कितना पुराना है खालिस्तान आंदोलन का इतिहास, क्या है इनकी मुख्य मांग, अमृतपाल बन पाएगा भिंडरावाला? जानिए सबकुछ

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कितना पुराना है खालिस्तान आंदोलन का इतिहास, क्या है इनकी मुख्य मांग, अमृतपाल बन पाएगा भिंडरावाला? जानिए सबकुछ

BHOPAL.खालिस्तान समर्थक अमृतपाल पर पंजाब पुलिस की कार्रवाई लगातार जारी है, पुलिस उसकी तलाश में जगह-जगह छापामार कार्रवाई कर रही है। अमृतपाल की गिरफ्तारी के विरोध में खालिस्तान समर्थक देश और विदेश में विरोध दर्ज करवा रहे हैं। सिख समाज के लोग भी खालिस्तान समर्थकों को भरपूर जवाब दे रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच मुख्य बिंदु खालिस्तान है। आखिर क्या है खालिस्तान?, क्यों इसकी उठती रही है मांग? बताएंगे आपको सब कुछ।





आखिर क्या है खालिस्तान का मुद्दा





अरबी भाषा के खालिस से बना है खालसा शब्द, इस शब्द का अर्थ होता है- शुद्ध। सिखों के गुरु गुरू गोविंद सिंह ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की थी। खालिस्तान इसी खालसा से बना है और इसका मतलब है- खालसाओं का राज। आजादी से पहले 1929 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य की मांग का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव का कांग्रेस के भीतर ही 3 नेताओं ने विरोध किया। ये तीन नेता थे  मोहम्मद अली जिन्ना, मास्टर तारा सिंह और भीमराव अंबेडकर। इन तीनों नेताओं की तीन अलद-अलग मांगे थी।







  • मोहम्मद अली जिन्ना- मुसलमानों को मिले अलग हिस्सेदारी



  • मास्टर तारा सिंह- सिखों को मिले हिस्सेदारी 


  • भीमराव अंबेडकर- दलितों को के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था की मांग






  • इन तीन मांगों ने कांग्रेस के माथे पर चिंता की लकीरें उकेर दी थी, कांग्रेस ने इन मांगों को माना तो नहीं लेकिन, लेकिन ये मांगे जोर पकड़ने लगी थी। 





    विभाजन के समय पंजाब के हुए दो टुकड़े





    खालिस्तान आंदोलन के अगवा रहे मास्टर तारा सिंह का निधन साल 1973 में हुआ था, पहली बार यहीं पर खालिस्तान को लेकर एक प्रस्ताव पास किया गया था। आजादी के बाद खालिस्तान की मांग जोर पकड़ने लगी ली। इसका कारण था पंजाब का विभाजन। पाकिस्तान के अलग होने के बाद पंजाब दो भागों में बंट गया था, सिखों के कई प्रमुख गुरुद्वारे पाकिस्तान शासित पंजाब में चले गए, इस विभाजन का मास्टर तारा सिंह ने जमकर विरोध किया था, लेकिन उनका विरोध खारिज कर दिया गया था।





    मास्टर तारा सिंह और खालिस्तान की मांग





    अकाली आंदोलन के संस्थापक सदस्य मास्टर तारा सिंह ही खालिस्तान आंदोलन के हिमायती थे। तारा सिंह सिखों को राजनीतिक हिस्सेदारी देने की बात उठा रहे थे। आजादी से पहले उन्हें मोहम्मद अली जिन्ना की अलग पाकिस्तान की मांग का भी समर्थन किया था। इसके बदले में जिन्ना उन्हें उप-प्रधानमंत्री बना रहे थे। लेकिन तारा सिंह ने उनके इस ऑफर को ठुकरा दिया था।





    5 साल में टूट गया था नेहरु और तारा सिंह का समझौता





    साल 1956 में पंडित जवाहर लाल नेहरू और मास्टर तारा सिंह के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते में  सिखों के आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक हितों की रक्षा की बात रखी गई।  5 साल तक यह समझौता चला और फिर टूट गया। मास्टर तारा सिंह ने 1961 में अलग पंजाब सूबे की मांग को लेकर आमरण अनशन शुरू कर दिया। तारा सिंह के समर्थन में हजारों सिख एकजुट हो गए। सिखों का कहना था कि भाषा के आधार पर अलग पंजाब राज्य का गठन हो और गुरुमुखी को भी भाषाओं की सूची में शामिल किया जाए। इस आंदोलन को राजेंद्र कौर ने खत्म करवाया 1966 में भाषा के आधार पर पंजाब को अलग राज्य बना दिया गया। 







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  • पाकिस्तान ने दी खालिस्तान की मांग को हवा





    साल 1971 में पाक से टूटकर बांग्लादेश विभाजन के बाद पंजाब में इंदिरा गांधी को जबरदस्त सर्मथन मिला। इस चुनाव में अकालियों का पत्ता साफ हो गया। इसके बाद फिर शुरू हुई खालिस्तान की मांग। 1973 में अकाली दल ने आनंदपुर साहिब में एक प्रस्ताव पास किया। साल 1978 में फिर इस प्रस्ताव को दोहराया गया।





    अनशन से कैसे हिंसा में बदला खालिस्तान का आंदोलन?





