MP:छत्तीसगढ़ के पहले शहीद का अनोखा विद्रोह, जब आदिवासी जमींदार ने साहूकार का गोदाम लूटकर भूख से व्याकुल जनता को बांट दिया सारा धान

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MP:छत्तीसगढ़ के पहले शहीद का अनोखा विद्रोह, जब आदिवासी जमींदार ने साहूकार का गोदाम लूटकर भूख से व्याकुल जनता को बांट दिया सारा धान

डॉ. सुशील त्रिवेदी





भारत का स्वतंत्रता आंदोलन एक ऐसा जन आंदोलन था जो जैसे-जैसे बढ़ता गया वैसे-वैसे उसकी शक्ति बढ़ती गई थी। यह आंदोलन प्रदेशों और वर्गों के भेदभाव से ऊपर उठकर पूरे देश की जनता की संयुक्त इच्छा शक्ति की अभिव्यक्ति बन गया था। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की जब चर्चा होती है तब 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद से उसका विवरण दिया जाता है। इस स्वाधीनता आंदोलन में आदिवासी नायकों के योगदान की भी शौर्य गाथाएं ऐसी हैं कि आज भी सिहरन पैदा कर देती हैं। ऐसे ही एक बलिदानी थे रायपुर के सोनाखान के आदिवासी जमींदार नारायण सिंह। 1957 में ही उनके जमींदारी क्षेत्र में भयावह सूखा पड़ा था, अपनी जनता को काल कवलित होने से बचाने के लिए नारायण सिंह ने अद्भुत विद्रोह किया और साहूकार के गोदाम लूटकर सारा धान अपने क्षेत्र की जनता को बांट दिया। बाद में से अंग्रेजों ने इसे विद्रोह मानते हुए उन्हें सार्वजनिक फांसी की सजा सुनाई। यहां हम बता रहे हैं जमींदार नारायण सिंह के अनोखे विद्रोह सहित विद्रोहाष्टक की गुमनाम दास्ता...।





हमारे इतिहास लेखन में स्वतंत्रता आंदोलन में कुछ प्रदेशों और वर्गों का उल्लेख बार-बार आता है किन्तुु आदिवासी क्षेत्रों और आदिवासियों के योगदान को प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है। यह और भी महत्वपूर्ण बिन्दु है कि 1857 के पहले भारत में अंग्रेजों के विरूद्ध आदिवासियों ने बार-बार विद्रोह किए थे और जिनके फलस्वरूप आदिवासी क्षेत्रों में अंग्रेेजों को अपनी सत्ता स्थापित करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा। ऐसे विद्रोहों का तो संदर्भ भी आसानी से नहीं मिलता है। वास्तव में बस्तर में 1774 में जो हलबा विद्रोह हुआ था वह भारत में अंग्रेजों के विरूद्ध सबसे पहला विद्रोह था। इतना ही नहीं 1774 से लेकर 1854 तक आदिवासियों ने यहां आठ विद्रोह किए थे। इस विद्रोहाष्टक का उल्लेख इतिहास ग्रंथों में नहीं मिलता। इस विद्रोहाष्टक की चर्चा बाद में की जाएगी अभी तो हम यहां छत्तीसगढ़ में 1856 से 1916 तक हुए ऐसे आंदोलनों की चर्चा कर रहे हैं।





फिर-फिर आदिवासी विद्रोह





यह उल्लेखनीय है कि सन् 1854 में बस्तर क्षेत्र पूरे तौर पर अंग्रेेजी शासन के अधीन हो गया था। इस नये शासन से न तो बस्तर के राजा भैरम देव से संतुष्ट थे और न यहां के आदिवासी जनता। अंग्रेजी शासन के अत्याचार के विरोध में आदिवासी जनता तो पूरी तरह से असहयोग पर उतर आयी थी। मार्च, 1856 में दक्षिण बस्तर में आंदोलन तेज हो गया और असहयोग की आग से विद्रोह की ऊंची लपटें उठने लगीं। अंग्रेजी शासन के विरोध में आदिवासी युद्ध करने लगे। दक्षिण बस्तर में अंग्रेजी



