अजय बोकिल. देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में चल रहे 'द ग्रेट एआईसीसी प्रेसिडेंट इलेक्शन ड्रामा' का अंत पार्टी के वरिष्ठ नेता और मध्यप्रदेश में लगातार दस साल तक मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह की ताजपोशी के साथ होता दिख रहा है। बरसों बाद कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए 17 अक्टूबर को होने जा रहे चुनाव में दिग्विजय सिंह का नामांकन भरना तय है। दिग्विजय इसका सार्वजनिक रूप से खुलासा भले न करें लेकिन उनके अध्यक्ष चुने जाने की स्क्रिप्ट 10 जनपथ में लिखी जा चुकी है।
सिर्फ 4 दिन पहले तक कोई भी दिग्विजय सिंह के अध्यक्ष पद की रेस में शामिल होने को गंभीरता से नहीं ले रहा था। लेकिन राजस्थान में सत्ता के लिए अशोक गहलोत समर्थकों की खुली बगावत और आलाकमान के आदेशों की अवहेलना ने दिग्विजय के भाग्य को भी नाटकीय मोड़ दे दिया। गहलोत खुद रेस से बाहर हो गए। फोकस में अब दिग्विजय सिंह ही हैं। उनके अध्यक्ष बनने से न केवल दिशाहीन होती कांग्रेस में नई जान और जुझारूपन पैदा हो सकता है बल्कि उनके अपने गृह राज्य मध्यप्रदेश की राजनीति में भी गहरी हलचल पैदा होगी। कांग्रेस में नए समीकरण बनेंगे तो सत्ता में बैठी भाजपा को अपना राजनीतिक गणित भी नए सिरे से बैठाना होगा।
75 वर्षीय दिग्विजय सिंह का राजनीतिक और कुछ हद तक निजी जीवन भी उतार चढ़ावों से भरा रहा है और सत्ता तो उन्हें किसी लॉटरी की माफिक ही मिलती आई है। वर्तमान परिस्थितियों में उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने और पहली बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनने की घटना में काफी साम्य है। इस लिहाज से वो राजनीतिक रेस के ऐसे एथलीट हैं जो शुरू में बहुत पीछे दिखता है लेकिन मंजिल करीब आते ही फिनिश लाइन को सबसे पहले पार कर जाता है। 1993 में जब दिग्विजय पहली बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, उस वक्त भी समीकरण उनके पक्ष में नहीं थे और प्रदेश कांग्रेस का आकाश अर्जुन सिंह, श्यामाचरण शुक्ल, माधवराव सिंधिया, सुभाष यादव और मोतीलाल वोरा जैसे सितारों से भरा था। लेकिन अर्जुन सिंह के प्रतिद्वंद्वी माधवराव सिंधिया को मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर रखने की रणनीति काम कर गई और उनके गुट से प्रभावी उम्मीदवार के रूप में दिग्विजय सिंह उभरे। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव कांग्रेस अध्यक्ष भी थे। कहते हैं कि खुद नरसिंहराव ने दिग्विजय को फोन कर कहा कि तुम्हें सीएम पद की शपथ लेनी है। कुछ ऐसा ही इस बार भी होता दिख रहा है।
दिग्विजय सिंह के व्यक्तित्व की कुछ खूबियां ऐसी हैं जो उन्हें अन्यतम बनाती हैं। उदाहरण के लिए राजनीति में उनके जितने दुश्मन हैं उससे ज्यादा प्रशंसक और मित्र हैं। लेकिन सभी दिग्विजय के सहज और मुस्कुराते व्यक्तित्व के कायल हैं। राजनीतिक रणनीतियां तैयार करने, वोटों के लिहाज से सामाजिक और जातीय समीकरण बनाने और सेक्युलर ताकतों को साथ रखने के कौशल के मामले में दिग्विजय का मुकाबला नहीं है। हालांकि कुछ लोग उन्हें उनके सार्वजनिक बयानों के कारण ‘नॉन सीरियस’ नेता भी मानते हैं। इसके साथ ही उनकी राजनीतिक समझ का लोहा भी मानते हैं। इसलिए भारतीय जनता पार्टी और उसकी मातृ संस्था आरएसएस दिग्विजय के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस के संभावित रूपातंकरण और सक्रियता को लेकर आशंकित हैं और उसकी काट ढूंढने में अभी से जुट गए हैं।