    मास्टर तारा सिंह की खालिस्तान की मांग अहिंसक थी, लेकिन 1967 में उनकी मौत के बाद खालिस्तान का आंदोलन हिंसा में बदल गया। इसके पीछे दो कारण महत्वपूर्ण थे। 







    • बांग्लादेश हारने के बाद पाकिस्तान ने भारत से बदला लेने के लिए पर्दे के पीछे से इस 'युद्ध' का सहारा लिया।



  • उग्रवादी सिख संगठनों को पाकिस्तान की तरफ से फंडिंग और हथियार की व्यवस्था की गई।


  • पैसे और हथियार की लालच में सिख युवा आ गए, जिससे यह आंदोलन और तेज हो गया।


  • पंजाब बनने के बाद से ही वहां राजनीतिक उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया।


  • ज्ञानी जैल सिंह को छोड़कर कोई भी मुख्यमंत्री 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए।


  • राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठाकर आंदोलन के नेता इसे हिंसक बनाते चले गए। 






  • एक विवाद ने बदल दी थी तस्वीर





    साल 1978 में अमृतसर में निरंकार संप्रदाय का अकाली दल के साथ विवाद हो गया। निरंकार समुदाय के लोगों को जीवित गुरुओं पर विश्वास है, जबकि सिख गुरु गोविंद सिंह के बाद किसी को गुरु नहीं मानते हैं। दोनों के बीच यह विवाद वर्षों पुराना है। लेकिन 1978 में हुए विवाद में 13 अकाली कार्यकर्ताओं की मौत हो गई। इसमें जरनैल सिंह भिंडरावाले के करीबी फौजा सिंह भी शामिल था। कोर्ट में यह केस चला और निरंकारी संप्रदाय के प्रमुख गुरुबचन सिंह केस में बरी हो गए। इसके बाद पंजाब में शुरू हुआ भिंडरावाले के आतंक का दौर। भिंडरावाले के समर्थकों ने 1980 में गुरुबचन सिंह की हत्या कर दी। कई जगहों पर हिंदुओं और निरंकारी समुदाय के लोग मारे जाने लगे। पंजाब में लॉ एंड ऑर्डर पूरी तरह ध्वस्त हो गया था। 





    ऑपरेशन ब्लू स्टार में हजारों लोगों की हुई मौत





    पंजाब में कानून व्यवस्था ध्वस्त होने के बाद इंदिरा सरकार ने राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। पंजाब में खुफिया एजेंसी के अधिकारियों को भेजा गया। खुफिया जानकारी मिलने के बाद सेना ने ऑपरेशन ब्लू स्टार की शुरुआत की। इस ऑपरेशन में स्वर्ण मंदिर के भीतर सेना के टैंक को दाखिल करा दिया गया। ऑपरेशन के दौरान दोनों तरफ से जमकर गोलीबारी हुई। आखिर में जरनैल भिंडरावाले मारा गया। सरकारी रिपोर्ट में कहा गया कि ऑपरेशन के दौरान 83 जवान शहीद हुए, जबकि 458 चरमपंथी मारे गए। हालांकि, सिख संगठनों ने 3000 लोगों के मारे जाने का दावा किया। इस ऑपरेशन के बाद इंदिरा गांधी का जमकर विरोध हुआ।





    कई नामी हस्तियों को धोना पड़ा जान से हाथ





    ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद बब्बर खालसा और अन्य आतंकी संगठन सक्रिय हो गए। ऑपरेशन के कुछ महीनों बाद ही पीएम इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। उनकी हत्या उन्ही के सुरक्षा में तैनात 2 सिख जवानों ने कर दी। इंदिरा गांधी के अलावा पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या 1995 में कर दी गई। बेअंत सिंह कार से एक कार्यक्रम में जा रहे थे, उसी वक्त उन पर अटैक किया गया था। 1987 में भारत के पूर्व आर्मी चीफ जनरल एएस वैद्य को भी गोलियों से भून दिया गया था।





