हजार हाथों वाले राजा से भी नहीं रुकीं नर्मदा
राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन ने मां नर्मदा के प्रवाह को अपने हजार हाथों से रोकने का प्रयत्न किया था। परिणामस्वरूप मां नर्मदा की हजार धाराएं उत्पन्न हुईं और जलप्रपात के रूप में बिखर गईं। तभी से इस स्थान को सहस्त्रधारा कहा जाने लगा।
एक कथा ये भी मिलती है कि एक बार रावण सहस्त्रबाहु अर्जुन को जीतने की इच्छा से उनके नगर गया। मां नर्मदा की जलधारा देखकर रावण ने वहां भगवान शिव का पूजन करने का विचार किया। जिस स्थान पर रावण पूजा कर रहा था, वहां से थोड़ी दूर सहस्त्रबाहु अर्जुन अपनी पत्नियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे। सहस्त्रबाहु अर्जुन ने खेल-खेल में अपनी हजार भुजाओं से नर्मदा का प्रवाह रोक दिया। जब रावण ने ये देखा तो उसने अपने सैनिकों को इसका कारण जानने के लिए भेजा। सैनिकों ने वापस आकर रावण को पूरी बात बता दी। रावण ने सहस्त्रबाहु अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा। मां नर्मदा के तट पर ही रावण और सहस्त्रबाहु अर्जुन में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में सहस्त्रबाहु ने रावण को बंदी बना लिया। जब यह बात रावण के दादा यानी पुलस्त्य मुनि को पता चली तो उन्होंने सहस्त्रबाहु अर्जुन से रावण को छोड़ने के लिए निवेदन किया। सहस्त्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया और मित्रता कर ली।
एक बार सहस्त्रबाहु अर्जुन माहिष्मती के मार्ग से जा रहे थे, तभी भगवान विष्णु के अवतार माने जाने वाले परशुराम युद्ध की मंशा से उनके पास आ गए। सहस्त्रबाहु ने देखा कि परशुराम उनसे युद्ध करने आ रहे हैं तो उनका सामना करने के लिए अपनी सेनाएं खड़ी कर दीं। परशुराम ने अकेले ही सहस्त्रबाहु की पूरी सेना का सफाया कर दिया। अंत में स्वयं सहस्त्रबाहु परशुराम से युद्ध करने के लिए आया। परशुराम ने उसकी हजार भुजाओं को अपने फरसे से काटकर सहस्त्रबाहु अर्जुन का वध कर दिया। इस घटना का प्रतिशोध लेने के लिए सहस्त्रबाहु अर्जुन के पुत्रों ने बाद में ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया। अपने पिता की हत्या से क्रोधित होकर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर दिया था।
राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन माहिष्मती के राजा थे। मध्य प्रदेश में दो माहिष्मती हैं। एक महेश्वर को माहिष्मती कहते हैं। मंडला को भी माहिष्मती कहते हैं। खास बात ये है कि दोनों ही माहिष्मती नर्मदा के तट पर हैं। मंडला माहिष्मती को नर्मदा ने तीन ओर से घेरा हुआ है। वैसे तो नर्मदा का उद्गम अमरकंटक से है। नर्मदा उत्पत्ति की एक कथा ये भी है- समुद्र मंथन से निकले विष को भगवान शंकर ने गले में धारण किया और नीलकंठ कहलाए। ये विष पीने से शिव को गले मे भयंकर जलन होने लगी। वो व्याकुल होकर ठंडक की प्राप्ति के लिए हिमालय की तरफ चल पड़े। भगवान शिव जब मैकल के जंगल के ऊपर से गुजर रहे थे, तो उन्हें यहां शांति का आभास हुआ और वो यहीं उतरकर मैकल शृंखला में तप करने बैठ गए। इसी समय भगवान शंकर के शरीर से बहे पसीने से बालिका का जन्म हुआ, जो नर्मदा कहलाईं। नर्मदा को भगवान शंकर का हाल जानने आए सभी देवी देवताओं ने आशीर्वाद दिया। गंगा ने भी नर्मदा को आशीर्वाद दिया कि मुझमें स्नान करने से पाप धुलते हैं, लेकिन नर्मदा के दर्शन मात्र से सभी पापों का नाश होगा। भगवान भोलेनाथ ने कहा कि नर्मदा में मिलने वाले हर एक कंकड़ में उनका अंश होगा यानी हर एक पत्थर शंकर कहलायेगा। नर्मदा का हर कंकड़ नर्मेश्वर कहलाता है।