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अब किस दुनिया में जिएं प्रेमचंद  के झूरी काछी और हीरा-मोती 

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The Sootr CG
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अब किस दुनिया में जिएं प्रेमचंद  के झूरी काछी और हीरा-मोती 

आज मुंशी प्रेमचन्द की जयंती है। आज के दिन प्रेमचंद बड़ी शिद्दत से याद किए जाते हैं। हमारे यहां एक रिवाज है जिसे न मानना हो उसको पूजना शुरु कर दो। नेताओं ने ऐसे ही गांधी को पूजना शुरू कर दिया। फोटो को चौखटे में मढ़ दिया ताकि वहीं कैद रहें निकले नहीं। साहित्यकारों ने ऐसे ही प्रेमचंद को बना दिया। प्रेमचन्द का समाज अलगू चौधरी और जुम्मन शेख के पंच परमेश्वर का समाज था, मुंहदेखी और पक्षपात से सर्वथा अलग। आज साहित्यकारिता में चारण-भांटों या वैचारिक विरोधियों के साथ शाब्दिक व्यभिचारियों का दौर है। बीच का वर्ग सुविधाश्रयी है। प्रेमचन्द तुलसी की तरह सहज, सरल और तरल थे। हिन्दी जगत में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले साहित्य सर्जक जनजीवन के सबसे ज्यादा करीब और संवेदनशील। 





मर्मस्पर्शी कहानी 





तुलसी ने कागभुशुण्डि -गरुड़ (कौव्वा और बाज) से रामकथा गंवा दी, तो प्रेमचंद ने अपनी कहानी दो बैलों की कथा में हीरा..मोती नाम के बैलों से जीवनमूल्यों की स्थापना और मुक्ति के संघर्ष का संदेश दिया। इन दिनों प्रेमचंद की यह मर्मस्पर्शी कहानी रह रह कर टीसती सी है। यह कहानी पिछली सदी के तीस के दशक की थी। प्रेमचंद को पूंजीवाद के विस्तार और आक्टोपसी अर्थसंस्कृति के धमक की आहट तो थी लेकिन भारतमाता की ग्राम्यवासिनी अर्थव्यवस्था से हीरा मोती को झूरी काछी की थान से बूचडख़ाने तक का सफर करना पड़ेगा इसकी शायद कल्पना भी नहीं थी।  





गोवंश को बूचड़खाने ले जाने वाले कौन

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आज देश में गोरक्षा को लेकर उन्माद है। लेकिन ऐसी स्थित क्यों और कैसे बनी व विकल्प क्या है इसपर विचार करने कोई तैय्यार नहीं है। प्रेमचंद के अलगू चौधरी व जुम्मन शेख वाले समाज मे इस उन्माद ने मॉब लीचिंग का रूप ले लिया है। इस देश में भांग के नशे के तरंग की भांति शब्दों का भी ज्वार भाटा आता है। आवारा लहरें  गरीब, मासूम और मजलूम लोगों बहा ले जाती हैं। ऐसा दौर कुदरत के जलजले से भी खतरनाक होता है।  पुराणकथाओं में जब जनजीवन पर संकट आता था तब भूमि विचारी गो तनुधारी.. ईश्वर से फरियाद करने जाती थी। आज गाय को हिन्सा का निमित्त बना दिया गया। गाय और गोवंश को इस दशा तक पहुंचाने वाले कसाई कौन हैं.? गाय और गोवंश युगों से हमारी अर्थव्यवस्था और लोकजीवन की धुरी रहा है। भगवान् कृष्ण को इसीलिये गोपाल बनना पड़ा था। आज हमने घर में मंदिर बनाकर गोपालजी की प्राण-प्रतिष्ठा तो कर ली और ज्यादा धार्मिक हो गए और गोमाता को सडक़ पर विष्ठा, पन्नी खाकर मरने के लिए और सरहंगों, गुन्डों को गाय के नामपर गुंडागर्दी करने के लिए छोड़ दिया।





