खो गया मॉनसून: राजस्थान में 45° तापमान, दिल्ली में लू; क्या पूर्वानुमान में चूक होती है, समझें

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खो गया मॉनसून: राजस्थान में 45° तापमान, दिल्ली में लू; क्या पूर्वानुमान में चूक होती है, समझें

देशभर में मानसून सुस्त हो गया है। जून जहां मानसून में भीगा रहता था, दो दिन से वह भी तप रहा है। मंगलवार को भोपाल में पारा सामान्य से 3 डिग्री ज्यादा 36.9 डिग्री पर पहुंच गया। इससे पहले यहां 12 जून को यही तापमान था।वहीं, ग्वालियर में लू जैसे हालात रहे। यहां 44 डिग्री पारा रिकॉर्ड हुआ। ग्वालियर देश का चौथा गर्म शहर रहा, जबकि राजस्थान का गंगानगर 45.8 डिग्री पारे के साथ सबसे ज्यादा तपा। दूसरे नंबर पर राजस्थान का ही चुरू रहा तो तीसरे पर बीकानेर। दिल्ली भी 43 डिग्री तापमान में तपा।

क्या मौसम विभाग से चूक हो रही है?

मौसम विभाग के तमाम पूर्वानुमानों को धता बताते हुए मॉनसून दिल्ली-एनसीआर से मुंह मोड़े हुए है। पहले लगा कि निश्चित तारीख 25 जून से 10 दिन पहले ही 14-17 जून के बीच दिल्ली के दरवाजे पर इसकी दस्तक हो जाएगी, लेकिन मौसम विभाग की भविष्यवाणी होते ही मॉनसून ने गच्चा दे दिया। सवाल है कि आखिर मॉनसून को लेकर हमारे पूर्वानुमान क्यों गच्चा खा जाते हैं? मौसम विभाग के गुणा-गणित में आखिर कहां चूक हो रही है?

थोड़ा सुधार है, थोड़े की दरकार

मौसम विभाग का दावा है कि बीते सालों में उसकी भविष्यवाणियां काफी सटीक रही हैं। पहले जो पूर्वानुमान महज 60% तक सच होते थे वे अब 80% तक सटीक साबित हो रहे हैं। सवाल है कि ये आंकड़ा 100% तक कब और कैसे जाएगा? इस पर मौसम विभाग के पूर्वानुमान विभाग के महानिदेशक डॉ राजेंद्र कुमार जेनामणि कहते हैं कि बाकी 20% पूर्वानुमान सटीक ना बैठने के पीछे मुख्य वजह ऑब्जर्वेटरी, रडार और एयर बैलून की तादाद कम रहना है। हमारा मॉडल पुख्ता है। अगले एक-दो साल में कई जगह नई तकनीक वाले निगरानी केंद्र, रडार, एयर बैलून और अन्य इक्विपमेंट्स लगवा कर डाटा कलेक्शन को और मजबूत करेंगे।

मौसम का मिजाज बदलता रहता है

स्काईमेट के वाइस प्रेसिडेंट महेश पालावत भी इस बात को मानते हैं कि देश में मौसम वैज्ञानिकों के 80% पूर्वानुमान सही साबित होते हैं। हालांकि, 20% की चूक की वजह वे भारतीय प्रायद्वीप में मौसम के लगातार बदलते मिजाज को बताते हैं।बीते 10 साल का अध्ययन बताता है कि मॉनसून के आते और जाते समय ही गरज के साथ बारिश होती थी। इसके बीच कुछ दिन रिमझिम फुहारें कई-कई दिनों तक बरसती थीं, लेकिन अब इस पैटर्न में भी बदलाव आया है। स्तरीय बादल बनने कम हो गए हैं। ये बादल बड़े इलाके में एकसाथ बारिश करते थे। इनके अभाव की वजह से कम ऊंचाई वाले बादल कहीं-कहीं एकदम से बरसकर फौरन खाली हो जाते हैं।

विकसित देश कैसे कर लेते हैं सटीक भविष्यवाणी?

पालावत के मुताबिक, जिस मॉडल पर हम यहां भविष्यवाणी करते हैं और 80% सही होती हैं। उसी मॉडल पर हम अमेरिका, ब्रिटेन या जापान या फिर किसी भी यूरोपीय देश में चले जाएं तो 95 से 97% तक पूर्वानुमान सच साबित कर सकते हैं। कसर हमारी स्टडी और मॉडल में नहीं, बल्कि मौसम के बदलाव में है। हमारे उपमहाद्वीप में मौसम ट्रॉपिकल यानी उष्ण कटिबंधीय मिजाज वाला है यानी बारिश, आंधी और गरज चमक के साथ बौछारों का लंबे समय पहले किया गया अनुमान कई बार गड़बड़ हो जाता है। इसके उलट अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा चीन या जापान का मौसम स्थिर होता है और उसका पैटर्न ज्यादा बदलाव वाला नहीं होता। उष्णकटिबंधीय यानी कर्क रेखा के भारत के बीच से गुजरने की वजह से यहां मौसम का बदलाव ही नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन का असर भी जल्द दिखता है।

मौसम विभाग का फ्यूचर प्लान

जेनामणि के मुताबिक, अगले दो सालों में देश भर में 100 के करीब डॉप्लर और रडार स्थापित किए जाएंगे। इनकी तादाद जितनी बढ़ेगी पहाड़ों पर बर्फबारी, बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदा की भविष्यवाणी की क्षमता समय रहते और सटीक होगी।

बदरा बिफरे