कबीर बनारस में पैदा हुए, जानबूझकर मगहर में प्राण त्यागे; एक सुधारक, कवि, दार्शनिक होते हुए अंत में भक्त ही ठहरते हैं

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Rahul Garhwal
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कबीर बनारस में पैदा हुए, जानबूझकर मगहर में प्राण त्यागे; एक सुधारक, कवि, दार्शनिक होते हुए अंत में भक्त ही ठहरते हैं

BHOPAL. आज (4 जून) को संत कबीर दास जयंती है। कबीर 1398 में बनारस में पैदा हुए थे। कबीर दास जी के जन्म के विषय में कई मतभेद मिलते हैं। कुछ तथ्यों के आधार पर माना जाता है कि इनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था, लेकिन लोक-लाज के भय से उसने कबीरदास को काशी के समक्ष लहरतारा नामक तालाब के पास छोड़ दिया था। इसके बाद उस राह से गुजर रहे लेई और नीमा नामक जुलाहे ने इनका पालन-पोषण किया। वहीं, कुछ विद्वानों का मत है कि कबीरदास जन्म से ही मुस्लिम थे और इन्हें गुरु रामानंद से राम नाम का ज्ञान प्राप्त हुआ था। संत कबीरदास ने अपने दोहों के जरिए लोगों के मन में व्याप्त भ्रांतियों को दूर किया। साथ ही धर्म के कट्टरपंथ पर तीखा प्रहार किया था।



कबीर ने पूरा जीवन काशी में बिताया



उस समय समाज में कई तरह के अंधविश्वास फैले हुए थे। एक अंधविश्वास ये भी था कि काशी में मृत्यु होने वाले के स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो वहीं मगहर में मृत्यु होने पर नरक भोगना पड़ता है। लोगों में फैले इस अंधविश्वास को दूर करने के लिए कबीर जी पूरा जीवन काशी में रहे, लेकिन अंत समय मगहर चले गए और मगहर में ही 1518 उनकी मृत्यु हुई। कहा जाता है कि कबीर जी को मानने वाले लोग हर धर्म से थे, इसलिए जब उनकी मृत्यु हुई, तो उनके अंतिम संस्कार को लेकर हिंदू और मुस्लिम दोनों में विवाद होने लगा। कहा जाता है कि इसी विवाद के बीच जब शव से चादर हटाई गई तो वहां पर केवल फूल थे। इन फूलों को लोगों ने आपस में बांट लिया और अपने धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार किया। कबीर के दोहे साखी, सबद और रमैनी में मिलते हैं। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, उनकी कही बातों को लोगों ने संकलित कर लिया। कबीर ने उलटबासियां भी लिखीं, जैसे- भीजै कंबल, बरसै पानी।



कबीर का जीवन कई राहों से गुजरा



कबीर शुरुआत में हठयोगियों के संपर्क में आए थे। हालांकि, ये उन्हें बहुत रास नहीं आया। इसके बाद वे रामानंद के शिष्य बने। भक्ति मार्ग में रामानंद का अहम स्थान है। भक्ति की 2 धाराएं निकलीं। सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति। तुलसीदास, सूरदास की सगुण भक्ति थी, कबीर की निर्गुण भक्तिधारा थी। कबीर भी राम की भक्ति करते थे, लेकिन उनका साफ कहना था कि मेरा नाम दशरथ के घर नहीं पैदा हुआ यानी वो गुणातीत है। कबीरदास ने राम, मोहन, केशव, हरि, रहीम आदि अनेक नामों से संबोधित किया। उन्होंने अव्यक्त, अनिर्वचनीय, निराकार ब्रह्म को 'राम' नाम से ज्यादा संबोधित किया है।



कबीर के राम अव्यक्त, निर्गुण और निराकार



कबीर के राम अव्यक्त, निर्गुण और निराकार हैं। समस्त प्राणियों में उनका निवास है। वे देश और काल से परे हैं किन्तु घट-घट में समाये हुए हैं। कबीर के राम कुछ अंश में वेदान्त के निर्गुण ब्रह्म के समान है, किन्तु कबीर ने उसे विश्व से परे और विश्वव्यापी दोनों कहकर वेदान्त के ब्रह्म से अलग बताया है। कबीर कहते हैं कि भक्ति, उपासना और साधना से भक्त परम ब्रह्म को प्राप्त कर उसमें विलीन होकर एकमेव हो जाता है। कबीर ने जीव और ब्रह्म के सम्बन्धों को पति-पत्नी के सम्बन्धों का रूपक लेकर व्यक्त किया है। कबीर ने ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सहज साधना को सर्वोपरि माना है।



कबीर के अनुसार आत्मा



कबीर ने जीव को ब्रह्म का अंश माना है। वे जीव और ब्रह्म, आत्मा और परमात्मा को एक मानते हैं, उन्होंने कहा भी है कि 'आत्मा राव अवर नहिं दूजा' जिस प्रकार ब्रह्म सर्वव्यापक है, उसी प्रकार आत्मा केवल शरीर न होकर सर्वत्र है। क्योंकि वो ब्रह्म का ही दूसरा स्वरूप है। आत्मा को ब्रह्म से अलग जानना केवल अज्ञान आधारित है। जब गुरु के द्वारा आत्मा ज्ञान से चेतनशील हो जाती है, तब परमात्मा मिलते हैं और जीव और ब्रह्म में 'अद्वैत' भाव स्थापित हो जाता है। इस स्थिति में दोनों एकाकार हो जाते हैं और जीव को अपने जीवन का महत्व और उद्देश्य अर्थात् ब्रह्म दर्शन प्राप्त हो जाता है। कबीर ने जीव को अपना वास्तविक स्वरूप पहचानने की बात कही है और जीव जब अपना और परमात्मा का एक ही स्वरूप जान जाता है, तब वो सांसारिकता और त्रिविध दुःखों- दैहिक, दैविक, भौतिक से मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है, ऐसी आत्मा अजर-अमर हो जाती है।



