BHOPAL. अब जय वीरू का क्या होगा। जय वीरू यानी कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह। जिनका दोस्ताना वैसे तो बहुत पुराना है, लेकिन पक्की जोड़ी बनकर काम शुरू किया साल 2018 से। जब कांग्रेस ने पंद्रह साल पुरानी बीजेपी सरकार को उखाड़ फेंका। लेकिन दल बदल ने सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। उसके बाद ये जोड़ी 2020 के उपचुनाव में भी कमर कस कर लड़ी और फिर हालिया चुनाव में भी साथ दिखने की पूरी कोशिश करती रही। आलाकमान ने दो मौके दिए, दोनों पर ही ये जोड़ी खरी नहीं उतरी। जिसके बाद इसे मध्यप्रदेश की सत्ता से फिलहाल बेदखल कर दिया गया है। हो सकता है बीजेपी की तर्ज पर ये जोड़ी अब मार्गदर्शक मंडल का हिस्सा बनी नजर आए।
3 नए चेहरों ने कांग्रेस एक पीढ़ी की राजनीति छुट्टी कर दी है
इन दोनों की बेदखली से ज्यादा गौर करने वाली बात ये है कि इनकी जगह कांग्रेस ने जिन चेहरों को अब कमान सौंपी है वो दिग्गी और कमलनाथ के धुर विरोधी रहे हैं। कांग्रेस के नए नवेले अध्यक्ष जीतू पटवारी सत्ता में रहते हुए और सत्ता छूटने के बाद भी मुखर रहे और कमलनाथ के विरोधी भी माने गए। यही हाल उमंग सिंगार का है। जो नेताप्रतिपक्ष बने हैं। जिनके तेवर कम से कम दिग्विजय सिंह के खिलाफ वैसे ही रहे जैसे उनकी बुआ जमुना देवी के रहते थे। उपनेता प्रतिपक्ष के पद पर अब हेमंत कटारे काबिज हुए हैं। इन तीन नए चेहरों के साथ कांग्रेस ने एक पीढ़ी की राजनीति की मध्यप्रदेश से छुट्टी कर दी है। जिसमें कमलनाथ और दिग्विजय सिंह तो शामिल हैं ही जीत चुके अजय सिंह को भी कोई पद नहीं मिला है। जबकि वो पहले नेता प्रतिपक्ष रहे हैं। उनके अलावा अरूण यादव जो पहले कांग्रेस पार्टी की कमान संभाल चुके हैं उनका तजुर्बा भी हाशिए पर है। कांग्रेस का ये फैसला सोचने पर मजबूर करता है कि क्या अब कांग्रेस में भी क्षत्रपों की राजनीति का अंत हो रहा है।
क्या कांग्रेस समझ चुकी है कि अपने खिलाफ एंटीइंकंबेंसी खत्म करनी है तो बीजेपी की तरह ही नए चेहरों को आगे लाना होगा।
जयवर्धन या नकुलनाथ या सचिन यादव को कोई पद न देकर क्या कांग्रेस भी परिवारवाद की छवि से उभरने की कोशिश कर रही है।
जीतू पटवारी और उमंग सिंगार आंदोलन से पीछे नहीं हटे
बीजेपी के बीस साल के शासन के सामने बार बार नाकाम रहने वाली कांग्रेस ने देर से ही पर सख्त फैसला ले ही लिया है। जिसमें ये भी साफ नजर आता है कि इस बार कमलनाथ या दिग्विजय सिंह की बिलकुल नहीं चली। अगर चली होती तो शायद पहली पसंद बेटे होते या फिर सज्जन सिंह वर्मा सरीखे करीबी किसी पद पर काबिज नजर आते। उससे इतर कांग्रेस ने दोनों ही नेताओं के विरोधियों को ये पद सौंप दिए हैं। जीतू पटवारी और उमंग सिंगार उन नेताओं में से एक हैं जो विधानसभा में मुखर रहे हैं तो आंदोलन करने से भी पीछे नहीं हटे। शायद बीजेपी सरकार को घेरने के लिए कांग्रेस को इसी तरह एग्रेशन की जरूरत है।
हेमंत कटारे को इस मामले में खुद को साबित करना है
इस मामले में जीतू पटवारी के आंदोलनजीवी होने पर कोई संदेह नहीं। उमंग सिंगार भी गाहे बगाहे मुखर होते रहे हैं लेकिन जमुना देवी वाला स्पार्क उन्हें दिखाने की जरूरत होगी। हालांकि, हेमंत कटारे को इस मामले में खुद को साबित करना है, लेकिन वो चंबल के प्रतिनिधि तो माने ही जा सकते हैं। इसी बात को और आगे बढ़ाते है। बात करें अंचल की तो कांग्रेस ने इस बार मालवा अंचल को खासी तवज्जो दी है। ये रणनीति सोच समझ कर तैयार की गई नजर आती है। बीजेपी में मालवा, कैलाश विजयवर्गीय का गढ़ रहा है। जो अब एक बार जबरदस्त जीत के साथ विधानसभा में पहुंचने वाले हैं। अब राऊ सीट के जीतू पटवारी अध्यक्ष बनाए गए हैं।
