बदलेगा 152 साल पुराना देशद्रोह कानून? SC में जिरह, पेचीदगियां और केंद्र की दलील

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Atul Tiwari
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बदलेगा 152 साल पुराना देशद्रोह कानून? SC में जिरह, पेचीदगियां और केंद्र की दलील

New Delhi. सुप्रीम कोर्ट में देशद्रोह कानून पर सुनवाई चल रही है। कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। बड़ा सवाल ये है कि अंग्रेजों के जमाने का कानून आजादी के बाद पिछले 75 साल में नहीं बदला, क्या अब बदलेगा? कई सत्ता बदलीं, कई प्रधानमंत्री आए, लेकिन राजद्रोह कानून नहीं बदला। 1870 में लागू हुए इस कानून को भारत के स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने के लिए लाया गया था। 152 साल पुराना ये कानून धीरे-धीरे सत्ता का हथियार बन गया। अब सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि अंग्रेजों के जमाने के कानून का आजाद भारत में क्या काम है? इस पर केंद्र सरकार की अपनी दलील है और विपक्ष के तीखे आरोप।





हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद अब सरकार भी ये मान रही है कि राजद्रोह के कानून को बदलने का समय आ गया है, इसलिए इस कानून में बदलाव पर  विचार किया जा रहा है। कानून मंत्री किरण रिजिजू अब राजद्रोह कानून में बदलाव का समर्थन कर रहे हैं। इससे पहले केंद्र सरकार ने राजद्रोह कानून को सही ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट से इस कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करने का अनुरोध किया था। शीर्ष कोर्ट के सख्त रुख को देखते हुए अब सरकार ने राजद्रोह कानून में बदलाव का मन बना लिया है।





केंद्र ने अब क्या कहा?





सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में केंद्र सरकार ने कहा- ‘प्रधानमंत्री मानते हैं कि आज जब देश आजादी के 75 साल का जश्न मना रहा है, हमें औपनिवेशिक बोझ को दूर करने की दिशा में काम करना चाहिए। इसी के अनुरूप 2014-15 से अब तक 1500 से ज्यादा पुराने कानून खत्म किए जा चुके हैं। ये ऐसे कानून थे, जो औपनिवेशिक मानसिकता को जन्म देते थे। आज के भारत में इनका कोई स्थान नहीं था।’ सुप्रीम कोर्ट के रुख को देख सरकार ने राजद्रोह कानून में बदलाव की बात तो कर दी, लेकिन विपक्ष का सवाल है कि राजद्रोह कानून में बदलाव कब तक पूरे होंगे, इसे लेकर सरकार की तरफ से कोई समय सीमा नहीं दी गई है. 





कोर्ट में सरकार के तर्क





सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सरकार का पक्ष रखते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा- हम राजद्रोह कानून पर दोबारा विचार कर रहे हैं। आप सुनवाई टाल सकते हैं। याचिकाकर्ता के वकील कपिल सिब्बल ने इस दलील का विरोध किया। सिब्बल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट कानून की संवैधानिक वैधता को परख रहा है। कोर्ट की कार्यवाही इसलिए नहीं रोकी जा सकती कि सरकार उस पर विचार करने की बात कर रही है। सिब्बल ने ये भी कहा कि पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि हम जितनी जल्दी राजद्रोह कानून से छुटकारा पा लें, उतना अच्छा है। इस पर मेहता ने कहा कि हम वही करने की कोशिश कर रहे हैं, जो पंडित नेहरू तब नहीं कर सके।





बोलने की आजादी पर नियंत्रण से शुरू हुआ, फिर कानून बन गया





राजद्रोह कानून में बदलाव की जरूरत है, ये बात अदालत भी मानती है और सरकार के साथ विपक्षी दल भी। अपने मूल स्वरूप में ही ये कानून बोलने की आजादी के खिलाफ बनाया गया था। इंग्लैंड में राजा एडवर्ड-1 के जमाने में स्टैच्यूट ऑफ वेस्टमिंस्टर 1275 को कोडिफाई किया गया था। उस वक्त इंग्लैंड में बोलने की आजादी पर नियंत्रण के कुछ प्रावधान किए गए थे। इसे राजद्रोह कानून का सबसे शुरुआती स्वरूप कहा जा सकता है। इसके बाद 1837 में ब्रिटिश राजनेता थॉमस मैकाले ने एक मसौदा तैयार किया, लेकिन 1860 में जब IPC यानी इंडियन पीनल कोड बना तो उसमें राजद्रोह कानून को शामिल नहीं किया गया था।





