श्योपुर जिले में हल्दी की खेती से आदिवासी किसानों की चांदी हो गई है। हल्दी की खेती से किसानों को बहुत फायदा है, यह कम लागत लेती है और ज्यादा मुनाफा देती है। हल्दी में नुकसान की भी आशंका बहुत कम होती है और मांग की भी पुर्ति हो जाती है। यहां करीब तीन हजार किसान तीन हजार हेक्टेयर क्षेत्र में हल्दी की खेती कर रहे हैं। देश की कई आयुर्वेदिक और मसाला कंपनियां भी यहां से हल्दी खरीदती हैं। मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान के जिलों में भी इसकी मांग है।
कहां से मिली प्रेरणा
हल्दी की खेती की शुरुआत 2011 में श्योपुर के 40 किसानों के समूह को हल्दी की खेती दिखाने के लिए झांसी (उप्र) के बरुआसागर ले जाया गया था। फिर अगले साल ही 2012 में कराहल के आदिवासी ब्लॉक बरगवां संकुल के गांवों के 40 किसानों ने 15 एकड़ में 450 क्विंटल हल्दी का उत्पादन किया।2013 में एक दल हल्दी का सबसे ज्यादा उत्पादक महाराष्ट्र के सतारा, सांगली और पंडरपुर भेजा गया। 2015 से 2019 तक किसानों को कभी सांगली तो कभी बरुआसागर में हल्दी की खेती दिखाई गई। 2019 में 150 किसानों ने 7500 क्विंटल हल्दी का उत्पादन किया। प्रति हेक्टेयर 40 से 50 हजार रुपये मुनाफा होने पर इस साल तीन हजार किसानों ने तीन हजार हेक्टेयर में इसकी बोनी की है।
पहले सिर्फ ज्वार-मक्का की खेती से पलता था पेट
मप्र ग्रामीण आजीविका मिशन के जिला परियोजना प्रबंधक (डीपीएम) डॉ. एसके मुद्गल ने बताया कि बरुआसागर से सेलम किस्म का बीज लाकर खेती शुरू की तो किसानों का जीवन ही बदल गया है। इस बात की पुष्टि चितारा गांव के किसान मानसिंह ने की। उन्होंने बताया कि पहले सिर्फ ज्वार-मक्का की खेती करके परिवार के पांच सदस्यों का पेट बड़ी मुश्किल में भर पाता था। पिछले चार साल से तीन हेक्टेयर में हल्दी की खेती कर रहे हैं। हर साल सभी खर्च काटकर एक से डेढ़ लाख रुपये का मुनाफा हो जाता है।
प्रोसेसिंग यूनिट 77 लाख रुपये की लागत से तैयार की
कराहल जनपद पंचायत के पास 77 लाख रुपये की लागत से प्रोसेसिंग यूनिट तैयार की जा रही है जिससे हल्दी को बेचने के लिए किसानों को ज्यादा परेशान न होना पड़े। यहां हल्दी को सुखाकर उसे पीसने के बाद पैकिंग करके बाजार में बेचा जाएगा। कलेक्टर राकेश कुमार श्रीवास्तव ने बताया कि भोपाल की एजेंसी यहां की हल्दी को ब्रांड के रूप में पहचान दिलाने के लिए काम करेगी।