ग्राम स्वराज्य की अर्थी 





 गाय और गोवंश को हमारे नीति निर्धारकों ने योजनाबद्ध तरीके से बाहर किया और हमने इसका बढ़चढ़कर समर्थन किया। गांधी जी ने ग्राम स्वराज्य की अवधारणा दी। गांव के संसाधनों के वैज्ञानिक कौशल के विकास के पक्षधर थे। उनको यह चिंता थी कि यूरोपीय अर्थव्यवस्था का माडल गांवों को गुलाम बना देगा। यूरोपीय माडल मशीन की धुरी पर टिका था जिसमें संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं थी।  हमने गांधी को सिर्फ पूजा उनकी सीख और नसीहतों को तिलांजलि देदी। नेहरू के फोकस में शहरी और मशीनीकृत अर्थव्यवस्था का माडल था। ग्राम-सुराज की अवधारणा को धीमा जहर देकर मारा गया। हरितक्रांति और फिर सन् नब्बे के नरसिंह राव-मनमोहन माडल ने ग्राम स्वराज्य की अर्थी उठाने की दिशा में कदम बढा दिया। 

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किसान आत्महत्या बड़ा प्रश्न





हमारे पारंपरिक कौशल और खेती के पुश्तैनी ज्ञान को डंकल जैसे ज्ञानियों ने खा लिया। खेतों का दोहन नहीं शोषण शुरू हो गया। गाय बैल खेती से खारिज कर वहां ट्रैक्टर तैनात कर दिए गए। यह सही है कि हमारे खेतों में इतना अन्न नहीं उपजता था पहले पर इतना तो उपजता ही था कि किसानों का गुजारा चल जाता था। देश ने सरसठ अड़सठ का अकाल भी देखा पर किसानों ने ऐसी आत्महत्याएं नहीं कीं। आज खेती गुलाम हो गयी है और उसके घटक अप्रसांगिक। इसकी सबसे ज्यादा मार उन मूक पशुओं पर पड़ी है जो किसानों के हमदम थे। गाय को लेकर हल्ला मचाने वाले विकल्प की बात नहीं करते। निश्चित ही गाय हमारी पवित्र आस्थाओं के साथ जुड़ी है पर वह ससम्मान कैसे बचे इसकी कार्ययोजना बननी चाहिए और ये धर्मप्राण सरकार बना भी रही होगी। मुश्किल यह है कि बछड़ों और बैलों का क्या होगा। इनकी तो अब कोई उपयोगिता नहीं। 



शंकरजी का नंदी होने के नाते यद्यपि बैल भी एक धार्मिक प्रतीक है पर आस्थाओं में इसका वो दर्जा नहीं जो गाय को प्राप्त है। गाय और गोवंश को बचाना है तो सरकार को ठोस कदम बनाना ही होगा।  एक सुझाव यह भी है कि जिस तरह भारतीय खाद्य निगम बना है वैसे ही..भारतीय गोवंश निगम बनाया जा सकता है। सरकार घाटा सहकर भी खाद्य निगम को संचालित करता है ताकि देशवासियों की खाद्य सुरक्षा के साथ ही समर्थन मूल्य के जरिए किसानों का भी हित संरक्षण कर सके। उसी तरह गोवंश निगम में भी गाय बछड़ों को संरक्षित करने की व्यवस्था हो। 





बड़े पैमाने पर हो गोवंश उत्पादों की बिक्री  





  गौवंश के उत्पादों, दूध, गोमूत्र, गोबर की उपयोगिता का प्रचार प्रसार हो। रोज पढ़ने को मिलता है कि गौमूत्र में इतने गुण हैं। इसमें सोना चांदी पाया जाता है। गाय का दूध अमृत है तो इसका बाजारीकरण क्यों नहीं हो सकता। जिस देश में बीस रुपये के बोतलबंद पानी और पांच रुपये के आलू को अंकल चिप्स में बदलकर अरबों. खरबों रुपये का व्यापार किया जा सकता है तो फिर गोवंश के उत्पाद क्यों नहीं.? आखिर यह धर्मप्राण देश है। गाय के लिए हम मरने मारने पर उतारू हैं तो उसे बचाने के लिए इतना तो कर ही सकते हैं। आज गांधी होते तो अपने ग्राम स्वराज की दुर्दशा देखकर जार-जार रोते और प्रेमचंद झूरी काछी के हीरा मोती को बचाने के लिए समूची रचनाधर्मिता दांव पर लगा। 



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