इस कानून के तहत गिरफ्तारियां तो हुईं, ज्यादातर पर आरोप सिद्ध नहीं हुए





अब सवाल ये है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट को ये क्यों कहना पड़ा कि राजद्रोह कानून की जरूरत नहीं है। इसके लिए 2016 से 2020 तक यानी पांच साल में राजद्रोह कानून के तहत गिरफ्तारी और आरोप सिद्ध होने के आंकड़े समझें। 







  • 2016  में राजद्रोह कानून के तहत 73 लोगों को हिरासत में लिया गया, इनमें से सिर्फ 33% लोगों पर ही आरोप सिद्ध हुआ। 



  • 2017 में सबसे ज्यादा 228 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से सिर्फ 16.7% केस सही पाए गए। 


  • 2018 और 2019 में 56 और 99 लोगों के खिलाफ केस दर्ज किए गए। 2018 में 15.4% और 2019 में सिर्फ 3.3% लोगों के खिलाफ आरोप साबित हुए।


  • 2020 में 44 लोगों को हिरासत में लिया गया, लेकिन आरोप 33.3% लोगों के खिलाफ ही सिद्ध हो सके। 






  • आंकड़ों से साफ है कि राजद्रोह के केस दर्ज होने और आरोप सिद्ध होने के आंकड़ों में खासा अंतर है। इससे ये भी संकेत मिलते हैं कि बड़ी संख्या में ऐसे केस अधूरी तैयारी के साथ दर्ज होते रहे होंगे। जब कुछ साबित नहीं होता तो ऐसे केस मुंह के बल गिरते हैं। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा। 





    क्या है राजद्रोह कानून?





    भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124 (A) के मुताबिक, भारत में सरकार के प्रति मौखिक, लिखित या संकेतों और दृश्य रूप में नफरत या अवमानना या उकसाने की कोशिश को शामिल किया जाता है। हालांकि, घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किए बिना की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता। राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में 3 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है। इस कानून के तहत आरोपी व्यक्ति को सरकारी नौकरी करने से रोका जा सकता है।





    ऐसे अस्तित्व में आया





    देश में अंग्रेजी शासन के खिलाफ आवाजें तेज होने लगीं तो यहां वॉयसराय की एग्जीक्यूटिव काउंसिल के मेंबर जज जेम्स स्टीफन ने 1870 में IPC में संशोधन करवाकर राजद्रोह की धारा 124(ए) को शामिल कराया। उसके बाद इस कानून का इस्तेमाल भारत के स्वतंत्रता सेनानियों और भारतीय नेताओं के खिलाफ किया जाने लगा। 





    शहीद भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू समेत तमाम स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ अंग्रेजों ने इस कानून के तहत केस चलाया। शायद यही वजह रही होगी कि आजादी के बाद संविधान के निर्माण के समय 1948 में केएम मुंशी ने एक प्रस्ताव पेश किया और मूल संविधान से राजद्रोह शब्द हटा दिया गया। 26 नवंबर 1949 को जब देश का संविधान तैयार हुआ तो उसमें राजद्रोह शब्द नहीं था। हालांकि, IPC में राजद्रोह (Sedition) की धारा 124 (ए) तब भी मौजूद रही।





    देश की आजादी के बाद जब सरकार को महसूस होने लगा कि बोलने की आजादी पर नियंत्रण जरूरी है, तब 1951 में नेहरू सरकार ने पहला संविधान संशोधन किया। आर्टिकल 19 (2) के संशोधित प्रावधान लागू किए गए, जिसमें बोलने की आजादी की छूट को सीमित करके कुछ और शर्तें जोड़ दी गईं। इनमें पब्लिक ऑर्डर, विदेशों से रिश्ते, अपराध के लिए उकसाने जैसी बातों को राजद्रोह कानून के दायरे में ले आया गया। 1971 में विधि आयोग ने जो 43वीं रिपोर्ट दी थी, उसमें सरकार, संविधान, विधायिका, न्यायपालिका सबको इसके दायरे में लाने की सिफारिश कर दी थी, लेकिन तब कानून में बदलाव नहीं हुआ।





