Raipur। आपातकाल के दौर को जिसे भारत के लोकतंत्र के चिरंतन अध्याय का काला पृष्ठ कहा जाता है, उस यंत्रणा को जिन्होंने भोगा, जिन्होंने भुगता उनमें आयु धर्म जाति का कोई भेद नहीं था, इनमें सिर्फ़ एक समानता थी ये लोग निरंकुश और भ्रष्ट सत्ता और उसके पोषित तंत्र के विरोधी थे।उस दौर की कड़वी तीखी स्मृति आज भी कई परिवारों के मानस पटल पर अंकित हैं और स्थाई रुप से अंकित हैं।आज़ाद भारत में लोकतंत्र को बचाने और पुनर्स्थापित करने की यह लड़ाई में कईयों ने बहुत कुछ या सब कुछ खो दिया, इनमें भी कईयों के नाम दर्ज रहे कइयों के नाम तक दर्ज नहीं हुए।रायपुर और समूचे छत्तीसगढ़ में भी आज़ाद भारत में लोकतंत्र को बचाने के लिए सेनानी हैं, जिनके नाम दर्ज हैं, उस दौर की भयावहता को बताने के लिए आयु ने स्मृति लोप को प्रभावी नहीं होने दिया है।हालाँकि आज के लोकतंत्र को देखते हुए उनकी टिप्पणी और आज की राजनीति में खुद वे कितने प्रासंगिक हैं यह भी दिलचस्प है।
स्व. दत्तात्रेय उपासने का परिवार
राजधानी में जब आपातकाल के दौर का ज़िक्र आता है तो स्व. दत्तात्रेय उपासने के परिवार पर नज़र टिकती है।लिप्टन कंपनी में कार्यरत दत्रातेय उपासने आज के छत्तीसगढ़ के संघ के उन बुनियाद के पत्थरों में थे, जिन्होंने उस दौर में बहुत कुछ खोया। आपातकाल लगने के कुछ ही समय के अंतराल में दत्तात्रेय उपासने का स्थानांतरण सुदूर सतना किया गया।दत्तात्रेय उपासने का घर उस दौर में संघ के साथ साथ भुमिगत आंदोलन का मुख्य स्थल था। दत्तात्रेय जी की पत्नी रजनी ताई उपासने तब पूरी दृढ़ता से सूत्रों को एकीकृत करती रहीं। रजनी ताई और दत्तात्रेय उपासने के तीन बच्चे जगदीश उपासने, सच्चिदानंद उपासने और गिरीश उपासने तब क्रमशः बिलासपुर, रायपुर नई जेल और रायपुर पुरानी जेल में क़ैद किए गए थे।19 माह तक जगदीश उपासने और सच्चिदानंद उपासने जेल में रहे।इनकी रिहाई 21 मार्च को उसी दिन हुई जबकि, केंद्र में संयुक्त विपक्ष की सरकार को बहुमत मिल गया।
जेल में लगती थी शाखा, तो लाठीचार्ज भी हुआ
रायपुर जेल में निरुद्ध आपातकाल के बंदियों में अधिकांश की पृष्ठभूमि संघ से जुड़ी थी। यह अविश्वसनीय सा लगता है पर सच्चिदानंद उपासने बताते हैं कि, जेल के भीतर ही संघ की शाखा लगाई जाती थी। माँ रजनी ताई सामान जिस बैग में देती थी, उसके सबसे निचले स्तर पर गत्ते और कव्हर के बीच साहित्य और देश की राजनैतिक हलचल की जानकारी देने वाले अभिलेख होते थे, जिसे सच्चिदानंद जेल के भीतर वितरित कर देते थे।जेल में शाखा लगने के साथ साथ एक घटना और हुई थी, और वह था भीषण लाठीचार्ज। जेल में निरुद्ध आपातकाल के बंदियों ने रबड़ जैसी रोटी और कंकड़ के साथ दी जाने वाली दाल जिसमें काला पानी होता था, उसे लेकर हड़ताल कर दी। 31 दिसंबर को बंदियों ने खाना फेंक दिया और जेलर के कक्ष तक नारेबाज़ी की। 1 जनवरी 1976 को जेल के भीतर ज़बर्दस्त लाठी चार्ज हुआ जिसमें पचास से अधिक मीसा बंदी गंभीर रुप से घायल हुए।इसी लाठी चार्ज में प्रख्यात श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी ने संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता और वनवासी कल्याण आश्रम के संस्थापक बाला साहब देशपांडे को बचाने खुद को झोंक दिया था। राजनैतिक विचारधारा में उत्तर दक्षिण नियोगी और देशपांडे थे, लेकिन देशपांडे के हिस्से की पूरी लाठियाँ शंकर गुहा नियोगी ने अपने शरीर पर ले लीं।