कांग्रेस ने ग्वालियर चंबल की भी कद्र की है
उमंग सिंगार का नाता भी मालवा से ही है। वो धार की गंधवानी सीट से चुनाव जीतते आए हैं। इसके बाद कांग्रेस ने ग्वालियर चंबल की भी कद्र की है। इस अंचल से हेमंत कटारे को मौका मिला है। पहले ये जिम्मा दिग्विजय सिंह के करीबी गोविंद सिंह के पास था। इन चेहरों के साथ नई पीढ़ी को मौका देने और अंचलों का समीकरण साधने के साथ ही कांग्रेस जातीय समीकरण का तालमेल बिठाने की भी पूरी कोशिश में है। जीतू पटवारी OBC समाज से आते हैं, जबकि उमंग सिंघार आदिवासी समाज से हैं, और हेमंत ब्राह्मण समाज से हैं।
जय वीरू की जोड़ी इस नई जोड़ी के लिए मुश्किल बन सकती है
नई पीढ़ी को कांग्रेस ने मौका तो दिया है लेकिन राह आसान नहीं है। कांग्रेस की गुटबाजी अगर हावी होती है तो तजुर्बेकार जय वीरू की जोड़ी इन नई जोड़ी की मुश्किल बन सकती है। जय वीरू के जवाब में अगर करण अर्जुन बनना है तो एक दूसरे का साथ मजबूती से थामना होगा। वैसे दोनों ही युवा हैं, मालवा से ताल्लुक रखते हैं और अरसे से अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे थे। अब इस एग्रेसिव युवा पीढ़ी के हाथ में पूरी तरह से पार्टी की कमान है। खुद को साबित करने का भरपूर मौका है। शायद बीजेपी सरकार के खिलाफ मुद्दे भी जोरशोर से उठा सें, लेकिन उससे पहले हो सकता है पार्टी के भीतर की ही लड़ाई लड़ना पड़े। क्योंकि नए चेहरों को आगे कर खुद कांग्रेस ने अपने क्षत्रपों को उनके सामने खड़ा कर दिया है। कलमेश्वर पटेल और संसदीय जानकारी रखने वाले राम निवास रावत भी फिलहाल खाली हाथ हैं। हारे तो कमनलाथ के करीबी सज्जन सिंह वर्मा भी हैं। क्या जीतू पटवारी की तरह उनका भी कोई रिहेबिलिटेशन होगा। ये भी बड़ा सवाल है। अरूण यादव और अजय सिंह भी किसी लिस्ट का हिस्सा नहीं है।
देखना है इस नई जोड़ी की आवाज कितनी बुलंद होगी
दो हार के बाद कमलनाथ का ग्राफ भी पार्टी में बहुत नीचे जा चुका है। खबर है कि उन्हें भी कोई पद मिलना मुश्किल है। दिग्विजय सिंह फिलहाल शायद राज्यसभा सदस्य बने रहें, लेकिन उसके बाद उन्हें भी कोई बड़ी जिम्मेदारी मिलती नहीं दिखाई दे रही। अब देखना ये है कि जीतू पटवारी जितनी हिम्मत से कमलनाथ के सामने खड़े रहे, अकेले पड़े लेकिन हारे नहीं क्या अब इस पद पर आकर वो उसी एनर्जी के साथ कांग्रेस को जिंदा रख सकेंगे। और, उमंग सिंगार जिनके उसूलों पर आंच आई तो दिग्विजय सिंह की सरेआम मुखालफत करने से नहीं चूके, क्या वो बीजेपी की बीस साल पुरानी सरकार के सामने उतनी बुलंद आवाज में नारे लगा सकेंगे।
जो कार्यकर्ता अब तक सिर्फ दिग्विजय सिंह की आवाज पर एकजुट होते थे क्या जीतू पटवारी उनमें नया जोश भर पाएंगे।
जिस विधानसभा में कांग्रेस के चुनिंदा पुराने विधायक मौजूद होंगे वहां 163 भाजपाइयों के बीच क्या उमंग सिंगार की आवाज सुनाई देगी।
कांग्रेस की इस नई जोड़ी को बहुत कुछ करके दिखाना है
कांग्रेस के नए करण अर्जुन के लिए चुनौतियां बहुत हैं। लड़ाई अपने घर से शुरू करनी है और दूसरे गढ़ में सेंध लगाना है जो जय वीरू की गाढ़ी दोस्ती, पुराना तजुर्बा नहीं कर पाया। वो इस नई जोड़ी को करके दिखाना है। इन्हें परखने के लिए फिलहाल लोकसभा का चुनाव बहुत जल्दबाजी होगा। पर, पांच साल का पूरा वक्त अब इनके हाथ में है। फिर इनकी कामयाबी तय करेगी कि क्या वाकई कांग्रेस क्षत्रपों की और परिवारवाद की राजनीति से उभरने में कामयाब रही है।