    केदारनाथ vs बिहार राज्य का मामला





    केंद्र ने हलफनामा दायर कर सुप्रीम कोर्ट में केदारनाथ vs बिहार राज्य के मामले का उल्लेख किया था। कहा था कि राजद्रोह कानून पर पुनर्विचार की कोई जरूरत नहीं है। 1953 में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ सिंह ने बिहार के बेगूसराय में एक जोरदार भाषण दिया था। राज्य की कांग्रेस सरकार के खिलाफ दिए उनके भाषण के लिए राजद्रोह का केस चलाया गया। उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर कालाबाजारी और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे।





    केदारनाथ ने अपने भाषण में कहा था, 'हमने अंग्रेजों को तो गद्दी से उखाड़ फेंका, लेकिन कांग्रेस के गुंडों को चुन लिया। हमें इस सरकार को भी उखाड़ फेंकना होगा। एक और क्रांति जरूरी है, जिसमें इन घूसखोरों और जमाखोरों को उखाड़ फेंकना होगा। तभी मेहनतकश और वंचितों का राज कायम होगा।' इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने आदेश में कहा था कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासनिक कार्य पर टिप्पणी भर से किसी के खिलाफ राजद्रोह का केस नहीं बनता। राजद्रोह के मामले में हिंसा को उकसावा देने का तत्व मौजूद होना चाहिए, महज नारेबाजी नहीं। कोर्ट ने ये भी कहा था कि राजद्रोह कानून का इस्तेमाल विशेष परिस्थिति में ही किया जा सकता है, खासकर जब देश की सुरक्षा और संप्रभुता खतरे में हो।





    हर सरकार पर लगते रहे हैं दुरुपयोग के आरोप





    राजद्रोह कानून के गलत इस्तेमाल के आरोप देश की हर सरकार पर लगते रहे, लेकिन पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई एक याचिका पर ये बहस और तेज हो गई। तब सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि देशद्रोह कानून का अंधाधुंध इस्तेमाल बढ़ई के हाथ में उस आरी की तरह है, जो पेड़ की जगह पूरे जंगल को काट देती है। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि दुर्भाग्य की बात है कि इस कानून को आजादी के 75 साल बाद तक बनाए रखा गया है। सरकार कई अप्रचलित कानूनों को खत्म कर रही है। हम नहीं जानते कि वो इस कानून को क्यों नहीं देख रही है? इस कानून का जारी रहना संस्थानों के कामकाज और व्यक्तियों की स्वतंत्रता के लिए एक गंभीर खतरा है।





    सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद हमलावर हुई कांग्रेस





    सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद कांग्रेस ने राजद्रोह के मामले पर केंद्र सरकार को घेरना शुरू कर दिया। पिछले साल पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने ट्वीट कर सरकार पर आरोप लगाया था कि शीर्ष कोर्ट की टिप्पणी के बाद भी सरकार राजद्रोह कानून को निरस्त करने का कोई प्रस्ताव नहीं ला रही। इस पर कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कांग्रेस पर राजद्रोह कानून के गलत इस्तेमाल का आरोप तब भी लगाया था और आज भी लगा रहे हैं। कुल मिलाकर कहें तो पिछले 75 साल में हर सरकार पर राजद्रोह कानून के दुरुपयोग के आरोप लगते आए हैं लेकिन अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है। कानून में बदलाव की चर्चा शुरू हो गई है, हालांकि ये बदलाव कब तक होंगे, इसका जवाब सरकार को देना है.





    कोर्ट के सरकार से 3 सवाल





    राजद्रोह कानून पर सुनवाई करते हुए 10 मई को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से तीन सवाल पूछे। 







    • चीफ जस्टिस एनवी रमना ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि राजद्रोह कानून के मामले में कोर्ट ने नौ महीने पहले नोटिस जारी किया था। सरकार ने अब हलफनामा दिया है। आखिर आप कितना समय लेंगे? 



  • राजद्रोह के जो केस लंबित हैं और भविष्य में जो केस दर्ज किए जाने वाले हैं, उन पर अपना रुख स्पष्ट करें। 


  • जब तक केंद्र सरकार राजद्रोह कानून पर दोबारा विचार कर रही है। तब तक इस कानून को स्थगित क्यों नहीं रखा जा सकता? 




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