आज़ादी के अमृत महोत्सव की धूमधाम के साथ इन दिनों राजनीतिक बदलाव, आर्थिक परिवर्तन, सामाजिक सुधारों की चर्चा ही नहीं, गूंज भी है। सत्ता को लेकर उत्साह अथवा प्रतिरोध लोकतंत्र में स्वाभाविक है। कभी पुस्तक लिखी गई थी - नेहरू के बाद कौन? 1993 में मैंने भी एक पुस्तक लिखी थी - राव के बाद कौन। तब तक देश में कांग्रेस पार्टी की छत्र छाया में पनपे नेता ही प्रधान मंत्री होते रहे, तब मैंने अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ अटल बिहारी वाजपेयी पर एक चैप्टर रखा था - वर्तमान दौर में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सामने कोई नेता नहीं दिखाई देता। देश विदेश के सारे सर्वे और दूरदराज के गांव से लेकर महानगर तक उनकी छाप मिलती है। फिर उनसे नाराज या प्रतिपक्ष की ओर से कोई एक नाम बताने की हालत में नहीं है। देश के हर हिस्से से एक क्षेत्रीय दावेदार हैं। ममता बनर्जी राहुल गांधी, शरद पवार, नीतीश कुमार, केसी आर, अरविन्द केजरीवाल तक प्रधान मंत्री बनने का सपना संजोए दिखाई देते हैं।
क्या यही है सत्याग्रह का सही अर्थ
आज़ादी, लोकतंत्र और महात्मा गाँधी के नाम पर आंदोलन, सत्याग्रह किए जा रहे हैं, लेकिन बाकायदा सुरक्षा गार्ड लेकर सड़कों पर हिंसक समर्थकों के साथ प्रदर्शन और पुलिस से टकराव क्या सही अर्थों में सत्याग्रह है ? आज़ादी के आंदोलन में विदेशी ब्रिटिश राज था, अब केंद्र के अलावा राज्यों में विभिन्न दलों, विचारों वाली सरकारें हैं। जन समस्याओं के लिए प्रदर्शन अनुशासित आंदोलन को लोकतान्त्रिक अधिकार कहा जाएगा। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे अन्य लोकतान्त्रिक देशों के प्रदर्शनों में तो ऐसी हिंसा सामान्यतः नहीं दिखाई देती। अपने देश में 75 वर्षों के दौरान लगभग सभी विचारों के लोग सत्ता में रहे, प्रतिपक्ष में रहे और फिर सत्ता में आए, लेकिन आज़ादी और अधिकारों के साथ कर्तव्य, जिम्मेदारियों के लिए कितना ध्यान दिया गया।आजकल कांग्रेस के नेता आज़ादी पर खतरे की बात कर रहे हैं। इसलिए 13 अगस्त 1954 को तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु द्वारा सम्पादकों के एक कार्यक्रम में कही गई महत्वपूर्ण बात का उल्लेख उचित होगा। नेहरू ने कहा मेरा यह दृढ विश्वास है कि अमूर्त स्वतंत्रता जैसी कोई वस्तु नहीं होती। स्वतंत्रता दायित्व से सम्बद्ध है, चाहे वह राष्ट्र की स्वतंत्रता हो या व्यक्ति की स्वतंत्रता या समूह की स्वतंत्रता या प्रेस की स्वतंत्रता। इसलिए जब कभी हम स्वतंत्रता के प्रश्न पर विचार करें, तब हमें कर्तव्य के बारे में भी अनिवार्य रुप से विचार करना चाहिए, जो स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। यदि इससे उत्तरदायित्व और प्रतिबद्धता जुड़ी हुई नहीं है तो स्वतंत्रता भी धीरे धीरे समाप्त हो जाती है।
अजीब है कुछ लोगों का यह मातम
आज़ादी के अमृत महोत्सव के समय प्रतिपक्ष अथवा कुछ लोगों का यह मातम अजीब है कि देश में लोकतंत्र ख़त्म हो गया, देश बर्बादी के कगार पर है, गरीबों के बजाय केवल दो चार उद्योगपतियों, व्यापारियों को अरबों रुपया दे दिया गया। गरीबी, बेरोजगारी की समस्या से कोई सरकार न इंकार कर सकती है और न ही उसके लिए बेबस हो सकती है, लेकिन गरीबी से सड़कों पर पड़े सैकड़ों लोग आपको संपन्न राष्ट्र अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को, न्यूयॉर्क, लास एंजिल्स में भी दिख सकते हैं, आबादी के अनुपात से अमेरिका ब्रिटेन में कोरोना महामारी के दौरान भारत से अधिक संख्या में लोग मारे