जयंत तोमर. लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से 14 अप्रैल 1972 को चंबल में हुए बागियों के सामूहिक समर्पण को 50 साल पूरे हो गए। दुनियाभर में शान्तिपूर्ण ढंग से हिंसा को समाप्त करने के लिए काफी प्रयास हुए। हथियारबंद बागियों के आत्मसमर्पण की घटना दुनिया के इतिहास में एक अनूठी घटना है। फिर भी इसकी चर्चा उतनी नहीं हुई, जितनी अफ्रीका और अमेरिका में हुए शान्ति प्रयास की घटनाओं की।
कार्यक्रम में गांधीवादी, पूर्व बागी आएंगे
मुरैना के जौरा स्थित गांधी सेवा आश्रम द्वारा स्वर्ण जयंती समारोह के तौर पर मनाया जा रहा है। समारोह में कई राज्यों के गांधीवादी, साहित्यकार, चिंतक और समाजसेवी जुट रहे हैं। उस समय हथियार डालने वाले कुछ बागी मसलन बहादुर सिंह, अजमेर सिंह, सोनेराम जीवित हैं और वे इस आयोजन में शामिल होकर अपने बागी बनने, हथियार डालने और उसके बाद सामान्य जिंदगी जीने की जद्दोजहद साझा करेंगे। जौरा में 14, 15 और 16 अप्रैल को स्वर्ण जयंती समारोह का आयोजन किया गया है।
बागियों को मुख्यधारा में लाने में डॉ. सुब्बाराव की अहम भूमिका
चंबल में पिछली एक शताब्दी में बागियों को हिंसा का रास्ता त्यागकर समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए अनेक प्रयास हुए हैं। विनोबा भावे की प्रेरणा से सन् 1960 में व अप्रैल 1972 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के प्रयासों से हुआ बागियों का समर्पण मुख्यरूप से चर्चा में रहा है। सन् 1976 में भाई जी के नाम से प्रसिद्ध गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. एस एन सुब्बाराव ने उत्तरप्रदेश में आगरा जिले के बटेश्वर और राजस्थान के धौलपुर जिले के तालाबशाही में कई बागी गिरोहों को बातचीत के माध्यम से हिंसा का रास्ता छुड़वाने में सफलता हासिल की। चूंकि उस समय देश में आपातकाल था इसलिए सुब्बाराव जी के प्रयासों की ज्यादा चर्चा अखबारों में नहीं हो पाई।
बागियों के समर्पण का इंटरनेशनल कवरेज
1980 के बाद मलखान सिंह और फूलन देवी के समर्पण ही सबसे ज्यादा चर्चा में रहे। ढोंगर बटरी से लेकर मान सिंह के समय तक यानी 1960 के दशक के मध्य तक सरकार और समाज के पास ऐसा कोई तरीका नहीं था जिससे बागियों को शान्तिपूर्ण जीवन में वापस लाया जाए और उनसे पीड़ित रहे लोग बदले के बारे में ना सोचें। विनोबा और जयप्रकाश नारायण के प्रयोगों ने सरकारों को एक तीसरा अनूठा रास्ता सुझाया था। 1972 के बागी समर्पण की घटना की अमेरिका की टाइम मैगजीन ने भी चर्चा की। टाइम के पत्रकार विलियम स्टीवर्ड इस ऐतिहासिक घटना के साक्षी रहे।
वहीं प्रभाष जोशी, अनुपम मिश्र और श्रवण गर्ग जैसे तरुण लेखकों ने मिलकर तीन दिन का आंखों देखा हाल चौरासी घंटों में लिख डाला। किताब का नाम हुआ- 'चंबल की बंदूकें गांधी के चरणों में'। प्रसिद्ध पत्रकार वी जी वर्गीस ने इसे दुनिया का सबसे तेज गति से लिखा गया रिपोर्ताज करार दिया। यह तय हुआ था कि इस किताब की आय समर्पणकारी बागियों और उनके द्वारा सताए गए परिवारों के पुनर्वास के लिए चंबल घाटी शान्ति मिशन को दी जाएगी।
इंदिरा ने भी बागियों के समर्पण को बड़ा कदम बताया था
जयप्रकाश नारायण ने इस अवसर पर कहा था कि समाज की करुणावृत्ति अपराधियों के प्रति जाग्रत हो और वह उनसे बदले की भावना के बजाय उनके सुधार और उन सामाजिक परिस्थितियों को सोचें, जिनके कारण सामान्य मानव अपराधी बनने को मजबूर होता है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अप्रैल 1972 में जयप्रकाश नारायण को लिखी चिट्ठियों में कहा था कि डाकुओं के आत्मसमर्पण से जो कल्याणकारी प्रभाव बना है, उसको हमें मिटने नहीं देना चाहिए। चंबल घाटी के विकास में यह बहुत सहायक होगा।
बागियों के सरेंडर से नई राह निकली, अब चिंतन का समय
गांधीवादी सामाजिक कार्यक्रम के रूप में राजगोपाल पी वी का दुनियाभर में नाम है। डॉ. सुब्बाराव जब उन्हें सेवाग्राम के रास्ते केरल से चंबलघाटी में लाए थे, तब वे किशोर थे। आज भी वे किशोर ही लगते हैं। पचास साल पहले हुई बागी समर्पण की घटना को याद करते हुए वे कहते हैं कि हम जैसे सैकड़ों लोग उन दिनों इंतजाम में लगे रहते थे। आने वालों के ठहरने और खाने पीने की व्यवस्था, उनका समुचित सत्कार, पूरे सम्मान के साथ उनकी विदाई और समर्पण के बाद उनसे निरंतर खतोकिताबत। पत्थर की पटियों वाली एक कोठरी तो पेठा मिठाई से भरी रहती थी। सभी को जाते और आते समय पानी के साथ पेठा दिया जाता था। राजगोपाल जी तब के और अब के चंबल के फर्क को याद करते हुए कहते हैं कि ' उस जमाने में सूरज ढ़लने के बाद कोई घर से नहीं निकलता था कि कहीं कोई बागी फिरौती की रकम के लिए पकड़ न ले जाए।
आज आप मुरैना से श्योपुर तक के घने जंगलों में लगभग तीन सौ किलोमीटर का फासला निश्चिंत होकर अकेले तय कर सकते हैं। प्रेम, बातचीत और आपसी भरोसा ही वो जरिया था, जिसके चलते दुर्दान्त बागियों ने अपने हथियार गांधी जी के चित्र के समाने रख कर समाज में फिर से वापस लौटे। दूसरी ओर जो लोग इनसे पीड़ित थे, उन्होंने भी अपना मन बदला और कभी बदला लेने के बारे में नहीं सोचा। विनोबा के जमाने में जनरल जदुनाथ सिंह से लेकर एन देव शर्मा, महावीर भाई और मुझ जैसे लोगों ने बहुत मेहनत से यही काम किया था। लेकिन अचरज की बात यह है कि बंदूक लाठी की हिंसा भले समाप्त हो गई हो, बीहड़ों में बागी अब ना रहे हों, लेकिन समाज में हिंसा बरकरार है। गरीबों और आदिवासियों को अब भी एक इंसान का दर्जा नहीं मिल रहा। गैर-बराबरी, शोषण का सिलसिला जारी है। इस अप्रत्यक्ष हिंसा को कैसे समाप्त किया जाए, अब इस पर विचार करने का समय है।'