UCC लागू नहीं हुआ तो हक में बराबरी लाने के लिए 6 कानूनों में करना पड़ेगा बदलाव, जानें वजह और यूनिफॉर्म सिविल कोड जरूरी क्यों?

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Pratibha Rana
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UCC लागू नहीं हुआ तो हक में बराबरी लाने के लिए 6 कानूनों में करना पड़ेगा बदलाव, जानें वजह और यूनिफॉर्म सिविल कोड जरूरी क्यों?

New Delhi. समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) यानी UCC पर आजकल राजनीति गर्मा गई है। विपक्षी दल कांग्रेस पिछले विधि आयोग के परामर्श पत्र को आधार बनाकर तर्क रख रही है कि उसने इसे गैर जरूरी बताया था, लेकिन ये नहीं बताया जा रहा है कि पिछले विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता को गैर जरूरी बताते हुए किन-किन कानूनों में संशोधन की बात कही थी। यदि पिछले विधि आयोग के परामर्श पत्र को ध्यान से देखा जाए तो मुस्लिम पर्सनल लॉ के कई खंडों को संहिताबद्ध करने के साथ ही शादी, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि से संबंधित आधा दर्जन कानूनों में संशोधन का सुझाव दिया गया था, ताकि अधिकारों में बराबरी लाई जा सके।





UCC की इसलिए जरूरत





पिछले विधि आयोग ने माना है कि विभिन्न पर्सनल लॉ जैसे हिंदू लॉ, मुस्लिम लॉ, ईसाई, पारसी, सिख आदि के कानूनों में महिलाओं के साथ काफी भेदभाव है। इसके अलावा इन कानूनों में कई तरह के अंतर हैं, जिन्हें ठीक करने और सभी के अधिकारों को बराबरी पर लाने के लिए इनमें संशोधन की जरूरत है। जैसे कि व्यभिचार को ही देखा जाए तो हिंदू और क्रिश्चियन लॉ में एडल्टरी तलाक का एक आधार है, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ में एडल्टरी तलाक का आधार नहीं है। 





तलाक : प्रविधान पति-पत्नी दोनों के लिए समान रूप से हो





विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि मुस्लिम विवाह विच्छेद कानून 1939 में संशोधन कर एडल्टरी (व्यभिचार) को महिला-पुरुष दोनों के लिए तलाक के आधार के तौर पर जोड़ा जाए। पिछले विधि आयोग ने कहा था कि सभी परिवार कानूनों में एडल्टरी तलाक का आधार हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि यह प्रविधान पति-पत्नी दोनों के लिए समान रूप से हो।





उत्तराधिकार : माता-पिता की स्वअर्जित संपत्ति में अधिकार 





बच्चों के उत्तराधिकार विशेषकर अवैध संतान के माता-पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार को लेकर भी पिछले विधि आयोग ने काफी जोर दिया है। आयोग ने लिव इन के दौरान पैदा होने वाली संतानों के माता-पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार संरक्षित करने के लिए संसद को सुझाव दिया है। ऐसे बच्चों को माता-पिता की स्वअर्जित संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार देने का कानून बनाया जाए। इसके अलावा आयोग ने परामर्श पत्र में इंडियन डाइवोर्स एक्ट 1869 की धारा-21 में उचित संशोधन कर शून्य घोषित शादियों से उत्पन्न सभी बच्चों को माता-पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार का अधिकार दिए जाने का सुझाव दिया था। विधि आयोग ने इस संबंध में कोई सेक्युलर केंद्रीय कानून न होने का जिक्र भी किया था।





मुस्लिम उत्तराधिकार कानून को संहिताबद्ध करने का भी सुझाव 





विधि आयोग ने मुस्लिम उत्तराधिकार कानून को संहिताबद्ध करने का भी सुझाव दिया था, ताकि जो अंतर और भेदभाव है वो खत्म हो और शिया सुन्नी सबके लिए समान व्यवस्था लागू हो। ये भी सुझाव दिया था कि उत्तराधिकार की श्रेणी तय करते वक्त मृतक से संबंध को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। कहा गया था कि क्लास वन की श्रेणी में जीवन साथी यानी पत्नी को शामिल किया जाना चाहिए। और इसमें मृतक के माता- पिता व बेटा- बेटी शामिल किए जाएं। उत्तराधिकार की कई श्रेणियां बताई थीं। आयोग ने विशेष विवाह अधिनियम में शादी पंजीकरण से पहले 30 दिन के नोटिस के नियम में भी संशोधन का सुझाव दिया था।





कई धर्मों में गोद लेने को पूरी तरह मान्यता नहीं





गोद लेने के कानून को देखा जाए तो मुस्लिम, ईसाई, पारसी और यहूदी पर्सनल लॉ में गोद लेने को पूरी तरह मान्यता नहीं दी गई है। इस्लाम में गोद लेने का नियम नहीं है। इसलिए, गोद लिए बच्चे को जैविक बच्चे की तरह संपत्ति पर उत्तराधिकार नहीं मिल सकता। हालांकि, हिंदुओं के लिए गोद लेना और भरण पोषण कानून 1956 है।





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बाल विवाह कानून की ओर ध्यान खींचा 





पिछले विधि आयोग ने हिंदू माइनारिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट 1956 के प्रविधानों में कुछ अनियमितताओं की ओर भी ध्यान आकर्षित किया था। उसे ठीक करने की बात कही है। मुस्लिम लॉ में गार्जियनशिप को लेकर भेद पर भी चर्चा की गई है। बाल विवाह कानून की ओर भी ध्यान खींचा गया है। मुस्लिम लॉ को संहिताबद्ध करने पर पिछले विधि आयोग ने लिखा है कि 1960 में इसका प्रयास हुआ था और इसके लिए मुस्लिम लॉ कमेटी गठित करने का प्रस्ताव भी आया था लेकिन, विरोध के कारण बाद में इस प्रस्ताव को छोड़ दिया गया। 





तत्कालीन कानून मंत्री ने बताई थी UCC की जरूरत





तत्कालीन कानून मंत्री एके सेन ने संसद में इस पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा था कि अभी कमेटी की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा और भी कानूनों में संशोधन के सुझाव पिछले विधि आयोग के थे। ऐसे में देखा जाए तो समान नागरिक संहिता यदि नहीं लागू की जाती है तो अधिकारों में समानता लाने के लिए अलग-अलग लागू कानूनों में बहुत संशोधन करना होगा जो कि कम बड़ी कवायद नहीं है। 



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