UJJAIN. 52 शक्तिपीठों में से एक मां हरसिध्दि को राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की आराध्य देवी माना गया है। माता हरसिद्धि को कोहनी धार्मिक नगरी उज्जैन में गिरी थी ,इसलिए देश भर से भक्त यहां आते है। सम्राट विक्रमादित्य माता हरसिद्धि के परम भक्त थे। हर बारह साल में एक बार वे अपना सिर माता के चरणों में अर्पित कर देते थे, लेकिन माता की कृपा से पुन:नया सिर मिल जाता था। बारहवीं बार जब उन्होंने अपना सिर चढ़ाया तो वह फिर वापस नहीं आया। इस वजह से उनका जीवन समाप्त हो गया।
माता ने राजा से जो कहा था, आज भी वैसा ही हो रहा है
गुजरात स्थित पोरबंदर से करीब 48 किमी दूर मूल द्वारका के पास समुद्र किनारे स्थित मियां गांव है। एक पर्वत की सीढ़ियों के नीचे हर्षद माता (हरसिद्धि) का मंदिर है। मान्यता है कि उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य यहीं से आराधना करके देवी को उज्जैन लाए थे। तब देवी ने विक्रमादित्य से कहा था कि मैं रात के समय तुम्हारे नगर में और दिन में इसी स्थान (मियां गांव) में वास करूंगी। इस कारण आज भी माता दिन में गुजरात और रात में उज्जैन में वास करती हैं।
इसलिए पड़ा हरसिद्धि नाम
बताया जाता है कि एक बार जब चंड-प्रचंड नाम के दो दानव जबरन कैलाश पर्वत पर प्रवेश करने लगे थे। उन्हें नंदी ने रोक दिया, लेकिन असुरों ने नंदी को घायल कर दिया। इस पर भगवान शिव ने भगवती चंडी का स्मरण किया। शिव के आदेश पर देवी ने दोनों असुरों का वध कर दिया। इससे महादेव प्रसन्न हो गए थे। उन्होंने कहा था कि तुमने इन दानवों का वध किया है, इसलिए आज से तुम्हारा नाम हरसिद्धि प्रसिद्ध होगा।
विक्रमादित्य ने 11 बार चढ़ाया सिर
सम्राट विक्रमादित्य माता हरसिद्धि के परम भक्त थे। हर बारह साल में एक बार वे अपना सिर माता के चरणों में अर्पित कर देते थे, लेकिन माता की कृपा से पुन: नया सिर मिल जाता था। बारहवीं बार जब उन्होंने अपना सिर चढ़ाया तो वह फिर वापस नहीं आया। इस कारण उनका जीवन समाप्त हो गया। आज भी मंदिर के एक कोने में 11 सिंदूर लगे मुंड पड़े हैं। कहते हैं ये विक्रमादित्य के कटे हुए मुंड हैं।
मंदिर की 11 विशेषताएं
- उज्जैन में हरसिद्धि मंदिर ज्योतिर्लिंग श्री महाकालेश्वर मंदिर के पीछे पश्चिम दिशा में स्थित है।
कौन हैं चंद्रगुप्त विक्रमादित्य
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य उज्जैन के शासक थे। महान लेखक कालिदास उन्हीं के दरबार में थे। उनके दरबार में अलग-अलग विधाओं में पारंगत नवरत्न थे। किंवदंती है कि विक्रमादित्य का पुतलियों का सिंहासन था। विक्रमादित्य के बाद पुतलियों ने किसी को भी सिंहासन पर बैठने नहीं दिया। विक्रमादित्य ने ही विक्रम संवत (57 ईसवी पूर्व) चलाया था। भारतीय इतिहास में 14 राजाओं ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी।