पटना हाईकोर्ट ने बिहार में सरकारी नौकरी और उच्च शैक्षणिक संस्थानों के दाखिले में आरक्षण बढ़ाकर 65 प्रतिशत करने वाले बिहार आरक्षण कानून को समानता विरोधी बताकर रद्द कर दिया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ( Chief Minister Nitish Kumar ) की महागठबंधन सरकार ने जाति आधारित सर्वेक्षण की रिपोर्ट के आधार पर ईबीसी, ओबीसी, दलित और आदिवासियों का आरक्षण बढ़ाकर 65 परसेंट कर दिया था।
कोर्ट ने बताया अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लघंन
आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों ( सवर्ण ) को मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण को मिलाकर बिहार में नौकरी और दाखिले का कोटा बढ़कर 75 प्रतिशत पर पहुंच गया था। कई संगठनों ने हाईकोर्ट में बिहार आरक्षण कानून को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली दो जजों की बेंच ने बिहार आरक्षण कानून को संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के खिलाफ बताते हुए रद्द कर दिया है।
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— TheSootr (@TheSootr) June 20, 2024
7 नवंबर 2023 को पारित हुआ था विधेयक
नीतीश की पुरानी कैबिनेट ने बिहार के जाति आधारित सर्वेक्षण की रिपोर्ट के आधार पर 7 नवंबर को कोटा बढ़ाने का फैसला लेकर विधानसभा में विधेयक पेश किया था। इसके जरिए ओबीसी आरक्षण 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत, ईबीसी का कोटा 18 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी, एससी का आरक्षण 16 परसेंट से बढ़ाकर 20 परसेंट और एसटी का आरक्षण 1 परसेंट से बढ़ाकर 2 परसेंट करने का प्रस्ताव था। विधानसभा से यह विधेयक 9 नवंबर को पास हो गया। 21 नवंबर को राज्यपाल की मंजूरी के बाद इस विधेयक ने कानून का रूप ले लिया और यह पूरे राज्य में लागू हो गया।
बिहार में 75 प्रतिशत आरक्षण !
नीतीश कुमार महागठबंधन में रहते हुए और एनडीए में लौटने के बाद भी लगातार बिहार आरक्षण कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डालने की मांग केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से कर रहे थे। इस अनुसूची में डाले गए कानून की आम तौर पर न्यायिक समीक्षा नहीं होती और उसे कोई अदालत में चुनौती नहीं दे पाता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने नौवीं अनुसूची में किसी कानून को डालने को भी अपने समीक्षा के दायरे में बता रखा है। बिहार के आरक्षण कानून को नौवीं अनुसूची में नहीं डाला गया है इसलिए इस पर अदालती डंडा चल गया है।
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