वैसे कांग्रेस जैसी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी में अध्यक्ष जैसा अहम पद मध्यप्रदेश के किसी व्यक्ति को पहली बार ही नसीब होगा। इसके पहले 1985 में स्व. अर्जुन सिंह को तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने पार्टी का प्रथम उपाध्यक्ष नियुक्त किया था। लेकिन अर्जुन सिंह भी थोड़े समय के लिए उस पद पर रह सके। उनके बाद दिग्विजय सिंह ही पार्टी के निर्वाचित अखिल भारतीय अध्यक्ष होंगे। 137 साल पुरानी के पार्टी के कांग्रेस अध्यक्षों की कड़ी में वो 62वें अध्यक्ष होंगे। दिग्विजय सिंह की विशेषता यह है कि न केवल कांग्रेस बल्कि अन्य दूसरे दलों के नेताओं से भी उनके अच्छे व्यक्तिगत सम्बन्ध रहे हैं। जब वो मुख्यमंत्री थे तब भी बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुंदरलाल पटवा के बंगले पर मुक्त भाव से हंसते और गप लड़ाते उनको देखा जा सकता था। इस मायने में राजनीतिक मतभेदों को मानवीय रिश्तों की आड़ दिग्विजय सिंह ने कभी नहीं बनने दिया।
वैचारिक मतभेदों और मनभेदों की उनकी अपनी परिभाषा है। इसके लिए उन्हें बुराई भी मोल लेनी पड़ी तो उन्होंने इसमें गुरेज नहीं किया। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण था भोपाल में 1996 में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान समूची कार्यकारिणी को दिग्विजय द्वारा अपने मुख्यमंत्री निवास में भोजन पर आमंत्रित करना था। तब इसकी कांग्रेस में भी कड़ी आलोचना हुई लेकिन दिग्विजय सिंह ने उसकी परवाह नहीं की। उन्होंने नरसिंहराव को विश्वास में ले रखा था। यही नहीं दिग्विजय अटलजी को हमेशा ‘गुरुदेव’ कहकर सम्बोधित करते रहे।
दिग्विजय के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर मध्यप्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीतिक समीकरण बदलेंगे। मध्यप्रदेश में उनका प्रखर विरोधी ज्योतिरादित्य खेमा अब कांग्रेस छोड़ भाजपा में जा चुका है लेकिन दिग्विजय ज्योतिरादित्य को उनके घर में ही मात देने की रणनीति पर काम कर सकते हैं और इस काम में अंदरखाने उन्हें उनके भाजपाई मित्रों से मदद मिल सकती है। सिंधिया खेमे के खिलाफ राज्य में दिग्विजय और कमलनाथ खेमा हाथ मिलाए हुए थे लेकिन भविष्य में दिग्विजय का पार्टी में कद बढ़ने से कमलनाथ खेमे को परेशानी हो सकती है। दिग्विजय पार्टी में नाराज चल रहे या हाशिए पर पड़े अरुण यादव, अजय सिंह और सुरेश पचौरी को साथ ला सकते हैं। कांग्रेस की यह संभावित एकजुटता राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर भाजपा के लिए परेशानी खड़ी कर सकती है। दिग्विजय की प्रदेश के आदिवासी नेताओं भी अच्छी पैठ है। उधर भाजपा राज्य की 47 आदिवासी सीटों को जीतने के लिए पूरी ताकत लगा रही है लेकिन उसे खतरा उस ‘जय आदिवासी संगठन’ से है, जिसे दिग्विजय सिंह ने ही खड़ा कराया था। इस संगठन ने 2018 के विधानसभा चुनाव में मालवा-निमाड़ क्षेत्र में भाजपा के भगवा सपनों पर पानी फेर दिया था। इस दृष्टि से मध्यप्रदेश में 2023 का विधानसभा चुनाव कांटे का हो सकता है।
दिग्विजय को वामपंथियों का भी पूरा समर्थन मिलेगा क्योंकि वो दिग्विजय को साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ लड़ने वाला असंदिग्ध योद्धा मानते हैं। इससे राज्य में कांग्रेस की ताकत में कुछ इजाफा हो सकता है। व्यक्तिगत रूप से दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, उमा भारती, नरेन्द्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय आदि सभी नेताओं से अच्छे रिश्ते हैं, जो परोक्ष रूप से निभाए भी जाते रहे हैं। ये नेता सार्वजनिक बयान कुछ भी दें लेकिन रिश्तों का दबाव काम तो करता ही है। दिग्विजय बसपा और समाजवादी पार्टी से भी कांग्रेस के तार जोड़ सकते हैं। इसके अलावा उन्हें मध्यप्रदेश की राजनीतिक तासीर, धार्मिक, सामाजिक और जातीय समीकरणों की गहरी जानकारी है। वो पार्टी के शायद अकेले ऐसे नेता हैं, जो एक-एक कार्यकर्ता को नाम से जानते हैं। लोग भले उन्हें ‘राजा साहब’ कहते हों लेकिन आम लोगों की उन तक पहुंच आसान है। कुलीनता का कोई दंभ उनके व्यक्तित्व और बॉडी लैंग्वेज में नहीं दिखाई देता। वो सभी से ठहाके लगाकर मिलते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर भी दिग्विजय सिंह के दोस्तों की संख्या बहुत बड़ी है। आज जब भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर विपक्षी एकजुटता की बात की जा रही है, दिग्विजय उसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं। कई विपक्षी राष्ट्रीय नेताओं से उनके करीबी सम्बन्ध हैं। इसी तरह माना जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के अंतिम मुकाबले में दो या तीन प्रत्याशी रह सकते हैं। लेकिन इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि आखिर में दिग्विजय ही निर्विरोध चुनाव जीत जाएं। इसका कारण है नेहरू-गांधी परिवार के प्रति उनकी असंदिग्ध निष्ठा और कांग्रेस तथा उसकी विचारधारा के प्रति वफादारी। खुद को 'सच्चा हिंदू' बताने के साथ-साथ दिग्विजय हिंदुत्ववादी ताकतों से लोहा लेने में कभी पीछे नहीं हटे। संघ, उसकी विचारधारा और कार्यशैली के वो घोर आलोचक रहे हैं। इसलिए अल्पसंख्यकों का साथ भी उन्हें मिलता रहा है।
दिग्विजय के पास तेज राजनीतिक दिमाग और संगठन कौशल भी है। हालांकि वो हमेशा सफल नहीं रहे हैं। एक ओर उनकी सर्व सुलभता कांग्रेस को ताकत देगी तो दूसरी तरफ भाजपा और आरएसएस उन्हें ‘हिंदू विरोधी’ सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार को बचाने और गोवा में कांग्रेस की सरकार बनवाने में नाकामी भी उन्हीं के खाते हैं। वो दो बार सांसद का चुनाव भी हार चुके हैं। इसके अलावा दिग्विजय सिंह द्वारा मीडिया में समय-समय पर दिए जाने वाले ‘नॉन सीरियस’ बयान उनकी शख्सियत के वजन को कम करते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर उन्हें खुद पर ज्यादा संयम रखना होगा। बहुसंख्यक मतदाताओं में अपनी सकारात्मक छवि गढ़नी होगी। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने कुछ ऐसी ही गलतियां की थीं, जिसका नतीजा राज्य में ‘भाजपा के अंगद’ के पांव के रूप में सामने आया।
दिग्विजय के हंसोड़पन में भी एक दृढ़ इच्छा शक्ति छुपी रहती है। यह बात उन्होंने मध्यप्रदेश में चुनावी हार के बाद राजनीति से 10 साल तक बाहर रहने के संकल्प के रूप में निभाई। वो उन बिरले लोगों में से हैं जिन्होंने मां नर्मदा की पैदल परिक्रमा की है। तनावों को झेलने और विवादों को सुलझाने का कौशल उनमें है। वो आम कांग्रेस की व्यथा और आकांक्षा को धैर्य से सुन और समझकर उसे आलाकमान तक पहुंचा सकते हैं। आज कांग्रेस को इसी की सबसे ज्यादा जरूरत है। इसके अलावा दिग्विजय के कंधों पर ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर निकले युवराज राहुल गांधी के भावी राजतिलक का रास्ता तैयार करने की भी जिम्मेदारी रहेगी। दस जनपथ का आशीर्वाद भी उन्हें शायद इसलिए मिला है। वैसे भी दिग्विजय की व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वांकाक्षाएं अब सीमित हैं। वो कांग्रेस को फिर जिंदा कर पाए तो यह देश में लोकतंत्र के लिए भी शुभ होगा।