Bangladesh Sheikh Hasina Story: कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है। बांग्लादेश में भी आज यही हो रहा है। कई दिनों से ढाका में हिंसा का दौर जारी है। 5 अगस्त को स्थिति यह हो गई कि, प्रदर्शनकारी पीएम आवास में घुस आए और सेना और पुलिस ने कोई विरोध नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि, शेख हसीना को पीएम पद से इस्तीफा देकर अपनी बहन के साथ अपना ही देश छोड़कर जाना पड़ा। खैर निर्वासन शेख हसीना के लिए कोई नई बात नहीं है। पिता की हत्या के बाद कई साल उन्होंने पहचान छुपाकर भारत में बिताए। उनकी कहानी तमाम उतार चढ़ाव से भरी हुई है। आइए जानते हैं सत्ता के शिखर से निर्वासन तक शेख हसीना की पूरी कहानी...।
पाकिस्तान में जन्मी थी शेख हसीना :
28 सितम्बर साल 1947 को पाकिस्तान के पूर्वी भाग में तुंगीपारा में शेख मुजीबुर्रहमान और बेगम फजीलतुन्नेस मुजीब के घर एक बेटी का जन्म हुआ। शेख मुजीबुर्रहमान का बांग्लादेश के इतिहास में बहुत बड़ा योगदान है। यह कहना कि, 'शेख मुजीबुर्रहमान न होते तो दुनिया के नक्शे पर आज एक देश कम होता' कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनकी कहानी भी हम आपको बताएंगे पहले जानते हैं शेख हसीना के प्रारंभिक जीवन के बारे में।
शेख हसीना को बिरले ही कभी पिता का प्यार मिला था। इसका ये मतलब न निकाला जाए कि, उनके पिता कोई रूढ़िवादी थे बल्कि वे तो एक सुधारवादी - राष्ट्रवादी नेता थे। उनका अधिकांश जीवन जेल में सजा काटते ही बीत गया। किसी रूढ़िवादी समाज में पिछड़े नागरिकों के अधिकारों की बात करने वाले को यही पुरस्कार मिलता है। उनकी बेटी की परवरिश मां और दादी ने मिलकर की थी।
शेख हसीना ने तुंगीपारा के एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षा ली। इसके बाद वे अपने परिवार के साथ ढाका चलीं गईं। ढाका में अजीमपुर गर्ल्स स्कूल में उन्होंने आगे की पढ़ाई की। बता दें कि, पिता से दूर होकर भी वे सबसे ज्यादा उन्ही से प्रभावित थीं। जब कभी शेख मुजीबुर्रहमान जेल से रिहा होकर आते तो शेख हसीना घंटों बैठकर उनसे देश की स्थिति के बारे में जाना करती थीं। ये शेख मुजीबुर्रहमान के विचारों और नैतिक शिक्षा का ही असर था कि, वे राजनीति में आने के लिए प्रेरित हुईं।
शेख हसीना का राजनीति में पहला कदम :
शेख हसीना के राजनीतिक जीवन की शुरुआत तभी हो गई थी जब उन्हें ईडन कॉलेज में छात्र संघ का उपाध्यक्ष चुना गया। ईडन कॉलेज से स्नातक की डिग्री पूरी कर उन्होंने ढाका यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया। उन्होंने यहाँ से बंगाली साहित्य का अध्ययन किया। ढाका यूनिवर्सिटी में शेख हसीना को स्टूडेंट लीग की महिला विंग का महासचिव चुना गया। इसके बाद साल 1967 में शेख हसीना ईडन कॉलेज से ग्रेजुएट हुईं। शेख हसीना का विवाह न्यूक्लियर वैज्ञानिक एमए वाजिद मियां से कराया गया। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई और राजनीति में सक्रियता जारी रखी। 1970 का दशक पकिस्तान के लिए काफी उथल - पुथल का समय था। इसका श्रेय जाता है शेख हसीना के पिता शेख मुजीबुर्रहमान को। अब शेख हसीना की आगे की कहानी जानने से पहले शेख मुजीबुर्रहमान के बारे में जानना जरूरी है।
