गुप्त वंश के एक राजा ने शौर्य से दी मौर्यों को टक्कर, कोई युद्ध नहीं हारा, संगीत में भी महारथी था

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भारत में मौर्य काल के पतन के बाद, कई राज्यों का उदय और पतन हुआ। शासकों ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन कोई मौर्यों के आस-पास नहीं पहुंच सका। लेकिन, चौथी से छठी सदी के बीच गुप्त राजवंश ने भौगोलिक विस्तार और शासन की पूर्णता में मौर्यों के मुकाबले काफी सफलता हासिल की थी। गुप्त राजवंश का उदय कैसे हुआ, इसको लेकर इतिहासकारों में कई मत हैं। इतिहासकार मानते हैं कि यह शायद एक धनी भू-स्वामियों का परिवार था, जिसका मगध में धीरे-धीरे प्रभाव बढ़ गया और 319-20 ईसवी में चंद्रगुप्त प्रथम ने गुप्त वंश की नींव रख दी। उन्होंने अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए शक्तिशाली लिच्छवी राजवंश की कुमारदेवी से शादी की थी। 

चंद्रगुप्त प्रथम और कुमारदेवी ने एक बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम था – समुद्रगुप्त। समुद्रगुप्त की बुद्धि काफी तेज थी और उनमें राजा के सभी गुण थे। चंद्रगुप्त प्रथम ने 335 ईसवी में उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, लेकिन उनका यह फैसला उनके भाइयों को स्वीकार नहीं था। नतीजन समुद्रगुप्त के भाइयों ने उनके खिलाफ युद्ध छेड़ दिया, लेकिन समुद्रगुप्त ने उन्हें हरा दिया।

सत्ता संभालने के बाद समुद्रगुप्त ने एक ऐसे साम्राज्य की कल्पना की, जिसका पूरा नियंत्रण गुप्त वंश की राजधानी पाटलिपुत्र में हो और यहीं से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की बागडोर संभाली जा सके। इस तरह समुद्रगुप्त, मौर्यों के इरादों को फिर से दोहरा रहे थे।

समुद्रगुप्त ने उत्तर में हिमालय तक सभी राजाओं को जीतने के साथ ही, दक्षिण-पूर्व के शासकों को अपने राज्य में शामिल होने के लिए मजबूर किया। माना जाता है कि उनकी सेना कांचीपुरम तक प्रभावी थी। उन्होंने आर्यावर्त में अपने नौ विरोधियों को बुरी तरह से कुचल दिया और मध्य भारत से लेकर पूरे दक्खन के कबीले के सरदारों को कर देने के लिए मजबूर किया। उनका यही रवैया पूर्व में रहा और पश्चिम के भी नौ राज्यों को गुप्त वंश में मिला लिया। समुद्रगुप्त ने कुषाणों, शकों और श्रीलंका के राजाओं को भी कर देने के लिए विवश किया। माना जाता है कि उनका प्रभाव मालदीव और अंडमान में भी था। 

समुद्रगुप्त ने 375 ईसवी तक शासन किया। अपने शासनकाल में उन्होंने जितने युद्ध लड़े, वे कोई भी नहीं हारे। उन्हें संगीत से काफी लगाव था और उन्हें कई सिक्कों में वीणा वादन करते हुए दिखाया गया है। उन्होंने सोने के कई प्रकार के सिक्के चलाए। संस्कृत कवि और प्रयाग प्रशस्ति के लेखक हरिषेण उन्हीं के दरबार में थे। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त का ही वर्णन है। 

समुद्रगुप्त ने धर्म, साहित्य और कला को भी खूब बढ़ावा दिया और सभी धर्मों और जातियों के साथ एकता बना कर रखी। माना जाता है श्रीलंका के राजा मेघवर्मन ने उनसे बोधगया में एक बौद्ध विहार बनाने की अनुमति मांगी थी और उन्होंने इसकी अनुमति दे दी थी। समुद्रगुप्त ने अपने सैन्य अभियानों के जरिए, आने-जाने की सुविधा को सरल बनाया। लोगों का जीवनस्तर काफी ऊंचा था। समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक किया। उन्होंने छोटे-बड़े राज्यों को जीतकर अखंड भारत की स्थापना की। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। बस, यही थी आज की कहानी...