/sootr/media/media_files/2024/12/03/SQBvMzzrY9K3NE4CN2pp.jpg)
नाच यानी डांस वैसे तो खुशी के मौके पर किया जाता है, किसी शादी या कार्यक्रम में नाच कर खुशी जताई जाती है। लेकिन बिहार में किसी की मौत, मातम के बीच नाच किया जाता है। घर में हुई मौत पर भी लोग हर्ष फायरिंग कर देते हैं। यह चौंकाने वाली परंपरा बिहार के कई स्थानों पर निभाई जा रही है, जिसमें मृत्यु के मौके पर भी नाच-गाना आयोजित किया जाता है। इसे 'बाईजी का नाच' कहा जाता है, जो पहले शादियों और अन्य खुशी के अवसरों पर ही होता था, अब मृत्यु या श्राद्ध कर्म के अवसर पर भी किया जाने लगा है। यह परंपरा अब कुछ इलाकों में एक ट्रेंड के रूप में उभर रही है।
शव यात्रा या श्राद्ध में नाचती हैं डांसर
बिहार के भोजपुर, औरंगाबाद, रोहतास समेत कई जिलों में मौत के मातम के बीच डांस करवाने का यह चलन तेजी बढ़ रहा है, जिसमें शव यात्रा या श्राद्ध कार्यक्रम में नाच का आयोजन किया जाता है। किसी व्यक्ति या बुजुर्ग की मौत होने पर शवयात्रा में बैंड बाजा बजाए जाने परंपरा पहले भी रही है, लेकिन नाच करने यह चलन अपेक्षाकृत नया है। इसके लिए महिला डांसर को बुलाया जाता है। वह डांस परफार्म करती हैं। अब तो शादी या किसी खुशी के मौके की तरह ही इन श्राद्ध कार्यक्रमों में फायरिंग भी होने लगी है।
मौत पर 'बाईजी का नाच' का चलन
डांस करने युवतियों की मानें तो मृत्यु पर नाच 'बाईजी का नाच' लोगों को चौंकाने वाला लग सकता है, लेकिन बिहार के कई हिस्सों में यह ट्रेंड तेजी से बढ़ रहा है। नाचने वाली डांसरों का कहना है कि वे दोनों ही शादियों और मृत्यु पर एक जैसे नाच करती हैं। डांसर शादी, तिलक, मुंडन, जन्मदिन के साथ ही अब मौत होने पर भी नाचती हैं।
मौत हो या शादी... सभी में एक जैसा डांस
पटना की डांसर बताती है कि जब वह 15 साल की थी तो उसने शादियों में डांस करना शुरू कर दिया था, वह कहती हैं कि बीते कुछ साल से उन्हें किसी के घर मौत होने पर नाचने के लिए बुलाया जाने लगा है। मरनी (मौत) हो या शादी समारोह सभी में एक जैसे ही डांस पड़ता है। आगे बताया कि उन्हें एक रात के 6 हजार रुपए तक मिलते है, रात में हिंदी और भोजपुरी गानों पर नाच करना होता है। नाचने वाली इन लड़कियों से कार्यक्रम करवाने वाले लहंगा चोली या छोटे कपड़े में आने की डिमांड करते हैं। पैसे देने के बहाने लड़कियों को गोद में बैठाते हैं।
जाति के हिसाब से तय होते हैं गाने
डांसर का कहना है कि चाहे वह श्राद्ध कार्यक्रम हो या शादी, गाने और डांस जाति के आधार पर निर्धारित होते हैं। जाति के लोग अक्सर अपने समुदाय के कलाकारों से ही गीत और नृत्य करवाते हैं, जो उनके समाजिक पहचान और सांस्कृतिक प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं।
श्राद्ध कार्यक्रम में भी हर्ष फायरिंग
सबसे हैरान करने वाली बात यह भी है कि जब दुख जताने के श्राद्ध कार्यक्रम में भी हर्ष फायरिंग होने लगी है। हाल ही में नालंदा में श्राद्ध कर्म में आयोजित ‘बाईजी के नाच’ के दौरान फायरिंग के दौरान गोली लगने से एक युवक की मौत हो गई थी। श्राद्ध पर आयोजित डांस कार्यक्रमों के कई वायरल वीडियो होते हैं, जिसमें लोग या डांसर्स हाथ में बंदूक लिए नाच करती दिख जाती हैं।
सामाजिक ताकत और रुतबे का प्रदर्शन