शेख मुजीबुर्रहमान की कहानी जेल - संघर्ष और फिर जेल की है। वे पूर्वी पकिस्तान में पाकिस्तान की सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार और पश्चिम पाकिस्तान के नेताओं द्वारा की जा रही उपेक्षाओं से त्रस्त हो चुके थे। 1969 तक स्थिति यह हो गई कि, पाकिस्तान से अलग देश 'बांग्लादेश' बनाए जाने की मांग उठने लगी। पूर्वी पाकिस्तान में कई आंदोलन चलाए गए। इन सभी की अगुवाई कर रहे थे शेख मुजीबुर्रहमान। पाकिस्तान द्वारा उन्हें लंबे समय तक जेल में रखा गया लेकिन जितना ज्यादा उन्हें दबाया गया पूर्वी पाकिस्तान में वे उतने मजबूत होते गए। अंततः 26 मार्च 1971 से बांग्लादेश मुक्ति युद्ध शुरू हुआ। जो 16 दिसंबर साल 1971 को बांग्लादेश के जन्म के साथ समाप्त हुआ। इसके बाद बांग्लादेश की कमान शेख मुजीबुर्रहमान के हाथों में आ गई।
अब तक ये कहानी ठीक - ठीक ट्रेक पर ही थी, लेकिन जल्द ही कहानी में बड़े उतार चढ़ाव आने वाले वाले थे। साल 1975 में 15 अगस्त को भारत में स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा था लेकिन पड़ोसी देश बांग्लादेश में साजिशें रची जा रही थीं। ये साजिश थी तख्ता पलट की। ढाका के धनमोड़ी 32 (Dhanmodi 32) में सुबह अचानक गोलियों की आवाज सुनाई दी। धनमोड़ी 32 शेख मुजीबुर्रहमान के घर का पता था। शेख मुजीबुर्रहमान उस समय बांग्लादेश के राष्ट्रपति थे। गोलियों की आवाज सुनने के बाद शेख मुजीबुर्रहमान ने खुद को परिवार समेत एक कमरे में बंद कर लिया था लेकिन जो लोग गोली चला रहे थे वे कमरे के दरवाजे तोड़ना जानते थे।
धनमोड़ी 32 में डर और भय का माहौल था। यहां जो होने वाला था उसका असर बांग्लादेश पर सालों तक पड़ने वाला था। धनमोड़ी 32 में अचानक गोलियों की आवाज आना जब बंद हो गई तो मुजीबुर्रहमान ने हिम्मत दिखाई कमरे से बाहर आए। जैसे ही वे बाहर आए उनके सामने दो नौजवान बन्दूक लिए खड़े थे। मुजीबुर्रहमान ने उनसे पूछा कि, तुम्हें क्या चाहिए? लेकिन सामने से कोई जवाब नहीं मिला...। शेख मुजीबुर्रहमान को बाहर लाया गया सामने से बंदूक लिए एक व्यक्ति आगे बढ़ा और तब तक गोलियां चलाई जब तक शेख मुजीबुर्रहमान की मौत हो न गई। शेख मुजीबुर्रहमान पर करीब 18 गोलियां दागी गई थी। इस बात की पुष्टि की गई कि, शेख मुजीबुर्रहमान में थोड़ी से भी जान बाकी न रह जाए।
15 अगस्त 1975 को बांग्लादेश के बंगबंधु कहे जाने वाले मुजीबुर्रहमान का परिवार समेत नामोनिशान मिटा दिया गया। जिन्होंने बांग्लादेश की आजादी के लिए अपने जीवन का अधिकांश समय जेल में बिता दिया उस व्यक्ति की निर्मम हत्या कर दी गई। अभी इस कहानी में एक पात्र ऐसा है जिसकी सांसे अब भी चल रही थी। वे कोई और नहीं बल्कि शेख मुजीबुर्रहमान की बड़ी बेटी शेख हसीना थीं। उनके साथ उनकी बहन भी जिंदा थी। वैसे तो शेख मुजीबुर्रहमान के पूरे परिवार का नामोनिशान मिटाना था लेकिन ऐसा नहीं हो सका। किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।
फोन पर मिली पिता की मौत की खबर :
शेख मुजीबुर्रहमान की मौत हो चुकी थी। उनके साथ - साथ परिवार के अन्य सदस्यों को भी गोलियों से भून दिया गया था। इस बात से शेख हसीना अनजान थी क्योंकि वे और उनकी बहन जर्मनी में थे। उन्हें फोन पर पता चला कि, उनके पिता की और परिवार के एक - सदस्य की गोलियों से भूनकर हत्या कर दी गई है। इस खबर ने शेख हसीना को हिलाकर रख दिया था। अचानक उन्हें पिता के साथ बिताए आखिरी पल याद आने लगे।
