PATNA. बिहार में गुरुवार को विधानसभा में आरक्षण संशोधन विधेयक पास हो गया। जिसके तहत जातिगत आरक्षण का दायरा बढ़ाकर 65 फीसदी कर दिया गया है। अगर ईडब्ल्यूएस वर्ग के 10 फीसदी कोटे को भी जोड़ दिया जाए तो बिहार में कुल रिजर्वेशन 75 प्रतिशत हो जाएगा। जबकि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी से यह काफी ज्यादा है।
1992 में तय हुई थी लक्ष्मण रेखा
बता दें कि साल 1992 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संवैधानिक पीठ ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस में फैसला देते हुए आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय की थी। इस लक्ष्मण रेखा की वजह से ही महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान के फैसले पलटे जा चुके हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या बिहार में 75 फीसदी आरक्षण देने की कवायद इस फैसले के सामने टिक पाएगी?
इसलिए रुका मराठा-जाट और पटेल आरक्षण
आंध्र प्रदेश ने साल 2002 में टीचर्स की भर्ती में अनुसूचित जनजाति कैटेगिरी के लिए 100 फीसदी रिजर्वेशन कर दिया था। शीर्ष कोर्ट ने सरकार के आदेश को खारिज करते हुए कहा था कि इस फैसले से ओबीसी और एससी वर्ग भी प्रभावित हुए हैं। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के लिए 16 परसेंट आरक्षण पर फैसला सुनाते हुए शीर्ष कोर्ट ने माना था कि अदालत में पेश किए गए आंकड़ों में कोई असाधारण स्थिति दिखाई नहीं देती। इस फैसले से महाराष्ट्र में कुल रिजर्वेशन 68 फीसदी हो गया था।
इसी तरह साल 2022 में छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने सरकार के 2011 में पारित एक कानून को रद्द कर दिया था जिसमें एससी, एसटी और ओबीसी का कोटा बढ़ाकर 58 फीसदी कर दिया गया था। ओडिशा और राजस्थान समेत गुजरात हाई कोर्ट भी उक्त राज्य के उन कानूनों को रद्द कर चुके हैं जिनमें आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा कर दिया गया था।
बिहार सरकार को आरक्षण की सीमा बढ़ाने का अधिकार है, लेकिन इस बारे में केंद्र सरकार की सहमति के साथ सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करना भी जरूरी है। कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं करने, संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करने और आरक्षण सीमा की लक्ष्मण रेखा को पार करने पर बिहार सरकार के प्रस्तावित कानून पर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से रोक लग सकती है। इंदिरा साहनी मामले में 9 जजों की बेंच ने 1992 में फैसला दिया था। अब 31 साल बाद आरक्षण सीमा पर पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट में 11 जजों की संविधान पीठ के गठन की मांग भी हो सकती है।