फ्रांस में मनाया गया था पहला म्यूजिक डे, ब्लैक होल से भी निकली ऊं की ध्वनि, जानें कहां तक फैला सामवेद से निकला संगीत का साम्राज्य

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The Sootr
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फ्रांस में मनाया गया था पहला म्यूजिक डे, ब्लैक होल से भी निकली ऊं की ध्वनि, जानें कहां तक फैला सामवेद से निकला संगीत का साम्राज्य

BHOPAL. 21 जून का दिन दुनिया के तमाम देशों के लिए महत्वपूर्ण है। इस दिन विश्व योग दिवस मनाया जाता है। योग शरीर को स्वस्थ रखने के साथ ही मानसिक सेहत व शांति के लिए भी सहायक है। हालांकि मन मस्तिष्क को रिलैक्स महसूस कराने में योग के अलावा संगीत भी बेहतर विकल्प हो सकता है।



संगीत व्यक्ति को सुकून का अहसास कराता है। संगीत महज मनोरंजन का जरिया नहीं, लेकिन स्वस्थ तन-मन के लिए भी कारगर है। डॉक्टर भी संगीत को सेहत के लिए फायदेमंद मानते हैं। अध्ययनों के मुताबिक, संगीत शरीर में बदलाव लाता है, जो स्वास्थ्य में सुधार करता है। अवसाद और निराशा के शिकार लोगों को इससे बाहर निकालने के लिए संगीत थैरेपी दी जाती है। संगीत के महत्व व उपयोगिता के बारे में दुनियाभर को जागरूक करने के उद्देश्य से हर साल विश्व संगीत दिवस मनाया जाता है।  आइए जानते हैं संगीत दिवस का इतिहास, महत्व और इस वर्ष की थीम। 



संगीत दिवस का इतिहास 



विश्व संगीत दिवस पहली बार फ्रांस में 1982 में मनाया गया था। फ्रांस के तत्कालीन सांस्कृतिक मंत्री जैक लैंग ने लोगों की संगीत के प्रति दीवानगी को देखते हुए इस दिन को मनाने की घोषणा की थी। उन दिनों संगीत दिवस को 'फेटे डि ला म्यूजिक' कहा जाता था।



पहला संगीत दिवस कैसे मनाया गया?



1982 में मनाए गए पहले संगीत दिवस में 32 से ज्यादा देशों का समर्थन मिला। इस दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए गए। उसके बाद से भारत समेत इटली, ग्रीस, रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, पेरू, ब्राजील, इक्वाडोर, मैक्सिको, कनाडा, जापान, चीन, मलेशिया और दुनिया के तमाम देश विश्व संगीत दिवस हर साल 21 जून को मनाते हैं।



भारत में संगीत



जब ब्रह्मांड प्रकट नहीं हुआ था, तब नाद रूप में संगीत था। यानी जब धरती पर कुछ नहीं था, तब से भारतीय संस्कृति का अस्तित्व माना जाता है। हमारी धरती पर वायुमंडल था यानी जीवन था। और यदि जीवन था तो जीवन बिना ध्वनि के नहीं हो सकता। इस ध्वनि में ही तो संगीत था।



भारतीय संगीत की उत्पत्ति वैदिक काल में हुई थी। सामवेद संगीत का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। कृष्ण कहते हैं कि वेदों में मैं साम हूं। सामवेद उन वैदिक ऋचाओं का संग्रह है, जो गेय हैं यानी जिन्हें गाया जा सकता है। सामवेद के आधार पर भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र लिखा और बाद में संगीत रत्नाकर, अभिनव राग मंजरी लिखा गया। दुनियाभर के संगीत के ग्रंथ सामवेद से प्रेरित हैं।



हमारे यहां सभी देवी और देवताओं के पास अपना एक वाद्य यंत्र है। विष्णु के पास शंख है तो शिव के पास डमरू, नारद मुनि और सरस्वती के पास वीणा है तो भगवान श्रीकृष्ण के पास बांसुरी। खजुराहो के मंदिर हों या कोणार्क के मंदिर, प्राचीन मंदिरों की दीवारों में गंधर्वों, किन्नरों की मूर्तियां हैं। उन मूर्तियों में लगभग सभी तरह के वाद्य यंत्र दर्शाए गए हैं। गंधर्वों और किन्नरों को संगीत का जानकार माना जाता है।



प्राचीन भारतीय संगीत दो रूपों में प्रचलन में था- 1. मार्गी और 2. देशी। मार्गी संगीत तो लुप्त हो गया, लेकिन देशी संगीत बचा रहा। इसके मुख्यत: दो हिस्से हैं- 1. शास्त्रीय यानी क्लासिकल म्यूजिक और 2. लोक संगीत यानी फोक म्यूजिक। 



शास्त्रीय संगीत शास्त्रों पर आधारित है। इसके लिए बाकायदा नियम हैं। और लोक संगीत काल और स्थान के अनुरूप प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में स्वाभाविक रूप से विकसित होता रहा। शास्त्रीय संगीत को विद्वानों और कलाकरों ने अपने-अपने तरीके से नियमबद्ध और बदलाव किया और इसकी कई प्रांतीय शैलियां विकसित होती चली गईं तो लोक संगीत भी अलग-अलग प्रांतों के हिसाब से समृद्ध हुआ। भारत के राज्य क्या, दुनिया में हर जगह का अपना ही लोक संगीत है।



मुस्लिमों के शासनकाल में प्राचीन भारतीय संगीत की समृद्ध परंपरा को अरबी और फारसी में ढालने के लिए कुछ जरूरी और कुछ गैरजरूरी बदलाव किए। उन्होंने उत्तर भारत की संगीत परंपरा का इस्लामीकरण करने किया, जिसके चलते नई शैलियां विकसित हुईं, जैसे खयाल और ग़ज़ल। भक्ति और सूफी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना अच्छा खासा प्रभाव छोड़ा। 



आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में घरानों का जन्म हुआ‍, जिन्होंने संगीत और गान में कई परिवर्तन किए। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान पाश्चात्य संगीत से भी भारतीय संगीत का परिचय हुआ। इसी दौर में हारमोनियम प्रचलन में आया। इस तरह मौजूदा दौर में संगीत को दो शैलियां हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत प्रचलित है। हिन्दुस्तानी संगीत मुगल बादशाहों की छत्रछाया में विकसित हुआ और कर्नाटक संगीत दक्षिण के मंदिरों में विकसित होता रहा।



यह संगीत उत्तरी हिन्दुस्तान में- बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, जम्मू-कश्मीर तथा महाराष्ट्र प्रांतों में प्रचलित है। यह संगीत दक्षिण भारत में तमिलनाडु, मैसूर, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश आदि दक्षिण के प्रदेशों में प्रचलित है।



मुस्लिम काल में नए वाद्य यंत्रों की भी रचना हुई, जैसे सरोद और सितार। दरअसल, यह दोनों ही वाद्य यंत्र रुद्रवीणा और विचित्र वीणा का परिवर्तित रूप है। इस तरह वीणा, बीन, मृदंग, ढोल, डमरू, घंटी, ताल, चांड, घटम्, पुंगी, डंका, तबला, शहनाई, सितार, सरोद, पखावज, संतूर, बांसुरी, झांझर, तंबूरा आदि का आविष्कार भारत में ही हुआ है। 



प्राचीन भारतीय नृत्य शैली से ही दुनियाभर की नृत्य शैलियां विकसित हुई है। हड़प्पा सभ्यता में नृत्य करती हुई लड़की की मूर्ति पाई गई है, जिससे साबित होता है कि इस काल में ही नृत्यकला का विकास हो चुका था। इंद्र की सभा में नृत्य किया जाता था। शिव-पार्वती का नृत्य, कृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य ना जाने कब से भारतीय परंपरा का हिस्सा है। 



भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नृत्यकला का सबसे प्रथम व प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको पंचवेद भी कहा जाता है। नाट्यशास्त्र अनुसार भारत में कई तरह की नृत्य शैलियां विकसित हुई जैसे भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, ओडिशी, कत्थक, कथकली, यक्षगान, कृष्णअट्टम, मणिपुरी और मोहिनी अट्टम आदि। इसके अलावा भारत में कई स्थानीय संस्कृति और आदिवासियों के क्षेत्र में अद्भुत नृत्य देखने को मिलता है। इसमें से राजस्थान के कालबेलिया नृत्य को यूनेस्को की नृत्य सूची में शामिल किया गया है। 



भारत के संगीत और संगीतकारों की बात करें तो रामतनु यानी तानसेन जी जिक्र बड़े अदब से होता है। ग्वालियर के पास बेहट में ही उनका जन्म हुआ। अद्भुत ही थे तानसेन। भारत में पहली संगीतकार जोड़ी हुस्नराम-भगत राम की मानी जाती है। नौशाद, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन, सचिन देवबर्मन के गाने आज भी दिलों पर राज कर रहे हैं। कल्याणजी-आनंदजी, राजेश रोशन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, पंचम यानी आरडीबर्मन, उषा खन्ना, बप्पी लाहिड़ी, एआर रहमान, अनु मलिक के सुर-ताल में 15 साल से लेकर 75 साल का व्यक्ति अपनी ऊर्जा खोज लेता है। इन्हीं संगीतकार की धुनों पर किशोर दा, रफी-मुकेश साहब, मन्ना दा, लता जी, आशा जी अमर गाने गाए हैं।


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