जब बांग्लादेश बन गया, परिवार में सुख - शांति आई तो शेख हसीना ने अपने निजी जीवन पर ध्यान देना शुरू किया। उनके पति वैज्ञानिक थे। उन्हें जर्मनी जाना था। शेख हसीना ने तय किया था कि, अब वे अपने परिवार के साथ अपना समय बिताएंगी। साल 1975 के जुलाई महीने में शेख हसीना जर्मनी चली गई। उन्हें छोड़ने के लिए उनका पूरा परिवार आया था। विदाई के लिए पूरा परिवार उन्हें छोड़ने एयरपोर्ट आया। उन्हें क्या पता था कि, ये आखिरी मुलाकात है। इसके बाद संघर्ष का एक दूसरा दौर शुरू होने को था।
हजारों किलोमीटर दूर बैठीं शेख हसीना को जब यादों से बाहर आई तो खुदको असहाय पाया। बांग्लादेश में तख्तापलट हो चुका था अब न तो परिवार रह गया था न सिर छुपाने को छत। उन्हें तो उनके पिता के अंतिम दर्शन भी नहीं हुए। किसी ने नहीं सोचा था कि, शेख मुजीबुर्रहमान की ऐसे हत्या कर दी जाएगी।
भारत ने बढ़ाया था मदद का हाथ :
शेख हसीना और उनकी बहन को जान का ख़तरा था। ऐसे में मदद सिर्फ एक देश कर सकता था - भारत। शेख हसीना अपने पूरे परिवार को लेकर दिल्ली पहुंच गई। शेख मुजीबुर्रहमान की मौत के बाद अस्तित्व के संकट का सामना कर रहीं शेख हसीना को तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत में शरण लेने के लिए बुलाया था। दिल्ली के लाजपत नगर की रिंग रोड के पंधारा पार्क के पास एक घर में कड़ी सुरक्षा के बीच शेख हसीना और उनके परिवार को रखा गया। भारत में 6 साल तक शेख हसीना अपना नाम और पहचान बदलकर रहीं।
शेख हसीना बांग्लादेश में एंट्री नहीं कर सकती थीं क्योंकि उन पर बैन लगा था। गुमनामी में लम्बा वक्त बिताने के बाद उन्होंने फैसला लिया देश वापसी का। बांग्लादेश में जियाउर रहमान की अगुवाई में सैन्य शासन चल रहा था। शेख हसीना ने बांग्लादेदश के लिए आवाज उठाई। साल 1981 में भारत में ही रहते हुए उन्हें अवामी लीग का अध्यक्ष चुना गया। इस पार्टी की स्थापना उन्ही के पिता ने की थी। वक्त करवट ले रहा था। बांग्लादेश में हसीना की वापसी होने वाली थी।
अवामी लीग का अध्यक्ष बनने के बाद साल 1981 में वे बांग्लादेश लौट गईं। शेख हसीना 6 साल बाद अपने देश लौटी थीं। भारी भीड़ उनके स्वागत के लिए पहुँची। देश लौटने के कुछ समय के बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। शेख हसीना पर तरह - तरह के करप्शन चार्ज लगाए गए। साल 1981 से लेकर 1985 तक अलग - अलग मामलों में कभी उन्हें नजरअंदाज तो कभी गिरफ्तार किया गया। इधर बाहरी ताकतें बांग्लादेश में चुनाव के लिए दबाव बना रही
साल 1986 में ढाका में चुनाव की तारीखों का ऐलान हुआ। चुनाव के कुछ समय पहले ही शेख हसीना को जेल से रिहा किया गया था। शेख हसीना के नेतृत्व में आवामी लीग ने 100 सीटें हासिल की। बहुमत का आंकड़ा नहीं मिल पाया तो शेख हसीना को विपक्ष में बैठना पड़ा। ये चुनाव मार्शल लॉ के अंतर्गत कराए गए थे। इस चुनाव में हिस्सा लेने के लिए शेख हसीना की आलोचना भी की जाती है।
19 बार हत्या के प्रयास :
