बिजनेस डेस्क. चीन की माली हालत ठीक नहीं चल रही है। कोविड काल के बाद विदेशी संस्थागत निवेशक बड़े अवसर को भुनाने की सोच लेकर चीन में निवेश के लिए पहुंचे थे। लेकिन वहां घटती मांग और गिरती जीडीपी के कारण ये निवेशक अब चीन के मार्केट से पैसा निकालकर भारत के शेयर बाजार में लगा रहे हैं। साल 2023 की बात की जाए तो अब तक 1.47 लाख करोड़ रूपयों का विदेशी निवेश मार्केट में आ चुका है। इतना विदेशी निवेश बीते 6 साल में सबसे ज्यादा है। जिसमें से 9 अरब डॉलर यानि की 73,800 करोड़ रुपए तो हालिया वित्तवर्ष की पहली तिमाही में ही आ चुके थे। आंकड़े बता रहे हैं कि इस बार विदेशी निवेशक भारत में लंबे समय तक ठहरने के लिए भारत आए हैं। इसकी बड़ी वजह यह बताई जा रही है कि दुनिया अब सप्लाई के लिए चीन पर निर्भरता कम करना चाहती है। यही कारण है की बड़ी कंपनियां चीन से हटती जा रही हैं।
हर रोज कर रहे 1400 करोड़ की खरीदारी
डिपॉजिटरी के आंकड़े बताते हैं कि विदेशी संस्थागत निवेशक भारत के शेयर बाजार में हर रोज तकरीबन 1400 करोड़ रुपए की खरीददारी कर रहे हैं। विदेशी ब्रोकरेज फर्म जेफरीज में इक्विटी स्ट्रैटेजी के वैश्विक प्रमुख क्रिस्टोफर वुड कहते हैं कि विदेशी निवेशक अगले 10 साल चीन की इकोनॉमी को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं हैं, वे भारत में फ्यूचर देख रहे हैं। निवेशकों ने मई माह में चीन के बाजारों से 1.71 अरब डॉलर के शेयर बेचे जबकि बीते साल मई माह में यही आंकड़ा 65.9 करोड़ डॉलर था।
भारत का रुख करने की ये वजहें
दरअसल भारतीय शेयर बाजार ने इस साल अब तक 7.82 प्रतिशत का रिटर्न निवेशकों को दिया है। जबकि चीन का शंघाई स्टॉक एक्सचेंज महज 0.25 प्रतिशत के हिसाब से रिटर्न दे पाया। दूसरी तरफ चीन की करंसी युआन का भी अवमूल्यन हो चुका है। युआन की कीमत 5.16 फीसदी घट चुकी है। 7 फरवरी को एक युआन जहां 12.20 रुपए के बराबर था तो वहीं अब 11.57 रुपए का हो चुका है। अमेरिकन डॉलर से तुलना की जाए तो जनवरी में 6.74 युआन एक डॉलर के बराबर था तो वहीं अब 1 डॉलर खरीदने के लिए 7.19 युआन खर्चने पड़ते हैं। दूसरी तरफ जनवरी माह में एक अमेरिकन डॉलर 82.73 रुपए का था जो अभी 82.71 रुपए में मिल रहा है।
चीन की टूट रही कमर
दरअसल चीन को जिस आर्थिक विकास के लिए पहचाना जाता रहा वह पहचान दुनिया की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने वाले बूस्टर जैसी थी। अब चीन की अर्थव्यवस्था के लड़खड़ा जाने से विश्व के कई मुल्कों की इकोनॉमी पर भी संकट के बादल छा रहे हैं। उम्मीद की जा रही थी कि महामारी के बाद चीन की अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इस हफ्ते के आंकड़े बता रहे हैं कि ड्रेगन का निर्यात लगातार तीसरे महीने कम हुआ है और आयात भी घट रहा है। खाने के सामान से लेकर मकानों की दाम में भारी गिरावट हो चुकी है। जिसके कारण व्यापारिक गतिविधियां भी कम हो रही हैं। हालात यह हैं कि ब्राजील के सोयाबीन, अमेरिका के बीफ और इटली के लग्जरी गुड्स की मांग कम होने लगी है। तेल, खनिज, धातु और इंडस्ट्री के लिए जरूरी साजोसामान की मांग भी गिर चुकी है।
कर्ज से लदा हुआ है ड्रेगन
बीसीए रिसर्च के नए विश्लेषण के अनुसार बीते 10 साल के वैश्विक आर्थिक विकास में चीन की भागीदारी 40 फीसदी है। जिसके मुकाबले अमेरिका की हिस्सेदारी 22 फीसदी तो यूरोपीय यूनियन के 20 देशों की 9 प्रतिशत है। वहीं चीन की अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के रास्ते सीमित हो चुके हैं। कारण यह है कि चीन पर देश के जीडीपी से 282 प्रतिशत ज्यादा कर्ज है। उधर चीन में उपभोक्ता खर्च कमजोर पड़ गया है। सामाजिक सुरक्षा की कमजोर व्यवस्था वजह से चीनी लोग बहुत अधिक बचत कर रहे हैं। बीते 6 माह में आम चीनियों ने बैंकों में 141 लाख करोड़ रुपए जमा किए हैं। जो कि बीते 10 साल में सबसे बड़ा आंकड़ा भी है।