इस फायरिंग को अब सामाजिक ताकत और रुतबे के प्रदर्शन के रूप में देखा जा रहा है, जो समाज में अपनी स्थिति को साबित करने का तरीका बन गया है। इस परंपरा को लेकर डांसरों का कहना है कि पहले उन्हें इस तरह की स्थिति में डर लगता था, लेकिन अब उन्हें इसमें कोई डर नहीं होता। कई डांसरों का मानना है कि अगर उनके कार्यक्रम में गोलीबारी नहीं होती तो उनका डांस अधूरा सा लगता है।
मातम पर फायरिंग की नई परिपाटी
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेंद्र का कहना है कि राज्य जिस तरह से किसी सम्मानित हस्ती की मौत पर फायरिंग करके उसका सम्मान व्यक्त करता है, उसी तरह लोग अपने परिजनों के लिए और ताकत के प्रदर्शन के लिए फायरिंग कर रहे हैं। यह एक तरह से राज्य की नकल है। खुशी के मौके पर फायरिंग होते रही है, लेकिन किसी की मौत के मातम पर फायरिंग नई परिपाटी है।
क्या कहते हैं जानकार
नाच की परंपरा भारतीय लोक परंपराओं का हिस्सा नहीं मानी जाती। यदि हम मृत्यु और उसके बाद के विधि-विधान पर नजर डालें, तो पारंपरिक रूप से मृत्यु के समय गाने और रुदन गीतों की परंपरा रही है, न कि नृत्य की।
उत्तर प्रदेश के पीजी गाजीपुर कॉलेज के शिक्षक और भोजपुरी श्रम लोकगीतों में जंतसार जैसे किताबों के लेखक राम नारायण तिवारी का कहना है, "मृत्यु के साथ तीन प्रमुख प्रकार के गीत परंपरा में हैं, मृत्यु गीत, निर्गुण गीत और श्री नारायणी। इसके अलावा, जो महिलाएं मृत्यु के वक्त कुछ शब्दों के साथ रोती हैं, वह रुदन गीत कहलाता है।" वे यह भी बताते हैं कि मृत्यु के कर्म के दौरान नृत्य का निषेध किया गया है।
उनके अनुसार, पारंपरिक मृत्यु गीतों में ग्लानि, करुणा और शांत रस होता है, जो शोक और सम्मान का प्रतीक होता है। मगर, जो आजकल मृत्यु से जुड़े कार्यक्रमों में नृत्य किया जा रहा है, उसमें एक छिपी हुई विलासिता और जातीय ताकत का प्रदर्शन नजर आता है। यह परंपरा भारतीय समाज की सहकारी और सामूहिकता की नींव को तोड़कर एकाकीकरण और व्यक्तिगत ताकत को बढ़ावा दे रही है। इस प्रकार, यह परंपरा न केवल लोक संस्कृतियों से मेल नहीं खाती, बल्कि यह समाज के मूल्य और उसकी सामूहिकता को भी प्रभावित कर रही है।
मृत्यु पर दुगोला गायन
वरिष्ठ पत्रकार और बिहार की संस्कृति के विशेषज्ञ निराला बिदेसिया का कहना है कि पिछले 30 सालों में दुगोला गायन मृत्यु के अवसर पर भी होने लगा है। अगर आप यूट्यूब पर इन गानों की रिकॉर्डिंग्स देखें, तो अक्सर उनके साथ श्राद्ध कर्म का पोस्टर नजर आता है, और गाने में अश्लीलता और लड़कियों के नाचने की परंपरा भी शामिल हो गई है।
दुगोला एक खास प्रकार का गायन है, जो विशेष रूप से सामूहिक रूप में किया जाता है। इसमें दो या दो से अधिक समूह होते हैं, और यह आशु कवि द्वारा किया जाता है, यानी जो तुरंत मौके पर कविता या गीत रचते हैं। इस गायन की शुरुआत में धार्मिक या सामाजिक प्रसंगों का गायन होता था, लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव आया है। आजकल दुगोला में जातिवादी तंजों की अधिकता देखी जाती है।
thesootr links
- मध्य प्रदेश की खबरें पढ़ने यहां क्लिक करें
- छत्तीसगढ़ की खबरें पढ़ने यहां क्लिक करें
- रोचक वेब स्टोरीज देखने के लिए करें क्लिक