4 फरवरी 1922, उत्तरप्रदेश का गोरखपुर जिला। यहां आज से 101 साल पहले आक्रोशित क्रांतिकारियों ने अपने 26 साथियों की मौत बदला लिया था। गुस्साएं लोगों ने चौरी-चौरा (Chauri Chaura Kand) पुलिस स्टेशन को आग के हवाले कर दिया था। इसमें 23 पुलिसकर्मी जिंदा जल गए थे। थाने में एक मात्र चौकीदार जिंदा बचा था। इस जनविद्रोह की घटना ने ब्रिटिश हुकूमत को हिला कर रख दिया था। वहीं, असहयोग आंदोलन (Non-cooperation movement) में लोगों की हिंसा से आहत महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) ने आंदोलन वापस ले लिया था।
ऐसे शुरू हुआ था विद्रोह: दस्तावेजों के मुताबिक साल 1921 में महात्मा गांधी गोरखपुर (Gorakhpur chauri chaura kand) आए थे। इसके साल भर बाद हुए असहयोग आंदोलन में गोरखपुर के लोगों ने भारी संख्या में हिस्सा लिया। एक फरवरी 1922 को चौरीचौरा से सटे मुंडेरा बाजार में शांतिपूर्ण बहिष्कार किया जा रहा था। इसी बीच चौरीचौरा पुलिस स्टेशन के पास एक सब इंस्पेक्टर ने कुछ स्वयंसेवकों की पिटाई कर दी। चार फरवरी को जिला मुख्यालय से करीब 15 मील दूर पूर्व डुमरी नाम की जगह पर भारी संख्या में स्वयंसेवक इकट्ठा हुए। यहां स्थानीय नेताओं के संबोधन के बाद स्वयंसेवक चौरीचौरा थाने पहुंच गए। यहां पुलिस से पिटाई का स्पष्टीकरण मांगने लगे। इसी दौरान पुलिस ने गोली चला दी। गोलियां कब तक चलीं इसकी कोई जानकारी नहीं है, लेकिन इसके परिणामस्वरूप 26 लोगों की मौत हो गई।
पुलिस को चेतावनी: गोलियां खत्म होने पर सभी पुलिसकर्मी थाने के अंदर भाग गए। आक्रोशित स्वयंसेवकों ने उन्हें बाहर आने की चेतावनी दी, लेकिन पुलिसकर्मी बाहर नहीं आए। साथियों की मौत से आक्रोशित स्वयंसेवकों ने गेट को बंद कर थाने को आग लगा दी। इस घटना में एक सब इंस्पेक्टर और 22 पुलिस कर्मियों की जलकर मौत हो गई। मात्र एक चौकीदार जिंदा बचा। घटना के बाद गोरखपुर के कमिश्नर ने इंडिया होम दिल्ली को तार भेजकर चौरीचौरा की घटना की जानकारी दी। इसमें बताया गया कि करीब दो हजार स्वयंसेवकों और ग्रामीणों की संगठित भीड़ ने चौरीचौरा थाने पर हमला किया और थाना भवन को जला दिया गया। साथ ही यह भी अवगत कराया कि स्थिति अत्यंत ही गंभीर है और गोरखपुर के लिए एक कंपनी मिलिट्री भेज दी जाए।
क्या था दारोगा का नाम: जिस दारोगा की वजह से ये पूरी घटना हुई, उसका नाम था गुप्तेश्वर सिंह। उसकी उम्र 35 से 40 साल के बीच की थी। बाद में अदालत में दी गई जानकारी से मालूम हुआ कि वो आजमगढ़ के किसी गांव का रहने वाला था। पहले सेना में रह चुका था। सेना से रिटायरमेंट के बाद उसने पुलिस में नौकरी शुरू की थी। दारोगा का परिवार थाना भवन के बगल में ही रहता था। जिस समय ये बलवा चल रहा था तब दारोगा कि पत्नी राजमनी कुंवर अपने घरेलू नौकर और दो बच्चियों के साथ डरी सहमी घर पर थी। हालांकि भीड़ ने उन्हें छोड़ देना उचित समझा, क्योंकि उनका गुस्सा अंग्रेजों की चाकरी कर रहे जुल्मी सिपाहियों को लेकर था।
गांधी ने आंदोलन वापस लिया था: इस हिंसा के बाद महात्मा गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। महात्मा गांधी के इस फैसले को लेकर क्रांतिकारियों का एक दल नाराज था। 16 फरवरी 1922 को गांधीजी ने अपने लेख चौरीचौरा का अपराध में लिखा कि अगर ये आंदोलन वापस नहीं लिया जाता तो दूसरी जगहों पर भी ऐसी घटनाएं होतीं। उन्होंने इस घटना के लिए एक तरफ जहां पुलिसवालों को जिम्मेदार ठहराया क्योंकि उनके उकसाने पर ही भीड़ ने ऐसा कदम उठाया था। दूसरी तरफ घटना में शामिल तमाम लोगों को अपने आपको पुलिस के हवाले करने को कहा क्योंकि उन्होंने अपराध किया था।
गांधी जेल गए थे: इसके बाद गांधीजी पर राजद्रोह का मुकदमा भी चला था। उन्हें मार्च 1922 में गिरफ्तार कर लिया गया था। असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को पारित हुआ था। गांधीजी का मानना था कि अगर असहयोग के सिद्धांतों का सही से पालन किया गया तो एक साल के अंदर अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएंगे।