंधन के साथ सरकार बना लेना, जिसे जनता ने चुनाव में अस्वीकार कर दिया हो, यानी ‘अंडे सेवे कोई लेवे कोई’, जनादेश का अपमान ही कहलाएगा। लेकिन अपमान की समान परिस्थिति होने के बावजूद ‘‘तेरे द्वारा अपमान परंतु मेरा मान’’ ‘‘अर्थात मान न मान मैं तेरा मेहमान’’ की तरह एक तरफा तर्क नहीं चलेगा? किसी मुद्दे पर असहजता महसूस की जा रही है, तो जो लोग वास्तव में जनादेश को सर्वोपरि मानते हैं तो सही व सच्चे लोकतंत्र का रास्ता वही होगा जहां सत्ता की कुर्सी से इस्तीफा देकर उस मुद्दे को जनता के बीच ले जाकर चुनाव लड़कर जनता से मत मांग कर विश्वास पाकर पुनः सत्ता प्राप्त करे। परन्तु यह तो ‘‘आकाश कुसुम तोड़ कर लाने जैसा है’’।





आज की ‘दुधारू गाय की लात खुशी खुशी सहने वाली’ राजनीति में कोई माई का लाल या नेता व पार्टी पागलपन की इस सोच तक जाने के लिए एक क्षण भी नहीं सोचेगा, तो फिर इस मुद्दे पर आरोप प्रत्यारोप क्यों? इसलिए जनादेश की अपमान की बात करना सिर्फ जनता को मूर्ख बनाना है। पूर्व में कांग्रेस ने कितनी बार चुनी हुई सरकारों को भंग कर (56 बार) या दल बदल कर गिरा कर जनादेश का अनादर किया है। अब ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होंय’। आज देश में भाजपा को सत्ता का मौका मिला है, तब उसने भी कांग्रेस की पूर्व परिपाटी को आगे बढ़ाते हुए महाराष्ट्र सहित आठ राज्यों में शासन करने का स्पष्ट जनादेश न मिलने के बावजूद तोड़फोड़ कर जुगाड़ कर, दलों को तोड़कर अपनी प्रभुसत्ता की सत्ता स्थापित की। इस प्रकार आभासी जनादेश के परसेप्शन का वातावरण बनाया गया। देश में दिन प्रतिदिन घट रही इस तरह की राजनीतिक घटनाओं से देश का बौद्धिक वर्ग अपने आपको ठगा हुआ सा महसूस कर रहा है और वह इस कारण विकल्पहीन राजनीति के भंवर में फंसते जा रहा है। कही ऐसा न हो कि भविष्य में वोट नहीं नोटा महत्वपूर्ण होकर शासन करें? 

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पलटूराम के कारण हुए इस सत्ता परिवर्तन का तुरंत सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि विक्षप्त व सुप्त विपक्ष जागृत हो गया, जैसे संजीवनी ही मिल गई हो। बिहार में एनडीए भाजपा तक सीमित हो गया। भाजपा के लिए सबसे बड़ा प्रश्न सोचने का व चिंता का विषय यह है कि भाजपा के सत्ता के तेजी से फैलाव के बावजूद अन्य दलों के उसके साथ आने के बजाय विपरीत उसके सहयोगी दलों के छिटकने के कारण एनडीए का आकार सिकुड़ते जा रहा है। जबकि अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में एनडीए में लगभग 26 सहयोगी दल शामिल थे।





अंत में बिहारी बाबू के नाम से प्रसिद्ध बिहारी नेता प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार शत्रुघ्न सिन्हा बिहार छोड़कर पश्चिम बंगाल से सांसद बने। अब परिवर्तित स्थिति में शायद उस बिहार में विहार करने की परिस्थितियां बन गई है। और पाले बदलने की राजनीति का प्रमुख केन्द्र बन गये बिहार में शत्रुघन सिन्हा राज्य (पश्चिम बंगाल) छोड़ कर ‘‘पुनर्मूषकोभव’’ की उक्ति चरितार्थ करते हुए वापस अपने राज्य में आ सकते हैं। उक्त पाले बदलने का एक संदेश कम से कम यह भी जा सकता है।





(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार और सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष हैं )



 



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