शासन सेना और आदिवासियों के बीच सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष ‘चिन्तलनार’ में हुआ। इस संघर्ष में माड़िया नायक धुर्वाराव और उसके साथियों को बंदी बना लिया। धुर्वाराव को फांसी दे दी गई। इसके बाद धुर्वाराव के मित्र यादोराव ने दोरला लोगों को संगठित कर अंग्रेजों के विरूद्ध संधर्ष शुरू कर दिया। यादोराव को बंदी बनाकर फांसी दे दी गई। उसके बाद बाबूराव और व्यंकटराव ने संघर्ष जारी रखा पर उन्हें भी पकड़कर फांसी दे दी गई।





1857 में फिर-फिर विद्रोह





सन् 1857 में रायपुर के सोनाखान के आदिवासी जमींदार नारायण सिंह ने अद्भुत विद्रोह किया था। उनकी जमींदारी वाले क्षेत्र में सूखा पड़ गया था और नारायण सिंह ने अपनी जनता को भूख से काल कवलित होने से बचाने के लिए एक साहूकार के यहां जमा किया गया धान निकलवा कर बंटवा दिया था। नारायण सिंह ने इसकी सूचना रायपुर में तैनात अंग्रेेज अधिकारियों को दी थी। और उधर साहूकार ने नारायण सिंह के कृत्य को लूट और डकैती बताते हुए अंग्रेज अधिकारियों से शिकायत की। अंग्रेजों नेे सूखे से जनता को बचाने के लिए कोई प्रशासनिक उपाय नहीं किया किन्तु जमाखोर साहूकार की शिकायत के आधार पर आत्मसम्मानी नारायण सिंह को गिरफ्तार कर रायपुर जेल में बंदी बनाकर डाल लिया। नारायण सिंह रायपुर में तैनात अंग्रेेजों की देसी पैदल सेना के सहयोग से जेेल से भागने में सफल हुए और सोनखान पहुंच कर उन्होंने आदिवासी युवकों की सेना तैयार की। अंग्रेेजों ने नारायण सिंह को गिरफ्तार करने के लिए एक बड़ी सेना को सोनाखान भेजी। कड़े संघर्ष के बाद नारायण सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 10 दिसंबर, 1857 को रायपुर में सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गई। नारायण सिंह को स्वतंत्र भारत में ‘वीर’ की उपाधि से सम्मानित कर छत्तीसगढ़ में 1857 का प्रथम शहीद घोषित किया गया हैं।





2. रायपुर में देेसी पैदल सेना का विद्रोह





नारायण सिंह को फांसी देने के विरोध में रायपुर में तैनात अंग्रेजों की देसी पैदल सेना ने 18 जनवरी, 1858 को विद्रोह कर दिया। पैदल सेना के मैगजीन लश्कर हनुमान सिंह ने एक अंग्रेज सार्जेंट मेजर पर हमला कर दिया। इस हमले में सार्जेंट मेजर की मृत्यु हो गई। यह विद्रोह लंबा नहीं चल सका और अंग्रेजों द्वारा की गई एक बड़ी कार्रवाई में पैदल सेना के 17 लोगों को गिरफ्तार कर 22 जनवरी, 1858 को नागरिकों के समक्ष फांसी दे दी गई। छत्तीसगढ़ के उत्तर में रायगढ़ और सरगुजा क्षेत्र में 1857 में भी विद्रोह के स्वर गूंजने लगे। वहां सरगुजा राज्य का राजा अंग्रेजों का भक्त था जबकि पडोस के पलामू और गरौली राज्य के राजा विद्रोही थे। इन विद्रोहियों ने अक्टूबर, 1857 में सरगुजा पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में जनजातियों ने विद्रोहियों का साथ दिया। यह संघर्ष लंबा चला और उसमें अनेकों आदिवासी शहीद हुए। इस विद्रोह में कोरिया और जशपुर के राजवंश की भूमिका संदिग्ध थी। इसी कारण 1857 का यह विद्रोह सफल नहीं हो सका। 1857 में सारंगढ़ क्षेत्र में भी विद्रोह हुआ था। इस विद्रोह के नायक कमल सिंह को पकड़कर 1867 में फांसी दी गई।





उदयपुर का विद्रोह





सरगुजा राजपरिवार की एक शाखा उदयपुर (धरमजयगढ़) में राज्य कर रही थी। यहां 1818 में ब्रिटिश संरक्षण काल में कल्याणसिंह राजा थे। 1852 में यहां के राजा और उनके भाइयों पर मानव हत्या का आरोप लगाकर अंग्रेजों ने उन्हें कैद कर लिया तथा रियासत अपने अधिकार में ले लिया था। 1857 के विद्रोह के समय उदयपुर के राजा अपने दोनो भाइयों के साथ उदयपुर पहुंचे। 1858 में इन्होंने आदिवासी सैनिकों को संगठित कर अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह किया और कुुछ समय के लिए अपना