गए, लंदन में डॉक्टर नर्स की कमी हो गई है। इस बात से अहंकार भले ही न हो, लेकिन यह तो स्वीकारना चाहिए कि दिल्ली और भारत में सरकार और समाज ने मिलकर अन्य देशों से बेहतर लोगों की जान बचाई। अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज किस देश में दिया जा सका महानगर निश्चित रुप से समस्याओं से विचलित होते रहे हैं, लेकिन क्या गांवों और कस्बों के लोग पहले से अधिक सुविधाएं सुख नहीं पा रहे हैं। दिल्ली में खाने की वस्तुएं सत्तर रूपये की होती है, वह गांव कस्बे में पंद्रह बीस रूपये किलो मिलने पर लोग महंगाई की मार से उतने प्रभावित नहीं होते। इसी तरह सरकारी रिकार्ड, जन गणना में नाम, पते के साथ व्यवसाय, नौकरी के कालम भरे जाते हैं, जो लोग डेली या घंटे अथवा इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, कारीगर जैसे किसी तरह के काम के आधार पर दिन भर में औसतन दो हजार और महीने में पचास हजार रूपये कमा लेते हैं। उनका कोई सरकारी रिकार्ड नहीं होता, यही नहीं उन्हें बेरोजगार की संख्या में जोड़ दिया जाता है।
लोगों को भी निभाना होगा उत्तरदायित्व
यदि पिछले वर्षों के दौरान प्रगति नहीं हुई होती तो अनाज का उत्पादन या निर्यात में कई गुना बढ़ोतरी कैसे हो गई? यदि लाखों गरीबों को छोटा मकान बनाने, गैस का कनेक्शन, गरीब को पांच लाख तक के इलाज का बीमा होना क्या गरीबी दूर करने के महत्वपूर्ण कदम नहीं है? ये योजनाएं केवल भाजपा शासित राज्यों तक सीमित नहीं हैं। गैर भाजपा शासित प्रदेशों में लाखों परिवार लाभान्वित हुए और हो रहे हैं। हाल के वर्षों में छोटे शहरों से निकले शिक्षित हजारों युवा अमेरिका, यूरोप अथवा अन्य देशों में नौकरी पाकर गए हैं, क्या यह आज़ादी और प्रगति का लाभ नहीं है? जो लोग भारत के बजाय विदेश में वैधानिक तरीके से पूंजी लगा रहे, वे भी भारत की प्रगति की निशानी ही है। यदि भारत की हालत दयनीय होती तो संपन्न देशों की कंपनियां पूंजी लगाने के लिए आगे कैसे आ सकती थीं? हाँ, अभी बहुत कमियां हैं और आर्थिक विकास के लिए लम्बी दौड़ है, लेकिन इसके लिए क्या केवल सरकारों पर निर्भर रहा जा सकता है? अन्य लोगों को उचित माहौल और अपना उत्तरदायित्व तो निभाना होगा।
स्वतंत्र अभिव्यक्ति का मतलब अराजकता फ़ैलाना नहीं
इसी सप्ताह बिहार में रातों रात सरकार बदलने के बाद तेजस्वी यादव के स्वर कैसे बदले, उप मुख्यमंत्री बनने के बाद टीवी इंटरव्यू में तेजस्वी यादव ने बहुत गुस्से में कहा - जंगल राज आने की बात क्यों कही जा रही है। इस तरह के प्रचार से बिहार में उद्योग धंधे के लिए पूंजी लगाने वाले नहीं आयेंगे। बिहार के लोगों को रोजगार के अवसर नहीं मिलेंगे। उनके तर्क को सही कहा जा सकता है, लेकिन तब यह भी याद दिलाना होगा कि जब वे या राहुल गाँधी देश विदेश में भारत में लोकतंत्र खत्म होने, तानाशाही और भ्रष्टाचार के आरोपों के अभियान चलाते रहेंगे तो क्या देश का नुकसान नहीं हो रहा है? संसद और विधान सभाओं में सामान्य कामकाज, सकारात्मक बहस विचार विमर्श नहीं होकर केवल हंगामा नारेबाजी और धरने होंगे। तो आजादी और लोकतंत्र तथा संविधान के प्रति कर्तव्य से विमुख होना नहीं माना जाएगा। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का मतलब अराजकता फ़ैलाने का अधिकार कैसे समझा जा सकता है, स्वतंत्रता की जयकार के साथ संयम और अनुशासन की कर्तव्यपरायणता का संकल्प भी आवश्यक है।
(लेखक आई टी वी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ और आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं)