जनतंत्र में शासन जनता द्वारा जनता के लिए न रहकर दल द्वारा दल के लिए होने पर जन्म लेता है असंतोष और आक्रोश

author-image
Rahul Garhwal
New Update
जनतंत्र में शासन जनता द्वारा जनता के लिए न रहकर दल द्वारा दल के लिए होने पर जन्म लेता है असंतोष और आक्रोश

वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के संदर्भ में अमेरिकन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को उद्घृत करते हुए कहा जाता है कि ‘जनतंत्र जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता का शासन है।’ सिद्धान्ततः यह कथन आंशिक रूप से सत्य भी है क्योंकि इसमें जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनता के लिए कल्याणकारी योजनाएं क्रियान्वित करते हैं। इस दृष्टि से समस्त शासन व्यवस्थाओं में यह व्यवस्था सर्वोत्तम भी है और इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमने इस व्यवस्था को चुना, किन्तु आज हमारे लोकतंत्र में बढ़ती अविवेकपूर्ण एवं अनुत्तरदायित्व भरी कार्यशैली, जनमन में बढ़ता असंतोष जनित आक्रोश और यत्र-तत्र घटित अराजकतायुक्त दुर्घटनाएं विश्व के इस विशालतम लोकतंत्र के समक्ष अनेक यक्षप्रश्न उपस्थित कर रही हैं। भारतीय गणतंत्र की इस अड़सठवीं वर्षगांठ पर इस संदर्भ में गंभीर और विस्तृत विमर्श अपेक्षित है।

जनता में कब जन्म लेता है असंतोष और आक्रोश

सैद्धान्तिक रूप से जनतंत्र में व्याख्यायित ‘जनता’ एक इकाई है। जनतंत्र की उपर्युक्त लिंकन कृत परिभाषा से ध्वनित होता है कि एक इकाई के रूप में संगठित जनता सम्पूर्ण समाज में से सर्वसम्मति से सुयोग्य नेतृत्व का चयन कर जनकल्याण का पथ प्रशस्त करती है, किन्तु व्यावहारिक रुप से जनतंत्र में प्रयुक्त जनता एक इकाई नहीं होती। वह अनेक विचारधाराओं, दलों और धर्म-क्षेत्र-जाति-भाषा-व्यवसाय आदि की संकीर्णताओं में बंधे छोटे-छोटे समूहों का समुच्चय होती है, जो मनुष्यता और राष्ट्रीयता की उदार एवं समावेशी हितग्राहिता को हाशिए पर डालकर सत्ता हथियाने की दलीय प्रतिबद्धता के प्रति दुराग्रह प्रकट करती है। निजी निहित स्वार्थों के लिए सचेष्ट ये संकीर्ण समूह परस्पर कीचड़ उछालते हुए सत्ता के गलियारों में आधिपत्य के लिए निरन्तर संघर्ष करते हैं। इसलिए जनतंत्र में शासन ‘जनता द्वारा जनता के लिए’ न रहकर ‘दल द्वारा दल के लिए’ हो जाता है और इसी कारण जनता में असन्तोष और आक्रोश जन्म लेता है। जनतंत्र की उदार दृष्टि दलीय महत्वाकांक्षाओं के दलदल में धंसकर जनकल्याण से दूर चली जाती है।

सत्ता हथियाने के लिए कूट रचना

सत्ताधारी दल जनकल्याण के नाम पर प्रचारित योजनाओं के माध्यम से अपनी भावी चुनावी विजय की रूपरेखा रचता है, वोट-बैंक तैयार करता है और राष्ट्रीय-हितों के नाम पर दलीय-हितों के साधन में अपनी ऊर्जा नियोजित करता है। विपक्षी दल भी उचित-अनुचित का विचार किए बिना सत्ता हथियाने के लिए हर संभव कूट रचना रचते रहते हैं। भारतीय जनतंत्र की लगभग 7 दशक लंबी यात्रा इस विडंबना की साक्षी है। गत शताब्दी के आठवें दशक में घटित जनता पार्टी का उद्भव और पराभव इस तथ्य का ज्वलन्त प्रमाण है।

वास्तविक अर्थ खो रहा जनतंत्र

मनुष्य की प्रकृति सामन्तवादी है। वह शासन करना चाहता है। औरों को अपने अधीन अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। परिवार का मुखिया, संस्था का प्रमुख, संगठन का नेता, सब वर्चस्व चाहते हैं और इस वर्चस्व कामना में निहित ‘राजस’ भाव स्वयं के लिए एवं अपने जाति-वर्ग के लिए सुख-सुविधाएं जुटाने का उद्यम करता है। राजतंत्र में राजा लोग अपने लिए, अपने राजपरिवार के लिए, अपने पक्ष के सामन्तों-सरदारों आदि के लिए सुख-सुविधाएं जुटाते थे और जनता के हितों की उपेक्षा करते थे। वर्तमान जनतंत्र में भी यही दुष्प्रवृत्ति दूर-दूर तक दिखाई देती है। भाई-भतीजावाद, वंशवाद, वोट बैंक सुदृढ़ करने की मानसिकता, जनता की गाढ़ी कमाई पर ऐश करने की ऐसी ही दुरभिलाषाओं के कारण आज हमारा जनतंत्र अपना वास्तविक अर्थ खोकर असंतोष और अराजकता की ओर अग्रसर हो रहा है।

सामन्ती प्रवृत्ति को समझने में हुई देरी

संज्ञा बदल जाने से स्वभाव नहीं बदल जाता। इसी प्रकार सामन्ती मानसिकता भी जनतांत्रिक संज्ञा धारण करने से नहीं बदल सकती। अभावों और संकटों से जूझते ऋणग्रस्त देश के जनतांत्रिक ध्वजवाहक के वस्त्रों का पेरिस से धुलकर आना हमारी सामन्ती मानसिकता को मौन समर्थन देने की चूक थी। यदि अपने जनतांत्रिक नेतृत्व की इस सामन्ती प्रवृत्ति को हमने समय रहते समझ लिया होता तो हमारा जनतंत्र भ्रष्टाचार का शिकार न बनता। उसका स्वरूप अधिक लोकमंगलकारी होता। उसकी छवि अधिक उज्ज्वल होती।

सदा नेता का अनुसरण करती है जनता

जनता सदा नेता का, प्रजा सदा राजा का अनुसरण करती है। रावण के राजा रहते राम से युद्धरत रहने वाले लंकावासी विभीषण के राजा बनते ही राम के शरणागत हो जाते हैं। महात्मा गांधी जब अपने दीवान परिवार की ऐश्वर्य और वैभवपूर्ण सुख-सुविधाओं को त्यागकर देश सेवा के लिए लंगोटी धारण कर आजादी की लड़ाई में उतरते हैं तो लाखों-करोड़ों भारतीय अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं और पारिवारिक उत्तरदायित्वों की परवाह किए बिना उनके पीछे चलकर देशहित में हर संभव त्याग करते हैं किन्तु जब स्वतंत्र भारत का शीर्ष नेतृत्व विलासितापूर्ण जीवन शैली अपनाता है तो धीरे-धीरे हमारे नेता भी बड़ी संख्या में विलासी जीवन जीने के अभ्यस्त हो जाते हैं जिसकी परिणिति व्यापक भ्रष्टाचार के रूप में सामने आती है। सत्ता सेवा का नहीं व्यक्तिगत सुविधाएं संचित करने का साधन बनकर वोफोर्स, हवाला, चारा, व्यापम आदि असंख्य घोटालों का शिकार हो जाती है।

जनतंत्र जनसेवा की आदर्श व्यवस्था

जनतंत्र जनसेवा की आदर्श व्यवस्था है। उसके सम्यक संचालन के लिए अनुभवी, ईमानदार और ऐसे न्यायप्रिय निर्भीक नेतृत्व की आवश्यकता है, जो समस्त संकीर्णताओं और दलीय स्वार्थों से ऊपर उठकर सम्पूर्ण समाज के लिए उचित निर्णय ले और जिसे सब स्वीकार करें, किन्तु विडम्बना यह है कि वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्था का आधार दलगत राजनीति है और दलगत राजनीति की कोख से जन्मे नेतृत्व का सर्वस्वीकृत होना प्रायः असंभव है। तथापि अब यह नितान्त आवश्यक है कि हम वोट-बैंक और दलीय-स्वार्थों की ओछी कूटनीतियां छोड़कर ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ की सच्ची राजनीति के प्रति प्रतिबद्ध हों अन्यथा ‘सर्वोदय’, ‘अन्त्योदय’ और ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे नारे सार्थक न हो सकेंगे और भारतीय समाज में बढ़ती विषमताएं, विसंगतियां असंतोष और आक्रोश को उग्रकर लोकतंत्र का मार्ग कंटकाकीर्ण कर देंगीं। समय रहते हमें और हमारे नेतृत्व को यह कटु यथार्थ समझ लेना चाहिए कि नेतृत्व की शुचिता पर ही जनतंत्र का निर्वाह निर्भर है।

( लेखक डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र, शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं, ये उनके निजी विचार हैं )

Republic Day गणतंत्र दिवस Democracy जनतंत्र 68th Republic Day Democracy of India 68वां गणतंत्र दिवस भारत का जनतंत्र