कबीर के अनुसार जगत



कबीर ने जगत को परमब्रह्मा परमेश्वर की सत्ता माना है। उन्होंने जगत को सत्य, नित्य, शाश्वत माना है, लेकिन वे संसार और जीवन को असत्य और क्षणभंगुर मानते हैं। कबीर के अनुसार संसार के विषयों से सुख प्राप्ति की अभिलाषा मात्र भ्रम है। मनुष्य संसार में आकर विषय-वासनाओं और सांसारिकता में रहकर दुःख जाग्रत करता है। इसलिए उनका आग्रह है कि संसार को नश्वर जानकर मनुष्य को समय रहते जाग्रत होकर जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए। वे मानते हैं कि मनुष्य को ये मुक्ति स्वयं को ब्रह्म में लीन कर देने से मिलती हैं।



कबीर के अनुसार माया



कबीर के अनुसार, मनुष्य को राम में मिलाने में सबसे बड़ी बाधा माया है। कबीर ने माया को अविद्या कहा है। जो जीवों को मोहित करती है, सत्य और ज्ञान को ढंक लेती है, मनुष्य के भीतर काम, वासना और तृष्णा को जन्म देती है। माया के विभिन्न प्रकारों पर कबीर ने विशेष बल दिया है। वे काम, कामिनी, अहंकार, लोभ, मोह आदि विविध रूपों से मनुष्य को अपने जाल में फंसाती है। कबीर ने माया को विचित्र मोहिनी शक्ति कहा है जो बरबस जीव को अपनी ओर सम्मोहित करती है।



माया ऐसी पापिणी, फन्दा ले बैठी हाट। सब जग तो फन्दा परया, कबीरा आया काट॥



माया महाठगिनी हम जानी।



कबीर की साधना



कबीर ने सहज को साधना की अवस्था के रूप में प्रयुक्त किया है । वे मानते हैं कि सहज वो अवस्था है जिसमें मनुष्य सरलता से विषय वासनाओं का त्याग कर सके, पांचों इंद्रियों को वश में कर सके, ऐसी पवित्र आत्मा राम में एकाकार होकर समा जाती है।



सहज, सहज सब कोई कहें, सहज- चीन्हें कोइ।



जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कही जै सोइ।।



कबीर की साधना में ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है। कबीर ने सहज साधना को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनकी साधना में ज्ञान, योग और प्रेम की महती भूमिका है। कबीर की साधना में तीर्थ-व्रत, संन्यास, धूनी रमाना, शारीरिक आसन, प्राणायाम और ब्रह्म आडंबर के लिए कोई स्थान नहीं है। वे तो नाम स्मरण, ब्रह्म में चित्त को स्थापित करने, अजपाजाप, तथा सहज शून्य में समाधि को ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते हैं।



कबीर की सामाजिक चेतना



कबीर की साधना आध्यात्मिक होते हुए भी समाज के प्रति संवेदनशील है। वे भक्त, समाज सुधारक और युग नेता हैं, जिन्होंने अपने उपदेशों के माध्यम से सामाजिक न्याय और समरसता की बात की है। उन्होंने अपने युग में व्याप्त अन्धविश्वासों, रूढ़ियों, साम्प्रदायिक और धार्मिक कट्टरता और कर्मकांड का डटकर विरोध किया। वे समाज को सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक शोषण से दिलाने वाले समाजसेवी हैं। कबीर मानते हैं कि समाज की एकरूपता तभी सम्भव है। जब समाज में जाति, वर्ण एवं वर्ग भेद न हों। इसलिए कबीर ने जाति, वंश, अधर्म, संस्कार और शास्त्रगत रूढ़ियों का मायाजाल तोड़ने का प्रयास किया और 'जाति-पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई' कहकर मानव मात्र के लिए समानता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। कंकर-पत्थर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय, तां चढ़ि दे मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाया, ये कहकर वे पाखंड को सीधी चुनौती देते हैं।



जात-पात का विरोध



कबीर ब्राह्मण अभिमान ये कहकर तोड़ते हैं कि अगर तुम उच्च जाति के खुद को मानते हो, तो तुम किसी दूसरे मार्ग से क्यों नहीं आए?



तुम कत ब्राह्मण हम कत सूद, हम कत लौहू तुम कत दूध।



जो तुम बामन बामनि जाया, आन घाट काहे नहिं आया।।



कबीर सिर्फ भक्त ठहरते हैं



कबीर दार्शनिक, सुधारक होते हुए अंत में राम के भक्त ही हो जाते हैं। वे कहते हैं कि मैं राम का कुत्ता हूं, मोती मेरा नाम है। गले में राम नाम की जंजीर पड़ी है, जिधर ले जाऊंगा, उधर ही जाएगी।



कबीर कूता राम का, मोतिया मेरा नाम



गले जेवड़ी राम की, जित लेउं उत जाय।।



भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय।



और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय॥



भक्ति भक्ति सब कोई कहै, भक्ति न जाने भेद।



पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव॥


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