हिन्दू की केन्द्रीभूत चेतना है हिन्दुत्व, आस्था और संवाद की समग्रता का भाव ही हिन्दुत्व

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हिन्दू की केन्द्रीभूत चेतना है हिन्दुत्व, आस्था और संवाद की समग्रता का भाव ही हिन्दुत्व

रमेश शर्मा। पिछले कुछ दिनों से देश में दो शब्द चर्चा का विषय बने हुए हैं। यह चर्चा या बहस भाषा विज्ञानियों के बीच नहीं हो रही, अपितु राजनीतिकों और मीडिया में हो रही है। ये दो शब्द हैं हिन्दू और हिन्दुत्व। इसमें अभी— अभी एक तीसरा शब्द और जुड़ गया वह है हिन्दुत्ववाद। कुछ वक्तव्य तो ऐसे भी आए जिनमें यह प्रतिध्वनि हो रही थी कि मानो हिन्दू और हिन्दुत्व एक— दूसरे के प्रतिद्वंदी हों...

दोनों शब्दों में इंच मात्र का अंतर नहीं

यह चर्चा, यह बहस पूरी तरह निरर्थक है। इन दोनों शब्दों को लेकर चर्चा का कोई औचित्य नहीं है। इसका कारण यह है कि ये दोनों शब्द परस्पर प्रतिद्वंदी नहीं अपितु एक— दूसरे के पूरक ही हैं। एक का अस्तित्व दूसरे के बिना संभव ही नहीं। "हिन्दू" से जहाँ एक विशिष्ट शैली से जीवन यापन करने वाले व्यक्ति का परिचय मिलता है तो "हिन्दुत्व" उस व्यक्ति के भीतर संचालित उस विशिष्ट शैली के परिचय का संबोधन है, जिसके अनुरूप वह व्यक्ति जी रहा है। "हिन्दुत्व" तो हिन्दू की केन्द्रीभूत चेतना है, "हिन्दू" की आंतरिक प्राण शक्ति है "हिन्दुत्व"। जिस प्रकार शरीर की केन्द्रीभूत चेतना आत्मा से होती है। आत्मा के बिना शरीर निश्चेष्ट निष्प्राण होता है। उसका कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता, उसी प्रकार हिन्दुत्व की चेतना से ओत प्रोत जो व्यक्ति हमें दिखता है उसे ही हिन्दू कहा जाएगा। जैसे मुसलमान की जीवन शैली मुसलमानियत और ईसाई की जीवनशैली ईसाईयत है उसी प्रकार हिन्दू की जीवन शैली हिन्दुत्व है। इसे समझने के लिये हम हिन्दी शब्द कोष के कुछ शब्दों को समझें। जैसे "भारत" और "भारतत्व", "पुरुष" और "पुरुषत्व" "राम" और "रामत्व" "शिव" और "शिवत्व" "व्यक्ति और व्यक्तित्व" । भला व्यक्तित्व के बिना व्यक्ति का वर्णन संभव है? या पुरुषत्व के बिना पुरुष संभव है? जिस प्रकार पुरुषत्व से पुरुष की और व्यक्तित्व के वर्णन से व्यक्ति की पहचान होती है वर्णन होता है, उसी प्रकार "हिन्दू" की विशेषताओं का नाम "हिन्दुत्व" है। हिन्दी शब्द कोष में ऐसे सहस्रों शब्द हैं जो इसी प्रकार एक— दूसरे के पूरक हैं। 

