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BHOPAL. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए कई बार नॉमिनेट किया गया। लेकिन उन्हें ये पुरस्कार नहीं दिया गया। इसको लेकर नोबेल पुरस्कार देने वाली कमेटी पर गंभीर आरोप लगे। हर साल नोबेल की घोषणा के पहले या बाद में यह बहस छिड़ जाती है कि महात्मा गांधी को यह पुरस्कार क्यों नहीं दिया गया, जबकि वह आधुनिक युग के सबसे बड़े शांति दूत हैं। नोबेल शांति पुरस्कार का ऐलान आज यानी 7 अक्टूबर को होना है।
शांति का नोबेल पुरस्कार
नोबेल पुरस्कारों की घोषणा रॉयल स्वेडिश एकेडमी ऑफ साइंस करती है, लेकिन शांति का नोबेल पुरस्कार एक मात्रा ऐसा पुरस्कार है, जिसकी घोषणा यह एकेडमी नहीं करती, बल्कि शांति के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा नार्वे की संसद द्वारा चुनी गई एक समिति करती है। महात्मा गांधी को नोबेल पुरस्कारों के लिए पांच बार नामित किया गया था, लेकिन उन्हें कभी भी नोबेल पुरस्कार नहीं मिला। महात्मा गांधी को वर्ष 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 में नामित किया गया था।
बगैर नोबेल के गांधी बरकरार, लेकिन कमेटी पर सवाल जरूर हैं- गीर
नॉर्वे की नोबेल कमेटी के सचिव रहे गीर ल्यूंडेस्टैड ने 2006 में एक बयान दिया था, जिसमें उन्होंने नोबेल शांति पुरस्कार की प्रतिष्ठा को लेकर चर्चा छेड़ दी थी। उन्होंने अपने बयान में कहा था कि नोबेल शांति पुरस्कार के सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में सबसे बड़ी चूक यह रही कि महात्मा गांधी को इससे नहीं नवाजा गया। बगैर नोबेल पुरस्कार के गांधी बरकरार हैं लेकिन बगैर गांधी के नोबेल कमेटी पर सवालिया निशान जरूर है।
साल 1937 में पहली बार शॉर्टलिस्ट हुए
1937 में गांधीजी नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट हुए लेकिन पुरस्कार न देने का एक तरह से कारण बताते हुए नोबेल कमेटी के सलाहकार प्रोफेसर जैकब वॉर्म म्यूलर ने कहा था कि गांधी बेशक एक बेहतरीन और आदर्श व्यक्ति हैं। लोग उन्हें पर्याप्त प्यार और सम्मान देते हैं, जिसके वो हक़दार भी हैं। लेकिन उनकी नीतियों में कई उलट मोड़ दिखते हैं, जो संतोषजनक नहीं कहे जा सकते। वो एक ही समय में स्वतंत्रता सेनानी भी हैं और तानाशाह भी, आदर्शवादी भी हैं और राष्ट्रवादी भी। कहीं वो ईसा जैसे मसीहा दिखते हैं तो कहीं एक सामान्य राजनीतिज्ञ।
1938 और 1939 में भी हुए थे नॉमिनेट
1930 के दशक में यूरोप और अमेरिका में एक संस्था बनी थी फ्रेंड्स ऑफ इंडिया एसोसिएशन। नॉर्वे की लेबर पार्टी के एक नेता ओले कॉर्बजॉर्नसन ने लगातार इन दो सालों में गांधीजी का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया था, जिसे एसोसिएशन का समर्थन भी हासिल था। लेकिन इन दो सालों में नोबेल कमेटी ने इस नाम को तरजीह नहीं दी। ये वो समय था, जब गांधीवादी आंदोलन अपने चरम पर थे और दुनिया भर में इसके समर्थक बन रहे थे।
1947 में भी गांधी शॉर्टलिस्ट हुए थे
भारत को ब्रिटिश राज से आज़ादी मिली और गांधीजी का नाम दस साल बाद फिर नोबेल कमेटी में शॉर्टलिस्ट किया गया। इस बार के सलाहकार एरप सीप ने म्यूलर की तरह कठोर रिपोर्ट भी नहीं दी थी लेकिन पैनल के प्रमुख गुन्नार जैन ने कहा कि ये सही है कि जितने लोग नॉमिनेट हुए हैं, उनमें गांधी सबसे महान हैं। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि वो सिर्फ शांतिदूत नहीं हैं, बल्कि पहले और बड़े अर्थों में देशभक्त हैं। साथ ही, गांधी कोई दूध के धुले नहीं हैं, वो एक कामयाब वकील भी रह चुके हैं।
गांधी को नोबेल न मिलने के मायने
गांधीजी को नोबेल न देकर नोबेल पुरस्कार की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगता है, न कि गांधीजी के कद पर। नोबेल के दुर्भाग्य को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि गांधीवाद अपनाने वाले कई लोगों को इस पुरस्कार से नवाज़ा गया और 1989 में जब दलाई लामा को यह पुरस्कार दिया गया, तब खुद नोबेल कमेटी ने कहा था कि 'यह महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि है'।
1948 गांधी का नाम लगभग तय था
नोबेल कमेटी ने गांधी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिए जाने पर कभी टिप्पणी नहीं की इसलिए आम तौर पर लोगों का यह ख़्याल रहा है कि नोबेल कमेटी गांधी को इस पुरस्कार से सम्मानित कर अंग्रेज़ी साम्राज्य की नाराज़गी मोल लेना नहीं चाहती थी। लेकिन हाल ही में कुछ दस्तावेज़ों से यह उजागर हुआ है कि नोबेल कमेटी पर इस तरह का कोई दबाव ब्रितानी सरकार की तरफ़ से नहीं था। फिर आख़िरी बार इन्हें 1948 में उन्हें नामांकित किया गया लेकिन महज़ चार दिनों के बाद उनकी हत्या कर दी गई।
1948 में ख़ुद क्वेकर ने इस पुरस्कार के लिए गांधी का नाम प्रस्तावित किया। नामांकन की आख़िरी तारीख़ के महज़ दो दिन पूर्व गांधी की हत्या हो गई। इस समय तक नोबेल कमेटी को गांधी के पक्ष में पांच सहमतियां मिल चुकी थीं। लेकिन तब समस्या यह थी कि उस समय तक मरणोपरांत किसी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाता था।
हालांकि इस समय इस तरह की क़ानूनी गुंजाइश थी कि विशेष हालात में यह पुरस्कार मरणोपरांत भी दिया जा सकता है। लेकिन कमेटी के समक्ष तब यह समस्या थी कि पुरस्कार की रक़म किसे अदा की जाए क्योंकि गांधी का कोई संगठन या ट्रस्ट नहीं था। उनकी कोई जायदाद भी नहीं थी और न ही इस संबंध में उन्होंने कोई वसीयत ही छोड़ी थी। हालांकि यह मामला भी कोई क़ानूनी पेचीदगियों से भरा नहीं था जिसका कोई हल नहीं होता लेकिन कमेटी ने किसी भी ऐसे झंझट में पड़ना मुनासिब नहीं समझा।
तब हालत यह हो गई कि 1948 में नोबेल पुरस्कार किसी को भी नहीं दिया गया। कमेटी में अपनी प्रतिक्रिया में जो कुछ लिखा है उससे यह आभास होता है कि अगर गांधी की अचानक मौत नहीं होती तो उस वर्ष का नोबेल पुरस्कार उन्हें ही मिलता। कमेटी ने कहा था कि किसी भी ज़िंदा उम्मीदवार को वह इस लायक़ नहीं समझती इसलिए इस साल का नोबेल इनाम किसी को भी नहीं दिया जाएगा।
बापू का जीवन सफर
1930 में गांधी जी अपने आश्रम से लगभग 400 किलोमीटर पैदल चले जिसे दांडी मार्च के रूप में याद किया जाता है। 1915 में जब गांधी शांति निकेतन में रवींद्र नाथ टैगोर से मिले तो उन्होंने टैगोर को नमस्ते गुरुदेव कहकर संबोधित किया। तब टैगोर ने उनसे कहा कि अगर मैं गुरुदेव हूं तो आप महात्मा हैं। तब से गांधी को महात्मा कहा जाने लगा। महात्मा गांधी को पहली बार सुभाष चंद्र बोस ने राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था। 4 जून 1944 को सिंगापुर रेडियो से संदेश प्रसारित करते हुए उन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहा था। भारत में कुल 53 बड़ी सड़क महात्मा गांधी के नाम पर हैं। विदेश में भी कुल 48 सड़कों के नाम महात्मा गांधी के नाम पर हैं। महात्मा गांधी की जीवनी 170 से भी अधिक भाषाओं में लिखी गई। वह स्वयं भी महान लेखक थे। उन्होंने कई समाचार पत्रों का हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती भाषा में संपादन किया। टाइम मैगजीन ने 1930 में गांधी जी को मैन ऑफ द ईयर चुना था। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा गुजराती में लिखी। महादेव देसाई जो गांधीजी के निजी सहायक थे उन्होंने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया।