RAIPUR. रायपुर से करीब 120 किलोमीटर दूर दंतेवाड़ा में मां दंतेश्वरी देवी मंदिर है। मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में किया गया था। दंतेवाड़ा शहर का नाम माता दंतेश्वरी के नाम पर पड़ा है। दंतेश्वरी मंदिर के अंदरूनी भाग 24 लकड़ी के पिलर्स पर खड़े हैं। मंदिर का निर्माण राजा हीराला चितेर ने करवाया था।
बिजली गिरने पर भी नहीं हुआ था प्रतिमा को कोई नुकसान
दंतेश्वरी मां मंदिर बस्तर की सबसे सम्मानित देवी को समर्पित है, जिसे 52 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। देवी सती का दांत यहां गिरा था, इसलिए इस मंदिर को नाम दंतेवाड़ा पड़ा। माना जाता है कि माता सती ने अपने पति शिव के अपमान होने पर यज्ञ कुंड में कूदकर अपनी जीवन लीला खत्म कर दी थी। उस वक्त शिव ने सती के आधे जले हुए शरीर को अपने कंधे पर रखकर तांडव किया था। बाद में विष्णु ने शिव का मोह खत्म करने के लिए सुदर्शन चक्र से सती के टुकड़े कर दिए और उनके 51 टुकड़े धरती पर आकर गिरे। इनमें से सभी 51 जगहों में शक्तिपीठों का निर्माण कराया गया।
संतान प्राप्ति की कामना होती है पूरी
दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण 1400 ईसवी में कलचुरि राजाओं के काल में हुआ। ये छत्तीसगढ़ का पहला ऐसा मंदिर है, जिसमें मां की पूजा-अर्चना की सारी विधि यादव करते हैं। माना जाता है कि यहां लोगों की संतान प्राप्ति की कामना पूरी होती है। बताया जाता है कि एक बार गुंबद पर गाज गिरी थी, लेकिन मां के घर पर इसकी आंच तक नहीं पहुंची थी।
प्रतिमा पर गिर रहा था गाय का दूध, फिर हुई स्थापना
माना जाता है कि मंदिर में ग्वालिनों का आना-जाना लगा रहता था। एक दिन गणेशिया बाई नाम की ग्वालिन ने देखा कि गौमाता के थन से लगातार दूध निकल रहा है। दूध एक मूर्ति के ऊपर पड़ रहा है। ग्वालिन ने पास जाकर देखा तो उन्हें मूर्ति का विशेष स्वरूप नजर आया। उन्होंने इस बारे में आसपास के लोगों को जानकारी दी। इसके बाद मूर्ति को मंदिर में स्थापित करने का फैसला लिया गया।
मां दंतेश्वरी की प्रतिमा
मां दंतेश्वरी की ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित काले रंग की प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा 6 भुजाओं वाली है। इनमें से दाएं में मां ने शंख, खड्ग और त्रिशूल पकड़ा है, जबकि बाएं तरफ में मां ने घंटा, पद्म और राक्षसों के बाल पकड़े हैं। प्रतिमा के ऊपरी भाग में भगवान नरसिंह अंकित हैं। ऊपर चांदी का एक छत्र है। मंदिर में मां के चरण चिन्ह भी मौजूद हैं। दंतेश्वरी मंदिर में स्थापित मां सरस्वती की प्रतिमा की स्थापना 1958 में की गई थी। ये स्थापना महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ने करवाई थी।
पहले नरबलि का भी प्रचलन था, फिर प्रथा बदली
इस मंदिर में पशुओं और नरबलि देने का नियम था लेकिन नरबलि पर 18वीं सदी में रोक लगा दी गई थी। इसके बाद धीरे-धीरे पशु बलि देना भी बंद हो गया। मंदिर में नवरात्रि के पंचमी की रात में कद्दू की बलि दी जाती है।