जिस योगेश्वर ने अर्जुन के रथ का सारथ्य किया,उस माधव के सारथी कौन थे, वो सारथी अपने स्वामी के बारे में क्या सोचता था,जानें

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कृष्ण ने महाभारत में अर्जुन का सारथ्य किया यानी अर्जुन के सारथी बने। गीता का उपदेश दिया। सही मायनों में तो वे हमारे जीवन के रथ का भी सारथ्य कर ही रहे हैं। लेकिन कृष्ण के सारथी कौन थे.....? शायद कम लोग जानते होंगे, कृष्ण के सारथी दारुक थे। दारुक के लिए कृष्ण क्या थे..., शिवाजी सावंत के ग्रंथ युगंधर से आज यही सुना रहा हूं। मैंने अपनी कहानी को नाम दिया है- दारुक के कृष्ण....

दारुक कहते हैं कि मैं अपने स्वामी कृष्ण के गरुड़ध्वज रथ का वाहक हूं। मैं उनसे पहली बार मथुरा में कंस वध के बाद मिला था। वह पल मुझे ज्यों का त्यों याद है। स्वामी के संपर्क में आने से पहले मैं नाममात्र का एक संकोची, आज्ञापालक सेवक मात्र था। उनके मिलने के  बाद मुझमें मूलभूत परिवर्तन होने लगे, अनजाने में। सच तो ये है कि मैं तो नाममात्र का सारथी था, सच्चे सारथी तो स्वामी थे।

हर मनुष्य के साथ एक रथ दौड़ता रहता है- विचारों का, नींद में भी। स्वामी ने जीवनभर लाखों यादवों के विचार रथ का सारथ्य तो किया ही, वे जहां भी गए, वहां के शत्रुपक्ष के भी लाखों जनों के विचार रथ का सारथ्य भी किया। मेरा सौभाग्य है कि असंख्य लोगों के जीवन रथ का सारथ्य करने वाले महापुरुष युगंधर के रथ का मैं सारथी बना। वो भी एक-दो दिन नहीं, बल्कि अपनी पहली भेंट से लेकर उनके अंतिम क्षण तक।

मेरे स्वामी का जीवन कार्य ऐसा अद्भुत था कि मानो कोई कुशल चित्रकार सुंदर रंगों के संयोजन से कोई आकर्षक चित्र बनाए और पूरा विश्व उसे देखकर भौंचक्का रह जाए। चित्र बनाते समय अनजाने में ही चित्रकार की तूलिका से रंग के कुछ छींटे इधर-उधर छिटक जाते हैं, उसी प्रकार स्वामी के जीवन चित्र के दो-चार रंगीन छींटे मेरी अंजुली में आ पड़े हैं।

गतिमानता उन्हें अत्यंत प्रिय थी। उनका एक विचार बार-बार सुनने के कारण मुझे कंठस्थ हो गया है। गुलाबी होठों के पीछे छिपी दंतपंक्ति खिलाते हुए वे मुस्कराकर कहा करते थे- वृद्धि और विकास जीवन के चिह्न हैं, इस बात को हमेशा याद रखना। एक बार मैंने उनसे पूछा- स्वामी क्या वृद्धि का अर्थ विकास नहीं है? अपनी स्वाभाविक मुस्कान के साथ उन्होंने कहा- दारुक, वृद्धि का अर्थ है बाहरी शरीर की वृद्धि। विकास का अर्थ है संस्कारों से घटित मन की वृद्धि यानी आंतरिक विकास। उम्र में तो मैं उनसे बड़ा हूं, ज्येष्ठ हूं, लेकिन ज्ञान में उनके चार अश्वों शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक की पूंछ पर पड़ी धूल के समान भी नहीं हूं।

द्वारिका में हम सारथियों की अलग बस्ती थी, लेकिन हम स्वामी और सुधर्मा सभा के किसी भी मंत्री के भवन में बिना रोक-टोक के जा सकते थे। द्वारिकाधीश का सभी को कठोर आदेश था कि द्वारिका में किसी भी पुरुष-स्त्री को जन्म या जन्म से प्राप्त कर्म के आधार पर छोटा-बड़ा नहीं समझा जाएगा। व्यक्ति का बड़प्पन उसके विचार तय करेंगे। ऐसे उदार विचारों के चलते सभी उनकी ओर अनायास ही खिंचे चले आते थे।

यादवों के 18 कुलों का ध्यान रखने की बजाय वे पांडवों का ज्यादा ध्यान रखते थे। उनके ही एक महत्वपूर्ण काम से हम द्वारिका से उपप्लाव्य गए थे। वहां से गरुड़ध्वज रथ में स्वामी के साथ मैं और सेनापति सात्यकि और कुछ इने-गिने योद्धा हस्तिनापुर पहुंचे थे। स्वामी का स्वागत अत्यंत हर्षोल्लास के साथ हुआ। स्वामी कौरवों-पांडवों के राज्याधिकार के प्रश्न पर उभरे तनाव के चलते हस्तिनापुर गए थे। मैंने उन्हें जैसे-तैसे कुरु राजसभा पहुंचाया। पूरे आर्यावर्त का ध्यान इसी ओर लगा था कि इस चिंतन-मंथन का परिणाम क्या निकलने वाला है।

स्वामी को कुरु राजसभा के निकट पहुंचाकर, सेनापति सात्यकि और कुछ योद्धाओं को छोड़कर मैं राजभवन के बाहर ही रुक गया। सभागृह में क्या हुआ, यह मुझे नहीं पता, लेकिन एक घंटे में ही पितामह भीष्म, महामंत्री विदुर, मंत्री संजय, कर्ण, अमात्य वृषवर्मा जैसे कुरुश्रेष्ठों के साथ बाहर आए स्वामी का मुखमंडल कुछ अलग ही था। उनका चेहरा कुछ कठोर और कठिन निर्णय लेने में दृढ़तापूर्ण दिख  रहा था। उनकी चाल धीर-समीर की तरह सहज होती थी, आज वे किसी मल्लयोद्धा की तरह सुदृढ़ शरीर का मान रखे हुए हर पग को धरती में गड़ाकर चल रहे थे। मैं रथ उनके करीब ले गया। स्वामी ने अचानक अपना बायां हाथ अंगराज कर्ण की तरफ बढ़ाते हुए कहा- आओ महाबाहो, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है। कर्ण बिना कुछ बोले स्वामी के साथ रथ पर बैठ गए। स्वामी ने आदेश दिया- दारुक, रथ को हस्तिनापुर की सीमा से बाहर ले चलो। अभी कहीं भी मत रुकना।

मैंने चारों अश्वों शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक को उनके नाम से पुकारा और दौड़ने का संकेत दिया। रथ ने कुछ ही पलों में गति पकड़ ली। मैंने ताड़ लिया था कि स्वामी को अंगराज से कुछ विशेष बात करनी है, जिसके लिए वे एकांत चाहते हैं। ये क्षण मेरे लिए चिरस्मरणीय क्षण था। हम सूतपुत्रों में से ही एक, अंगराज की पदवी प्राप्त, ब्रह्मास्त्रधारी, दानवीर महारथी को स्वामी के साथ वहन करने का मुझे सौभाग्य मिला था। लेकिन मैं ये नहीं समझ पा रहा था कि द्वारिकाधीश ने एक सूतपुत्र को ही इतने आदर से अपने साथ क्यों लिया?

मैं दोनों को लेकर हस्तिनापुर के बाहर एक घेरदार वटवृक्ष के पास ले आया। कुछ देर बाद दोनों वीर लौटे और गरुड़ध्वज रथ के पास आए। स्वामी ने मुझे आदेश दिया- दारुक, अंगराज को राजनगर में सभागृह तक पहुंचा दो। महावीर कर्ण ने स्वामी का हाथ अपने हाथ में लिया और कुछ दबाते हुए कहा- इसकी कोई आवश्यकता नहीं माधव, मैं पैदल ही चला जाऊंगा...और वे मुड़कर जाने लगे। स्वामी ने अपने आप से बुदबुदाते हुए कहा- महायुद्ध का होना अब अटल है.... चलो दारुक......।

मैं स्वामी का केवल सारथि नहीं था, उन्होंने मुझे सखा माना था। यद्यपि मेरी इस धारणा का कोई अर्थ नहीं था, फिर भी यही सोचता था कि उनकी सुरक्षा का दायित्व मुझ पर है। इसलिए परछाई की तरह मैं उनके साथ आगे-पीछे रहा करता था। वे मेरे कंधे थपथपाते हुए कहते थे- कितनी सेवा करोगे दारुक। थोड़ा घूम आओ, जहां तुम्हारा मन करे। उनकी सुरक्षा का दायित्व मेरा ही है, मेरी ये धारणा कितनी भ्रांत थी, ये मेरी समझ में आता था। उन्होंने मुझे सखा माना था, यह सोचकर मैं अभिभूत हो जाता था। स्वामी मुझे सखा मानते थे, ये बात कुछ अभिज्ञ जन जान चुके थे- महर्षि व्यास उन्हीं में से एक थे।......बस यही थी आज की कहानी....।