राज्य स्थापित कर लिया। किन्तु अंग्रेजों ने सरगुजा के राजा की सहायता से दोनों राजकुमार भाइयों को 1859 में गिरफ्तार कर आजन्म काले पानी की सजा देकर अण्डमान भेज दिया गया। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबाने में मदद करने के लिए सरगुजा के राजा के भाई बिन्देश्वरी प्रसाद सिंहदेव को उदयपुर रियासत 1860 में दे दी। इस प्रकार छत्तीसगढ़ के उत्तर क्षेत्र में हुए स्वतंत्रता के इस प्रथम महासमर को दबाने में अंग्रेज सफल हुए।





बस्तर में मुरिया विद्रोह





बस्तर के मुरिया आदिवासियों ने 1876 में विद्रोह किया। इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेेजों की एक बड़ी सेना ओडिसा क्षेत्र से भेजी गई और कोई एक माह की घेरा बंदी के बाद अंग्र्रेजों को सफलता मिली। इसके बाद 1878 में बस्तर की रानी ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष शुरू किया जो 1882 तक चला। इस विद्रोह के फलस्वरूप नारी अस्मिता की रक्षा हुई और अंग्रेज सरकार को रानी के समक्ष झुकना पड़ा।





बस्तर का भुमकाल





बस्तर में ही सन् 1910 में एक जबरदस्त विद्रोह हुआ जिसे आधुनिक इतिहास में ‘‘बस्तर का भुमकाल’’ के नाम से जाना जाता है। बस्तर के मुरिया आदिवासियों ने ब्रिटिश राज्य को नेस्त नाबूत कर ‘‘मुरिया राज’’ की स्थापना के लिए सशस्त क्रांति की जिसकी अगुआई गुंडाधुर ने की थी। यह विद्रोह अत्यंत विस्तृत योजना बनाकर किया गया था जिससे पूरे बस्तर में भूचाल सरीखा आ गया। आदिवासियों ने अंग्रेजों को निशाना बनाया और सरकारी इमारतों पर आक्रमण किया। 1 फरवरी, 1910



को शुरू हुए इस विद्र्रोह की अग्नि तीन माह तक धधकती रही। शुरू में कुछ समय तक पूरे बस्तर में मुरिया राज स्थापित हो गया किन्तु अंग्रेजों की एक बड़ी सेना के विरूद्ध गुंडाधुर की सेना टिक नहीं सकी। इस संघर्ष में सैकड़ों आदिवासी मौत के घाट उतार दिए गए और हजारों को कठोर दण्ड भुगतना पड़ा।





3.ताना भगत आंदोलन





छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्व में 1916 में ताना भगत आंदोलन शुरू किया गया जो 1918 तक चला। यह आंदोलन पहले हिंसक था किन्तु बाद में इस आंदोलन के अनुयायी अहिंसक असहयोग आंदोलन करने लगे और भारत के मुख्यधारा के स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बन गया। स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास केवल घटनाओं का विवरण देना या प्रसंगों की गिनती करना मात्र नहीं है। स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास उसके नायकों का चरित्र विवरण देना भी नहीं है। स्वतंत्रता आंदोलन वास्तव में उन धाराओं और प्रतिरोधी धाराओं का विश्लेषण करना है जिनसे उस समय के क्षुब्ध समाज की संरचना बनी थीं। जनता केे मन और मस्तिष्क में स्वतंत्र होने केे लिए आंतरिक चेतना थी और जिसकी अभिव्यक्ति संघर्ष के रूप में हो रही थी, उस चेतना और उसकी अभिव्यक्ति की पहचान आवश्यक है। यह पहचान करते हुए, इतिहासकारों द्वारा मुख्य केंद्रों से दूर क्षेत्रों और आम लोगों की- विशेषकर आदिवासियों की- स्वतंत्रता की चेतना को प्रायः ध्यान में नहीं लिया गया है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास इस आदिवासी चेतना की स्वीकृति के बिना अधूरा ही है।





(लेखक छत्तीसगढ़ के पूर्व राज्य निर्वाचन आयुक्त हैं)



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