Raipur।जैसे कि कयास थे, जिस तरह की चर्चा थी,उसी के अनुरूप बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व ने निर्णय सार्वजनिक किया है। विधानसभा के तीन बचे सत्रों में नेता प्रतिपक्ष के रुप में नारायण चंदेल भूमिका निभाएँगे। इस पद पर इसके पहले धरमलाल कौशिक थे।नारायण चंदेल के नाम का प्रस्ताव धरमलाल कौशिक ने रखा और समर्थन वरिष्ठ आदिवासी नेता और विधायक ननकी राम कंवर और अजा वर्ग के वरिष्ठ नेता और विधायक पुन्नूलाल मोहले ने किया।
चेहरा बदला पर क्यों ?
बीजेपी ने प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए अरुण साव पर भरोसा जताया और आदिवासी वर्ग से आते विष्णु देव साय को छुट्टी दे दी, और इसके ठीक बाद यह खबरें तैरने लगीं कि अब नेता प्रतिपक्ष का चेहरा भी बदला जाएगा। और पखवाड़े भर के भीतर नेता प्रतिपक्ष का चेहरा भी पार्टी ने बदल दिया। अब नेता प्रतिपक्ष नारायण चंदेल है जो पिछड़ा वर्ग के कुर्मी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव भी पिछड़ा वर्ग के साहू समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं।एक विशेषता और यह है कि प्रदेशाध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष दोनों ही बिलासपुर संभाग से आते हैं। पर आख़िरकार दोनों ही पदों पर पिछड़ा वर्ग का चेहरा सुनिश्चित क्यों किया गया, और जबकि महज़ तीन सत्रों की विधानसभा बची है तो नारायण चंदेल को ही चुना गया, तो इसके जवाब के लिए थोड़ा सा पीछे जाना होगा। साहू समाज बीजेपी का वोट बैंक माना जाता है, लेकिन बीते विधानसभा चुनाव में इस वर्ग के मत उस अंदाज में हासिल नहीं हुए जिस अंदाज में आने थे।चुनाव सामने हैं और केंद्रीय नेतृत्व ने अपने स्तर पर टोह लेनी शुरु की और पहला निर्णय प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव के रुप में आया। साहू के मुक़ाबले संख्या में कम लेकिन प्रभावी कुर्मी समाज के चेहरे के रुप में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक मौजूद थे, लेकिन एक डॉ रमन सिंह को छोड़कर दूसरा कोई विधायक उनके समर्थन में था भी तो तीसरे तक आँकड़ा नहीं पहुँच रहा था। यह छुपा नहीं था कि बीजेपी के बारह विधायकों के मानस का मेल कौशिक के साथ नहीं रहा, जिनके मानस का नेतृत्व तीन विधायक हमेशा करते दिखे।शिकायतें भले प्रायोजित तरीक़े से पहुँची लेकिन इस रुप में भी पहुँची कि, कौशिक के सत्ता में बेहद प्रभावी विश्वसनीय संबंध है। इस प्रायोजित शिकायत ने क्या असर किया या कि नही किया ,लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने यहाँ भी बदलाव किया, और पिछड़े वर्ग के कुर्मी समाज के प्रतिनिधि के रुप में नारायण चंदेल नेता प्रतिपक्ष बन गए। लेकिन यह नाम नारायण चंदेल ही क्यों हुआ, अजय चंद्राकर या कि शिवरतन शर्मा के रुप में नाम सामने क्यों नहीं आया तो इसके लिए उस चर्चा का ज़िक्र जरुरी है जो बीजेपी के भीतरखाने विश्वसनीय तरीक़े से मौजूद है।वह यह चर्चा है कि, बदलाव करना केंद्रीय नेतृत्व ने तय कर लिया लेकिन किसे लाएँ इस पर डॉ रमन सिंह की सलाह को अहमियत दी गई, और इसलिए अजय चंद्राकर या कि शिवरतन पर विचार तो हुआ लेकिन नाम नारायण चंदेल का तय हुआ।
सीटों का समीकरण क्या है
छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा सीटें हैं। जिनमें से 29 सीटें अनुसूचित जनजाति याने आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं।दस सीटें अनुसूचित जाति (SC)के लिए आरक्षित हैं। शेष 51 सीटें सामान्य है। लेकिन इन सामान्य सीटों में क़रीब तीस से उपर सीटों पर पिछड़ा वर्ग तब निर्णायक माना जाता है, जबकि सामान्य वर्ग भी उसी दिशा में वोट कर दे।वहीं आँकलन यह भी संकेत देता है कि,SC वर्ग अपने लिए आरक्षित दस सीटों के अतिरिक्त क़रीब नौ अन्य सीटों पर भी जीत हार में अहम भूमिका निभाता है। राज्य बनने के बाद 2003,2008 और 2013 तक बीजेपी को अजा और अजजा वर्ग की सीटों पर ज़बर्दस्त समर्थन मिला।2013 में तो अजा सीटों से कांग्रेस केवल एक सीट पर क़ाबिज़ रही बाक़ी सब पर बीजेपी ने क़ब्ज़ा जमा लिया।2018 में सारा जातीय गोस्वारा फेल हुआ और कांग्रेस को 68 सीटें हासिल हुईं। इसके पीछे बीजेपी के पंद्रह साल के वही पुराने चेहरे से नाराज़गी,बीजेपी के नेताओं का अहं ब्रम्हास्मी भाव,कांग्रेस का क़र्ज़ा माफ़ी समेत कई लुभावने ऑफ़र से लबरेज़ घोषणा पत्र और बतौर पीसीसी चीफ़ भूपेश बघेल के आक्रामक तेवर कारण थे।
जाति आधारित राजनीति को समर्थन नहीं
लेकिन कुछ ही महीनों के बाद हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 9 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की। छत्तीसगढ़ में कई बार यह लगता है या कि समय समय पर नेताओं ने यह कोशिश की है कि,जाति आधारित राजनीति के क्षत्रप बनें, यह कोशिश अजीत जोगी ने भी की और मौजूदा समय में यह कोशिश सीएम बघेल कर रहे हैं।लेकिन अगर चुनावी नतीजों को क़रीब से देखें तो स्पष्ट होता है कि, जाति आधारित गौरव गान नतीजों पर उतना असर कभी नहीं करता जैसा कि बिहार में दिखता है। कांग्रेस के भीतर भी जाति का तराजू किसी एक ओर सीधे तौर पर झूका नहीं दिखता,पीसीसी चीफ मोहन मरकाम आदिवासी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं,मंत्रिमंडल में ब्राम्हण वर्ग की उपस्थिति है,मुख्यमंत्री पद पिछडा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते भूपेश बघेल के पास है। इसमें कोई दो मत नहीं कि,सीएम बघेल को लेकर उनके समर्थक पिछडा वर्ग का प्रभावशाली नेता प्रचारित करने की हर संभव कोशिश करते हैं। लेकिन जाहिर तौर पर संतुलन तो है।
बीजेपी को नफा या नुकसान
जहां तक बीजेपी का मसला है तो दोनों पदाें पर पिछड़ा वर्ग का चेहरा और विश्व आदिवासी दिवस के दिन आदिवासी वर्ग से आते विष्णु देव साय को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाना, किसी सामान्य वर्ग के चेहरे से इन पदों पर दूरी रखना छत्तीसगढ़ में मनोवांछित सफलता दिला देगा, इस पर शर्तिया भरोसा करना ग़लत साबित हो सकता है। वैसे भी जाति आधारित,व्यक्ति केंद्रित राजनीति के खिलाफ ही बीजेपी का गठन हुआ था।बीजेपी के संविधान और नियम पुस्तिका की धारा दो में स्पष्ट लिखा है
“पार्टी का लक्ष्य ऐसे लोकतंत्रीय राज्य की स्थापना करना है,जिसमें जाति संप्रदाय अथवा लिंग का भेदभाव किए बिना, सभी नागरिकों को राजनैतिक आर्थिक सामाजिक न्याय,समान अवसर,तथा धार्मिक विश्वास एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो सके”
लेकिन मोदी शाह के दौर में बीजेपी बहुत कुछ वह करते दिखती है जो उसके पार्टी विथ डिफ्रेंस की पहचान को नया स्वरूप देता है। शायद जातिगत गोस्वारे पर चुनावी बिसात सजाना भी बीजेपी का एक प्रयाेग हो जिसकी प्रयाेगशाला छत्तीसगढ हो।पर इस बिसात में सामान्य वर्ग को या कि आदिवासी या कि अनुसूचित जाति वर्ग के लिए कौन सी भूमिका है यह अब तक स्पष्ट नही है, जो सही तो नही ही कही जा सकती।