एक रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश में शेख हसीना को मारने के लिए 19 बार प्रयास किये गए। कभी किस्मत तो कभी समर्थकों के कारण वे हर बार बच जाती थीं। कई हमलों में अवामी लीग पार्टी के कार्यकर्ता और नेता मारे गए। 1988 में शेख हसीना चिटगांव में चुनावी रैली के लिए गई थीं। उनकी कार में बम प्लांट कर दिया गया था। जिस समय उन्हें यह जानकारी मिली वो कार में ही थीं। शेख हसीना बच गईं लेकिन इस हमले में करीब 80 लोगों की जान गई।
साल 1991, बांग्लादेश में दोबारा चुनाव कराए गए। इस चुनाव में शेख हसीना को जीत की उम्मीद थी लेकिन बीएनपी को सामान्य बहुमत मिला। शेख हसीना ने आवामी लीग के अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश की लेकिन पार्टी के अन्य नेताओं ने उन्हें इस्तीफ़ा नहीं देने दिया। हार के बाद शेख हसीना ने विपक्ष में बैठना स्वीकार किया।
...जब पहली बार प्रधानमंत्री बनीं शेख हसीना :
बांग्लादेश में साल 1996 में आम चुनाव हुए। शेख हसीना पहली बार बांग्लादेश की प्रधानंमंत्री बनी। उनका यह कार्यकाल बांग्लादेश और भारत के लिए बेहतर संबंधों की शुरुआत था। इसके बाद 2001 में चुनाव हुए और अवामी लीग हार गई। बीएनपी ने बांग्लादेश में सरकार बनाई। शेख हसीना ने केयर टेकर गवर्नमेंट पर ठीक तरह से चुनाव न करवाने का आरोप लगाया।
15 दिन का देश निकाला :
शेख हसीना अमेरिका की यात्रा के लिए गई थीं। इसी दौरान उनपर देश में प्रवेश करने से रोक लगा दी गई। शेख हसीना ने करीब 15 दिन अमेरिका में बिताए। बढ़ते दबाव के चलते बीएनपी को शेख हसीना से बैन हटाना पड़ा। फिर जब शेख हसीना लौटीं तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हसीना एयरपोर्ट पर पहुँची तो भीड़ ने गर्म जोशी से उनका स्वागत किया। यह समय बिलकुल वैसा ही था जब शेख हसीना भारत से बांग्लादेश लौटी थीं।
सालों से सत्ता पर काबिज़ :
शेख हसीना साल 2009 में हुए चुनाव में विजयी हुई। इसके बाद 2014 फिर 2019 और 2024 में वे दोबारा सत्ता में लौट आई। बांग्लादेश में प्रमुख विपक्षी पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था और मतदान प्रतिशत भी कुछ कम रहा लेकिन आवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिला था। बावजूद इसके उनकी सरकार गिर गई और अब वे दोबारा निर्वासित कर दी गईं हैं।
लोग सवाल उठा रहे हैं कि, शेख हसीना भारत की दोस्त रहीं हैं, क्या इससे सब माफ हो जाता है? दरअसल इस बार निर्वासन के लिए बहुत कुछ हद तक हसीना स्वयं जिम्मेदार हैं। लोकतंत्र को विपक्ष विहीन कर देना, छात्रों पर गाड़ियां चढ़वा देना, गोलियों से भून डालना, किस हद तक सही है ? उन पर स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर कोटा देकर अपने लोगों को नौकरियां देने का आरोप लगा। विरोध होने पर उन्होंने प्रदर्शनकारियों को एंटीनेशनल कह दिया फिर क्रूरता की हदों को पार कर दमन चक्र चलाया।
लोकतंत्र के लिए लड़ने वाले शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी का यूं तानाशाहों की तरह सरकार चलना किस हद तक सही था। अगर प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलियां न चलाकर सुलह की कोशिश की जाती तो शायद हालात इतने खराब नहीं होते। खैर, अब बांग्लादेश को दोबारा शांति के लिए लंबा संघर्ष करना है। इस बार कितने वर्षों तक बदनसीबी झेलनी होगी यह तो आने वाला वक्त बताएगा।
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