रजनी ताई को बोला कलेक्टर ने, राजद्रोह में जेल और घर जप्त कर दूँगा
रजनी ताई तब ना केवल बाहर बल्कि जेल में क़ैद संघ के लोगों के सतत संपर्क का इकलौता ज़रिया थीं। तत्कालीन कलेक्टर ने तब कहा था “आप अपने बेटों से मिलने जाती हैं, तो बाक़ी संघ के लोगों से भी मिलती हैं, राजद्रोह लगा दूँगा और घर जप्त कर दूँगा”
रजनी ताई इस धमकी से डिगी नहीं, बल्कि अपना काम करती रहीं,आपातकाल के बाद हुए विधानसभा चुनाव में रायपुरकी पहली महिला विधायक निर्वाचित हुईं।
यदि इस पर कर देते थे दस्तखत तो होती थी रिहाई
आपातकाल के दौरान बंदियों की रिहाई तब होती थी, जबकि वे लिखित सहमति दें कि, इंदिरा गांधी के 21 सूत्रीय और संजय गांधी के 5 सूत्रीय कार्यक्रम में सहमति पत्रक पर हस्ताक्षर करते और माफ़ी की याचना करते, कई लोग उस दौरान इस आधार पर भी रिहा हुए।
प्रतिभा पारे जो शहीद हुई, पर कहीं दर्ज नहीं है
आपातकाल लगते ही, उनकी तलाश सबसे पहले हुई जो संघ के और संघ के अनुषांगिक संगठनों से सक्रिय रुप से जुड़े हुए थे, जिनकी सक्रियता संघ को विस्तार देती थी। अहीवारा के नंदनी में बीएमएस के आधार स्तंभ में एक श्रीधर पारे तब निशाने पर आए, पर उन्हें जेल भेज पाते इसके पहले वे भुमिगत हो गए। घर पर बचीं उनकी पत्नी श्रीमती सुधा पारे और चार बच्चे प्रवीण,प्रतिभा प्रफुल्ल और प्रणव। सरकार का तंत्र इस कदर आक्रामक था कि, तब संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों का नाम लेना या उन्हें जानना उनकी मदद करना मतलब तलवार को खुद गले पर चलाना होता था। यही वह दौर था जबकि संघ से जुड़े लोगों ने और उनके परिवार ने बहुत कुछ स्थाई रुप से खो दिया, क्योंकि तब तंत्र पर हावी वर्ग के लिए संघ और उसके लोग निजी शत्रु के रुप में थे, तत्कालीन सत्ता का प्रिय बने रहने के लिए यह अलिखित मगर अनिवार्य था कि, ऐसे लोगों को चिन्हाकित कर उनका मनोबल तोड़ दिया जाए। श्रीधर पारे को प्रबंधन ने भुमिगत होते हुए बर्खास्त किया और घर ख़ाली करने का आदेश दे दिया। रातों रात सामान और बच्चों के साथ श्रीमती सुधा पारे किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में बाहर आ गईं, तब एक परिचित भरत लाल सोनी ने गाय भैंस के तबेले में शरण दी, वहाँ इस परिवार ने करीब तीन महीने गुज़ार दिए।इस दौर में 11 वर्षीया प्रतिभा की तबियत बिगड़ी, तेज बुख़ार ने प्रतिभा को तोड़ दिया। पारे परिवार बताता है कि, तब स्थानीय अस्पताल में उपचार के लिए चिकित्सक तैयार हुए लेकिन दबाव आया और प्रतिभा को उपचार नहीं मिला।प्रतिभा को लेकर 5 मई 1977 को रायपुर पहुँची श्रीमती सुधा पारे बमुश्किल अस्पताल दाखिल करा पाईं, लेकिन ठीक एक महीने बाद 5 जून 1977 को प्रतिभा की मौत हो गई।
प्रफुल्ल पारे की स्मृति में यह पूरा वाकया फ़िल्म की तरह मानस पर दर्ज है। उन्हें याद है कि, अंतिम संस्कार तक के लिए पैसे नहीं थे। घटना को याद करते हुए बस इतना कहते हैं
“लोकतंत्र को फिर से स्थापित करने के प्रयास में मेरी दीदी भी शहीद हुई..पर मुझे ये भी पता है कि,मेरी दीदी अकेली गुमनाम शहीद नहीं थीं,बहुतेरे और भी हैं”
प्रफुल्ल पारे छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के चर्चित पत्रकारों में रहे है। वे पत्रकारिता में आज भी सक्रिय हैं। जबकि श्रीधर पारे और श्रीमती सुधा पारे भोपाल में छोटे पुत्र प्रणव के साथ रहते हैं।