हीरा खनन से खफा बुंदेलखंड : हो सकती है एक और चिपको आंदोलन की पुनरावृत्ति

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हीरा खनन से खफा बुंदेलखंड :  हो सकती है एक और चिपको आंदोलन की पुनरावृत्ति

घनश्याम सक्सेना।‘धरती उगल रही तहं- तहं हीरा मोती, जहां-जहां दौड़ गओ घोड़ा छत्रसाल का।‘ बुंदेलखंड में कहावत है कि छत्रसाल (1649-1731) के गुरु स्वामी प्राणनाथ ने उन्हें आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारा घोड़ा जहां-जहां से दौड़ेगा, वहां-वहां हीरे-मोती की खदानें हो जाएंगी। सचमुच बुंदेलखंड क्षेत्र नैसर्गिक संपदा के मामले में बहुत संपन्न है लेकिन नियति का व्यंग देखिए कि प्राकृतिक रूप से संपन्न क्षेत्रों के निवासी सामान्यत: विपन्न है फिर चाहे वह छत्तीसगढ़ हो या झारखंड। और जब भी वहां विकास का खाका खींचा जाता है तो इकोनामी बनाम इकोलॉजी का विवाद चालू होने लगता है। हमारे देश में ऐसे बहुत से मॉडल है जैसे की नदीघाटी योजनाओं में बिजली या सिंचाई अथवा खनिज उद्योग क्योंकि दोनों में वनों को गंभीर क्षति पहुंचती है। एक में जंगल डूब जाते हैं जबकि दूसरे में लाखों पेड़ काटने पड़ते हैं।

364 एकड़ जंगल और 2 लाख पेड़ प्रभावित होंगे

ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश में छतरपुर जिले के बक्सवाहा क्षेत्र का है। अभी तक पड़ोसी जिला पन्ना ही हीरे के लिए विश्वविख्यात था। लेकिन वहां छोटी-छोटी खदाने लीज़ पर देने की व्यवस्था है अब उसके पड़ोस में छतरपुर के बक्सवाहा इलाके में हीरे के विशाल भंडार होने का अनुमान है। कहते हैं कि यहां लगभग 3.4 करोड़ कैरेट हीरा धरती के गर्भ में है। वैदिक ऋषि ने धरती को हिरण्यगर्भा कुछ सोच-समझ कर ही कहा होगा।बक्सवाहा क्षेत्र में लगभग 3000 एकड़ वन क्षेत्र में से 364 एकड़ वन क्षेत्र खनन से प्रभावित होगा और अनुमानतः वहां 2 लाख वृक्षों की हजामत बनेगी। इस इलाके को बंदर डायमंड ब्लॉक के नाम से चिन्हित किया गया है। यद्यपि यह दावा किया जा रहा है कि यह योजना प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 400 लोगों को जीविकोपार्जन में सहायक होगी किंतु फिर भी स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे हैं। मामला अदालत में भी पहुंच गया है। हालांकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने बक्सवाहा हीरा खदान के मामले में लगी दो याचिकाओं की सुनवाई के बाद हाल ही में वन विभाग की अनुमति के बिना एक भी पेड़ नहीं काटने का निर्देश दिया है। यदि यह योजना स्थानीय लोगों को रास नहीं आ रही है तो उसका मुख्य कारण यह है कि निर्वनीकरण करते समय हमारी सरकारें या भूल जाती है कि समीपवर्ती रहवासी इसी वृक्ष परिवार के अभिन्न अंग हैं। वृक्ष काटने से इनका जीवन भी एक कटी पतंग जैसा हो जाता है इस इलाके की ग्रामीण जनता के बारे में तो वैसे भी यह कहा जाता है, "सुख मेरी तमन्ना है दुख मेरा मुकद्दर है।"

रियो टिंटो को बांधना पड़ा था बोरिया बिस्तर

बताते चलें कि इस योजना का इतिहास प्रारंभ से ही विवादास्पद रहा है। करीब 8 साल पहले ऑस्ट्रेलिया की एक कंपनी रियो टिंटो ने इसमें रुचि ली थी किंतु उस समय भी पेड़ कटने का बहुत विरोध हुआ। अंततः रियो टिंटो को लेकर झगड़ा इतना बढ़ा कि कंपनी अपना बोरिया बिस्तर बांध कर चली गई हालांकि कंपनी का ऑफिशियल कथन यह था कि यहां का काम बंद करने से हमें विश्व में कुछ अधिक उत्पादक क्षेत्रों में ज्यादा ध्यान देने का मौका मिलेगा। वर्तमान में इस क्षेत्र में हीरा खनन के लिए राष्ट्रीय खनिज विकास निगम ने भी बोली लगाई थी।आश्चर्य तो यह है कि वर्तमान व्यवस्था के चहेते अडानी ग्रुप को भी यह प्रोजेक्ट नहीं मिला। अब 2500 करोड़ की इस परियोजना पर आदित्य बिड़ला समूह की एस्सेल माइनिंग इंडस्ट्रीज अपनी किस्मत आजमा रही है।

इकोलॉजी और इकोनॉमी में संतुलन असल चुनौती !

इस प्रोजेक्ट के विरोध के मुख्य कारण है भूमि और जल संरक्षण विषयक चिंता के अतिरिक्त वनाधारित परंपरागत जीविका अवधारणा। यहां की 46 वृक्ष प्रजातियों में प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है सागोन जो बहुमूल्य इमारती लकड़ी है। तेंदू जिस का पत्ता बीड़ी बनाने में काम आता है और जिससे गर्मियों के महीने में स्थानीय लोग काफी कमा लेते हैं। महुआ जो खाने के अलावा शराब बनाने के काम आता है और बेल जिसका औषधीय महत्व और उपयोग है। जलाभाव से पीड़ित इलाके के लोगों को भ्रम है कि जल संरक्षण के मुख्यत: स्रोत वनों के कट जाने से यहां पानी की मुश्किलों में इजाफा हो जाएगा। अब देखना यह है कि यहां पर्यावरण और औद्योगिकीकरण के बीच ऐसा तालमेल कैसे बैठाया जाएगा जिससे इकोलॉजी और इकोनॉमी के बीच संतुलन बना रहे। फिलहाल तो ऐसा लगता है कि यदि वर्तमान हालात ही बने रहे तो फिर इस इलाके में एक और चिपको आंदोलन की पुनरावृति हो सकती है।(लेखक वरिष्ठ रचनाकार और मध्यप्रदेश में वन विभाग के मुख्य वन संरक्षक रहे हैं।)

इकोनॉमी बनाम इकोलॉजी