जबलपुर। किसानों के लिए रासायनिक खाद यानी केमिकल फर्टिलाइजर हमेशा से चिंता का मुद्दा रहा है। यूरिया की कमी से किसान भी परेशान होते रहते हैं। यूरिया-डीएपी की वजह से बड़ी तादाद में राजस्व को नुकसान भी होता है। भारत को विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। लेकिन अब जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने किसानों को महंगे खाद से मुक्ति दिलाने के लिए एक तरकीब निकाली है। किसानों को सबसे मंहगा खाद डीएपी मिलता है। जिसमें नाइट्रोजन और फास्फोरस होता है। बाजार में इसकी कीमत 1300 से 1500 रुपये प्रति 50 किलो होती है।
पीएसबी कल्चर
डीएपी खाद का मात्र 30% फास्फोरस ही पौधा ग्रहण करता है, बाकी फास्फोरस बेकार हो जाता है। इस बेकार फास्फोरस को सक्रिय बनाने के लिए पीएसबी कल्चर बनाया गया है, जिसमें एक बैक्टीरिया होता है, जो जमीन में पड़े हुए अनुपयोगी फास्फोरस को आयोनाइस करके सक्रिय बना देता है। इसके बाद पौधा इसे ग्रहण कर लेता है। इस फास्फोरस की वजह से किसानों की फसल लहलहाने लगती है। जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के माइक्रोव रिसर्च एंड प्रोडक्शन सेंटर में बेहद कम कीमत में ये बैक्टीरिया कल्चर किसानों को मुहैया करवाया जा रहा हैं।
यूरिया के ले अभी भी विदेश पर निर्भर भारत
यूरिया सिंथेटिक तरीके से बनता है और अभी भी भारत यूरिया के मामले में विदेशों पर निर्भर है। गेहूं, दलहन, तिलहन यहां तक कि गन्ने जैसी फसल के लिए भी अलग-अलग किस्म के बैक्टीरिया तैयार किए जाते हैं। यदि इन बैक्टीरिया के कल्चर को फसल के साथ जमीन में छोड़ा जाए तो अलग से यूरिया देने की जरूरत न के बराबर होती है।
केमिकल फर्टिलाइजर की जरूरत किसान को हर साल होती है। किसान अच्छी फसलों के लिए हर साल लागत लगाते हैं, लेकिन फसल बिगड़ जाए तो किसान इसी महंगे खाद के चलते घाटे में चला जाता है। अगर bio-fertilizer का सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो खेती लाभ का धंधा बन सकती है।