    कौन था भिंडरावाले





    साल 1947 में पैदा हुए भिंडरावाले ने एक 'टकसालिया' सिख के रूप में ही अपनी शुरुआती पहचान बनाई थी।  'टकसालिया' का अर्थ उपदेशकों के लिए किया जाता है, जो अपने धर्म के बारे में प्रवचन देते है और उसका प्रचार-प्रसार करते हैं। साल 1906 में इनमें से एक यानी दमदमी टकसाल मोगा जिले के भींडर गांव में ले जाई गई। लिहाजा, उसके जितने भी अनुयायी थे वे भिंडरावाले कहलाने लगे। ऐसा बताते हैं कि जरनैल सिंह जब 7 का साल था तो उन्हें उनके पिता ने दमदमी टकसाल को सौंप दिया था। यहीं पर उसने श्री गुरु ग्रन्थ साहिब का अध्ययन करना सीखा और उसमें दर्ज कई अहम बातों को कंठस्थ करते हुए सिख धर्म के बारे में ज्ञान भी हासिल किया। साल 1971 में इस धार्मिक संस्था के प्रमुख की सड़क दुर्घटना में मृत्यु होने के बाद जरनैल सिंह को इसका मुखिया चुन लिया गया।





    क्या है अमृतपाल की कहानी





    अमृतपाल सिंह का परिवार पंजाब के अमृतसर जिले के जल्लूपुर खेड़ा का रहने वाला है। अमृतपाल का परिवार कथित तौर पर दुबई में एक ट्रांसपोर्ट बिजनेस चलाता है। अमृतपाल सिंह 2012 से दुबई में ही रह रहा था लेकिन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के विरोध के दौरान अमृतपाल भारत आया और आंदोलन में शामिल हुआ और फिर लौट गया था। सरकार ने विरोध के बाद कृषि कानूनों को रद्द कर दिया। अगस्त 2022 में एक बार फिर दुबई से भारत आ गया। उसने दोबारा केश रखकर सितंबर 2022 में दस्तारबंदी की और मोगा के गांव रोडे में दस्तारबंदी का बड़ा कार्यक्रम किया और दीप सिद्धू की मौत के बाद उसके संगठन वारिस पंजाब दे का प्रमुख बना।





    अमृतपाल बना रहा था आर्मी, पाकिस्तान हो रहे थे हथियार सप्लाई





    अलग देश खालिस्तान की मांग करने वाले 'वारिस पंजाब दे' संगठन पर पंजाब पुलिस का ऑपरेशन जारी है। पुलिस के मुताबिक संगठन के सरगना अमृतपाल अब भी फरार है, लेकिन उसके 116 साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया है। शुरुआती जांच के बाद पंजाब पुलिस ने दावा किया है कि अमृतपाल के ड्रग माफिया से संबंध हैं। वह अलग सिख देश बनाने के लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के संपर्क में था।





    क्या है भिंडरावाले और अमृतपाल सिंह में अतंर





    इन दोनों ही चेहरों की पहचान खालिस्तान की मांग उठाने वालों के तौर पर हैं, लेकिन दोनों के वजूद में जमीन और आसमान का अंतर है। भिंडरावाले ने बचपन में ही सिख समाज से जुड़े सभी क्रियाकलापों को सीख लिया था और बड़े होकर वह इसका एक प्रतीक बन गया था। इसके ठीक उलट अमृतपाल ने दुबई में रहते हुए अपने केश कटवा चुका है। लिहाजा, पंजाब के लोग जानते हैं कि वह न तो एक सच्चा सिख है और न ही इतना बड़ा जानकर जो कि धार्मिक प्रवचन देते हुए भिंडरावाले की बराबरी कर सके। हालांकि अमृतपाल ने कोशिश बहुत की थी कि लोग उसे भिंडरावाले की तरह मान्यता दें लेकिन ऐसी हो न सका।





    दूसर कारण है अमृतपाल के पास ठोस आधार का न होना भिंडरवाले के साथ थी दमदमी टकसाल है, अममृतपाल के साथ न टकसाल है और ना ही उसे भिंडरेवाला की तरह अकाल तख्त का समर्थन मिला है। और ना किसी राजनीतिक दल ने उसकी करतूत का समर्थन किया है।





    सिखों ने ही किया खालिस्तान की मांग का विरोध





    पंजाब की भगवंत मान सरकार ने अमृतपाल के साथियों की गिरफ्तारी और हथियारों के लाइसेंस निरस्त किए हैं। सरकार के इस कदम से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो अमृतपाल को लेकर क्या सोच रही है। भिंडरावाले के मामले में सरकार का ध्यान काफी देर बाद गया था। लेकिन अमृतापल के मामले में केंद्र की मोदी सरकार और प्रदेश की मान सरकार का ध्यान अजनाला थाने की घटना के बाद से ही बना हुआ है। वहीं हाल ही में खालिस्तान समर्थकों ने जिस तरह से विदेश में भारतीय ध्वज का अपमान किया उसके विरोध में देश के सिख समाज ने दिल्ली और अन्य राज्यों के प्रमुख शहरों में भारी विरोध जताते हुए दोगुने उत्साह से तिंरगा लहराया। 



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