अज्ञानता से मुक्त हो वह हिन्दू, जो हिंसा से दूर हो वह हिन्दू

हिन्दू शब्द कहीं बाहर से नहीं आया और न सिन्धु शब्द से अपभ्रंश होकर प्रचलन में आया। यदि अरब निवासियों को को "स" के उच्चारण में कठिनाई होती तो उनके शब्द कोष में सलाम की जगह हलाम और सबीना की जगह हबीना होता और उनके नाम सलीम न होते। तब तो "सिन्धु" नदी नाम "हिन्दु" नदी होना चाहिए था जो नहीं है। या वे लोग "सिकन्दर" को "हिकन्दर" बोलते या सिन्ध प्रांत को हिन्द प्रांत बोला जाता जो कि नहीं बोला गया। विदेशी यात्री ह्वेनसांग चीन से हो या फारसी विद्वान अलबरूनी किसी ने भी "स" के स्थान पर "ह" नहीं लिखा। लेकिन एक समय ठीक इसी तरह यह बहस खड़ी की गई थी। अब उस चर्चा पर विराम लगा तो इन दिनों हिन्दुत्व और हिन्दू शब्दों को उछाला जा रहा है। ये दोनों शब्द के मूल में  संस्कृत की "अन्" धातु है। इस धातु का आशय अनंत और अस्तित्व है। इसी अन् से अनंत और सनातन शब्द बने और इसी से ये दोनों शब्द बने हैं। इसमें उपसर्ग के रूप में "ह" जुड़ा इससे "इकार" से ह को समृद्ध किया गया जो शक्ति की प्रतीक है। और प्रत्यय के रूप में "द" जुड़ा द को ऊकार से युक्त किया तब शब्द बना हिन्दू। अर्थात् ऐसा अस्तित्त्व जो सृष्टि को सशक्त बनाने के लिए सक्रिय हो और उसे सक्रियता के लिये प्रेरित करने वाली केन्द्रीभूत चेतना हिन्दुत्व है। भारत में कोई भी शब्द यूं ही नहीं बना। वह स्वर की साधना के शोध पर आधारित होता है। स्वर का विज्ञान है। उसी आधार पर संस्कृत में शब्द बनते हैं। भारत का कोई ऐसा प्राचीन ग्रंथ नहीं, जिसमें हिन्दू शब्द न मिलता हो ऋग्वेद के बृहस्पति अग्यम् में तो स्पष्ट परिभाषा है। "जो अज्ञानता और दीनता से मुक्त होगा वह हिन्दू, जो हिंसा से दूर हो वह हिन्दू। अज्ञानता से दूर रहना अर्थात समस्त प्रकार के ज्ञान से युक्त होना, दीनता से मुक्त होना अर्थात मानसिक, शारीरिक आर्थिक सब प्रकार की दीनता से मुक्त होना । तभी तो भारत विश्वगुरु और सोने की चिड़िया माना गया इसीलिये वह विदेशी विद्वानों और लूटेरों दोंनो के आकर्षण का केन्द्र था। भारतीय वाड्मय में बीस प्रकार की हिंसा का उल्लेख आता है। किसी शस्त्र से किसी की देह पर प्रहार तो एक प्रकार की हिंसा है । इसके किसी की प्रसन्नता की हिंसा, भाव की हिंसा, आर्थिक क्षति पहुंचाना, किसी का अनावश्यक समय नष्ट करना भी हिंसा की परिभाषा में आता है । जो इन सबसे से ऊपर हो जो किसी की भावना को ठेस नहीं पहुंचाता, जो किसी निर्दोष पर प्रहार नहीं करता, जो किसी को आर्थिक हानि नहीं पहुंचाता और जो ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण है उसे हिन्दू कहा गया। और इस प्रकार की जीवनशैली को हिन्दुत्व कहते हैं। यदि श्रेष्ठता का जीवन जीने वाले को हिन्दू कहेंगे तो व्यक्ति को इस श्रेष्ठता से युक्त करने वाली जीवनशैली को हिन्दुत्व। शब्द हिन्दू और हिन्दुत्व ठीक उसी प्रकार एक दूसरे के पूरक हैं जैसे आर्य और आर्यत्व। हिन्दू आर्य का और हिन्दुत्व ही आर्यत्व का पर्याय है। पर यह खेद का विषय है कि स्वतंत्रता के 73 वर्ष बाद भी शब्दों को बहाना बना कर हिन्दू समाज में भेद डालने का प्रयास किया जा रहा है, हिन्दुओं के दो खेमें बनाये जा रहे हैं। किसी को हिन्दू बताकर और किसी को हिन्दुत्ववादी बता कर। बाँटो और राज्य करो का नारा लगाने वाले अंग्रेज भले चले गये पर वे कुछ ऐसे बीज बो गये जो बाँटो और राज्य करो की नीति पर आज भी अनुसरण कर रहे हैं। 

हिंदुत्व में वाद नहीं दर्शन प्रमुख

आश्चर्य इस बात पर भी है कि इस तरह के विभाजन की बातें अन्य पंथों के बारे में नहीं होती। विवादास्पद चर्चा केवल हिन्दू समाज को लेकर ही की जाती है। कभी रंग पर हमले होंगे कभी हिन्दुत्व और हिन्दू की बहस खड़ी होगी। अब इसमें एक तीसरा शब्द भी जोड़ा जा रहा है हिन्दुत्ववाद। हिन्दुत्व में "वाद" नहीं होता। हिन्दुत्व तो दर्शन होता है। "वाद" यदि होगा तो इसका "प्रतिवाद" भी होगा और इससे "विवाद" भी। हिन्दू तो व्यापक है सबको साथ लेने वाला, संपूर्ण वसुन्धरा के निवासियों को एक कुटुम्ब मानने वाला, जड़ चेतन, पेड़ पौधे पशु पक्षी सबसे अपने संबंध जोड़ने वाला। इसीलिए इसे वाद नहीं दर्शन कहा गया। हिन्दुत्व सभी विवादों से परे है। यह संवाद का दर्शन है। सर्व संबंध का दर्शन है। कोई ईश्वर को माने तो भी हिन्दू, न माने तो भी हिन्दू, पेड़ को पूजें, मूर्ति को पूजे, साकार को पूजे निराकार को पूजें सब हिन्दू। एक देव मानें अनेक देव मानें तो भी हिन्दुत्व पर कोई अंतर नहीं। जो मन हो उसे आस्था का केन्द्र बना ले। हिन्दू होने में कोई बाधा नहीं। कोई विवाद नहीं। हर स्थिति में संवाद है। और आस्था संवाद की इस समग्रता के भाव को ही हिन्दुत्व कहा गया। इसमें कहाँ भेद है। कैसे यह अलग होगा हिन्दू से हिन्दुत्व। यह अलग हो ही नहीं सकता। लेकिन जो अलग करने का कुचक्र कर रहे हैं उनका न्याय समय करेगा और शीघ्र करेगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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