भोपाल. आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा (Birsa Munda) के जन्मदिन पर जनजातीय गौरव दिवस (Janjatiya Gaurav Diwas) मनाया जा रहा है। इस मौके पर प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) ने कहा कि वो आज भी हमारी आस्था में भगवान के रूप में मौजूद है। चलिए आपको बताते हैं एक आदिवासी नौजवान के भगवान बनने की कहानी। साल 1875 में 15 नवंबर के दिन झारखंड के खूंटी जिले में बिरसा का जन्म हुआ था। वो आदिवासियों की मुंडा जनजाति (Munda Tribe) से आते हैं। अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के लिए उन्होंने उलगुलान की शुरूआत की थी। उलगुलान (Ulgulan) का अर्थ होता है, ‘असीम कोलाहल’ वो विद्रोह जिसमें आदिवासियों ने अपने जल, जंगल और जमीन पर अपनी दावेदारी के लिए विद्रोह (Revolt) शुरू किया था।
स्कूल के दिनों में बदला धर्म
एक न्यूज वेबसाइट के मुताबिक, अंग्रेजी हुकूमत के समय लोगों पर ईसाई धर्म थोपा जा रहा था। पढ़ाई के लिए बिरसा को भी धर्म बदलना पढ़ा। जर्मन मिशन स्कूल में एडमिशन लेने के लिए उनका नाम बदल कर बिरसा डेविड कर दिया गया, जो बाद में बिरसा दाऊद भी हो गया। हालांकि, कुछ ही सालों बाद स्वतंत्रता संग्राम (Freedom Struggle) से प्रभावित होकर उनकी मां ने उनको स्कूल से हटा लिया। उन्होंने अपनी हक की लड़ाई के लिए 1895 में तमाड़ के चलकड़ गांव में ईसाई धर्म त्याग दिया और वो अपनी पारंपरिक आदिवासी धार्मिक व्यवस्था में आ गए।
1895 में हुई दो साल की कैद
साल 1895 में उन्होंने अंग्रेजों (Britishers) के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका। उन्होंने तमाड़ में ईसाई धर्म (Christianity) छोड़ते हुए लोगों से कहा कि महारानी विक्टोरिया का शासन समाप्त हो गया है और मुंडा राज शुरू हो गया है। उन्होंने ‘अबुआ राज एते जाना, महारानी राज टुंडू जाना’ का नारा दिया। यानी रानी का खत्म करो और अपना राज स्थापित करो। उन्होंने रैयतों (किरायेदार किसानों) को लगान न देने का आदेश दिया। इस सबके चलते उन्हें 24 अगस्त, 1895 को गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल की कैद की सजा सुना दी गई। 28 जनवरी, 1898 को जेल से रिहा होने के बाद, वो फिर से उन्हीं पुराने सामाजिक कार्यों में जुट गए।
आदिवासी संस्कृति को पुनर्जीवित किया
साल 1899 में दिसंबर के महीने में लगभग 7,000 लोग उलगुलान की शुरुआत करने के लिए इकट्ठे हुए। ‘अबुआ दिसुन’ यानी स्वराज्य कायम होने की घोषणा कर दी गई थी। जनवरी 1900 तक पूरे मुंडा अंचल में उलगुलान की चिंगारी फैल गई। 9 जनवरी, 1900 को हजारों मुंडा तीर-धनुष और परंपरागत हथियारों के साथ डोम्बारी बुरू पहाड़ी पर इकट्ठा हुए। इधर गुप्तचरों ने अंग्रेजी पुलिस तक मुंडाओं के इकट्ठा होने की खबर पहले ही पहुंचा दी थी।
अंग्रेजों के हाथ नहीं आए बिरसा मुंडा
अंग्रेजों की पुलिस और सेना ने पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। हजारों की संख्या में आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। अंग्रेज बंदूकें और तोप चला रहे थे और बिरसा मुंडा और उनके समर्थक तीर बरसा रहे थे। डोंबारी बुरू के इस युद्ध में हजारों आदिवासी बेरहमी से मार दिए गए। स्टेट्समैन के 25 जनवरी, 1900 के अंक में छपी खबर के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे। कहते हैं कि इस नरसंहार से डोंबारी पहाड़ी खून से रंग गई थी। इस युद्ध में अंग्रेज जीत तो गए, लेकिन विद्रोही बिरसा मुंडा उनके हाथ नहीं आए।
जहां जाते थे बीमारी खत्म हो जाती थी
बिरसा मुंडा की ख्याति एक समाज सुधारक के रूप में भी हुई। उन्होंने चेचक महामारी के दौरान लोगों से साफ-सफाई का ख्याल रखने की अपील की। जिससे इलाके में महामारी का प्रकोप कम हो गया। ईसाई मिशनरियों के प्रभाव को कम करने के लिए बिरसा मुंडा ने 'बिरसाइत' धर्म की भी शुरुआत की। इस दौरान वे जिस गांव में जाते थे, साफ-सफाई का विशेष ख्याल रखा जाता था। जिस कारण उनके गांव पहुंचते ही बीमारी का प्रकोप कम हो जाता था। मुंडा को देखने और आशीर्वाद पाने भर के लिए लोग मीलों की यात्रा करके आते थे। वह आदिवासी लोगों के लिए एक संत, एक गुरु, एक ईश्वर बन गए थे। आज भी ढेरों लोकगीतों में बिरसा का अपने लोगों और अपने क्षेत्र पर जबर्दस्त प्रभाव साफ झलकता है।
जेल में दी गई यातनाएं
3 फरवरी 1900 को रात्रि में चाईबासा के घने जंगलों से बिरसा मुंडा (Birsa Munda Death) को पुलिस ने उस समय गिरफ्तार कर लिया। उन्हें रांची जेल में बंद कर भयंकर यातनाएं दी गईं। एक जून को अंग्रेजों ने उन्हें हैजा होने की खबर फैलाई और 9 जून की सुबह जेल में ही उन्होंने आखिरी सांस ली। उनकी लाश रांची के मौजूदा डिस्टिलरी पुल के पास फेंक दी गई थी। इसी जगह पर अब उनकी समाधि बनाई गई है। बिरसा मुंडा ने जिस रांची जेल में प्राण त्यागे, उसे अब बिरसा मुंडा स्मृति संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया है।