गहलोत की गारंटियों और जातिगत जनगणना के वादों का मुकाबला मोदी के हिन्दुत्व और पेपर लीक के मुद्दों से, कल करेगी राजस्थान की जनता वोट

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The Sootr
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गहलोत की गारंटियों और जातिगत जनगणना के वादों का मुकाबला मोदी के हिन्दुत्व और पेपर लीक के मुद्दों से, कल करेगी राजस्थान की जनता वोट

मनीष गोधा JAIPUR. राजस्थान में अगले पांच साल के लिए नई सरकार चुनने का काउंटडाउन शुरू हो गया है और प्रदेश के पांच करोड़ से ज्यादा मतदाता शनिवार को 1875 प्रत्याशियों में से अपनी पसंद के प्रत्याशी चुनने के लिए वोट डालेंगे। राजस्थान में इस बार का चुनाव मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की लोक लुभावन गारंटियों और जातिगत जनगणना जैसे बडे़ वादे तथा प्रधानमंत्री मोदी के हिंदुत्व तथा गहलोत सरकार पर पेपर लीक, भ्रष्टाचार, महिला उत्पनीड़न के आरोपों जैसे मुद्दों पर हो रहा है। ये चुनाव ना सिर्फ राजस्थान में नई सरकार चुनेगा, बल्कि 2024 में होने वाले देश के आम चुनाव की दिशा भी तय करेगा। आइए जानते हैं इस चुनाव में क्या खास होता दिखा।

मोदी बनाम गहलोत

राजस्थान के चुनाव की सबसे बड़ी बात ये है कि यह चुनाव देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के चेहरों के बीच होता दिख रहा है। मोदी और गहलोत दोनों ने ही जनता से अपील की है कि वे स्थानीय प्रत्याशी को भूल जाएं और उन्हें देख कर वोट दें। मोदी ने मतदाताओं से कहा है कि उनका दिया एक वोट सीधे मुझ तक पहुंचेगा, वहीं गहलोत ने कहा है कि सभी 200 सीटों पर वे स्वयं चुनाव लड़ रहे हैं। यानी मतदाताओं से अन्य मुद्दों के साथ ही देश में पिछले साढे़ नौ साल में हुए काम और राजस्थान में पिछले पांच साल के दौरान हुए काम और नए वादों के आधार पर भी वोट मांगे गए हैं।

इस बार सिर्फ वादे नहीं गारंटी

इस चुनाव का बज वर्ड यानी सबसे चर्चित शब्द गारंटी है। कांग्रेस ने देश के विभिन्न राज्यों में हुए चुनावों में इस गारंटी शब्द का जमकर इस्तेमाल किया है और यहां भी यही किया गया है। चुनाव की घोषणा से पहले गहलोत ने महंगाई राहत कैंप लगा कर दस गारंटियां दी और चुनाव घोषित होने के बाद सात गारंटी और दे दी। वहीं इसके जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों से कहा कि उनका नाम और चेहरा काम होने की गारंटी की गारंटी है, यानी जनता ने उन पर भरोसा किया तो जो वादे किए गए हैं, वे हर हाल में पूरे होंगे।

हिंदुत्व बनाम जातिगत जनगणना

कांग्रेस की ओर से दी गई गारंटियों और बीजेपी की ओर से कांग्रेस सरकार पर लगाए गए आरोपों को छोड़ दें तो इस चुनाव में बडे़ मुद्दे साफ तौर पर नजर आए। बीजेपी की ओर से हिन्दुत्व का मुद्दा जोर-शोर से उठाया गया और पार्टी ने अलग-अलग तरह से प्रदेश के बहुसंख्यक हिंदु मतदाताओं को ये संदेश देने की कोशिश की कि उनके हित सिर्फ बीजेपी सरकार में सुरक्षित रह सकते हैं। इसके लिए मुस्लिम नेताओं को टिकट नहीं देने से लेकर प्रमुख हिन्दुत्ववादी चेहरों से धुंआधार प्रचार कराने तक के प्रयोग किए गए। उधर बीजेपी के हिन्दुत्व के जवाब में कांग्रेस जातिगत जनगणना का वादा लेकर आई। पार्टी ने हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर इसे मुद्दा बना रखा है, लेकिन चूंकि राजस्थान में जाति चुनावी राजनीति का अहम हिस्सा है, इसलिए यहां पार्टी ने जातिगत जनगणना का मुद्दा ना सिर्फ चुनाव से पहले उठाया, बल्कि घोषणा पत्र में भी शामिल किया।

पार्टियों के अंदरूनी अंतरविरोध

यह चुनाव दोनों प्रमुख दलों यानी कांग्रेस और बीजेपी के अदंरूनी अंतरविरोधों के लिए भी याद किया जाएगा। सत्तारूढ कांग्रेस में पूरे पांच साल तक सीएम अशोक गहलोत और पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट के बीच वर्चस्व की लड़ाई चली और आखिर में चुनाव को देखते हुए दोनों ने समझौता किया। अपने-अपने लोगों को टिकट भी दिलाए, हालांकि सचिन पायलट ने चुनाव में अपनी भूमिका को सीमित ही रखी और पार्टी पूरा चुनाव गहलोत के कंधों पर ही लड़ती नजर आई। उधर बीजेपी में भी अंतरविरोध कम नहीं थे। पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की पार्टी आलाकमान और प्रदेश नेतृत्व के अन्य नेताओं से खींचतान पूरे पांच साल तक चलती रही। यहां भी चुनाव को देखते हुए नेताओं के बीच सीज फायर हुआ। वसुंधरा राजे प्रचार से कुछ समय पहले तक अनमनी रही, लेकिन प्रचार के दौरान पूरे मनोयोग से जुटीं और 40 से ज्यादा सभाएं कर पूरे प्रदेश में घूमीं।

बागियों का हल्ला

हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी टिकट वितरण से नाराज नेता बागी होकर चुनाव मैदान में है, लेकिन इस बार पहली बार पार्टी कार्यालयों पर तोड़-फोड़ और टायर जलाने जैसी घटनाएं होते दिखीं। बागियों की समस्या से दोनों ही दल परेशान है और करीब 20 सीटें बागियों के कारण प्रभावित होती दिख रही हैं।

दल-बदलुओं का बोलबाला

राजस्थान में चुनाव से पहले दल-बदल का खेल बहुत ज्यादा होता नहीं देखा गया है, लेकिन इस बार यह खेल जबर्दस्त चला और बीजेपी इस मामले में कांग्रेस से आगे रही। पार्टी ने कांग्रेस और अन्य दलों से आए कई प्रमुख नेताओं को अपने यहां ना सिर्फ शामिल किया, बल्कि टिकट भी दिए। इनमें सुभाष महरिया, ज्योति मिर्धा, सुभाष मील, दर्शन गुर्जर और गिर्राज मलिंगा जैसे नाम शामिल हैं। वहीं कांग्रेस मे भी ऐसा होता दिखा। पार्टी ने सरकार का साथ देने वाले निर्दलियों को चुनाव से पहले पार्टी की सदस्यता दिला कर टिकट दिए, वहीं बसपा से आए विधायकों को भी टिकट दिए गए। इनके अलावा भी कई नेता अंतिम समय तक पार्टी में शामिल होते रहे।

प्रचार में सोशल मीडिया का जोर

सोशल मीडिया का प्रभाव अब सभी जानते है और यह बात इस बार के प्रचार में भी नजर आई। प्रत्याशियों ने जनता के बीच जाकर तो वोट मांगे ही, लेकिन आधुनिक संचार साधनों जैसे सोशल मीडिया और वॉयस मैसेजिंग जैसे उपायों का भी भरपूर उपयोग किया। कांग्रेस का प्रचार अभियान एक निजी इवेंट कंपनी के हाथ में रहा, जबकि बीजेपी का प्रचार अभियान केंद्र के स्तर से चला।

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