शास्त्री जयंती : देशहित में फैसला लेने से पहले परिवार पर करते थे लागू, जानें भारत के 'लाल' के कुछ अनसुने किस्से

सादगी और विनम्रता की मिसाल भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी गांधी जयंती 2 अक्टूबर को है। जय जवान, जय किसान का प्रसिद्ध नारा देने वाले शास्त्री जी विनम्र, सहनशील, दृढ़ निश्चयी और जबरदस्त आंतरिक शक्ति वाले व्यक्ति थे।

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Ravi Singh
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Lal Bahadur Shastri
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lal bahadur shastri birthday : लाल बहादुर शास्त्री अपने शांत और शालीन स्वभाव के कारण हर भारतीय के दिल में बसते हैं। लाल बहादुर शास्त्री एक भारतीय राजनीतिज्ञ और राजनेता थे, जिन्होंने 1964 से 1966 तक भारत के दूसरे प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। इससे पहले, वे भारत के गृह मंत्री के रूप में कार्य कर चुके हैं। लेकिन उनका बचपन काफी अलग था। देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की सादगी और शालीनता की अनेकों कहानियां हैं।

वह कभी दिखावे में यकीन नहीं रखते थे। वह अपने पहनावे, व्यवहार और यहां तक कि खान-पान में भी सादगी पसंद करते थे। 2 अक्टूबर को पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी है। लाल बहादुर शास्त्री की सादगी से जुड़े कई रोचक किस्से हैं। ऐसा ही एक किस्सा है जब एक बार उनके बेटे ने उन्हें बताए बिना सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल किया। इसके बाद उन्होंने जितने किलोमीटर गाड़ी चलाई, उसके हिसाब से सरकारी खाते में पैसे जमा करवाए।

सरकारी कार से बेटा गया घूमने

लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री ने एक इंटरव्यू के दौरान बताया था कि प्रधानमंत्री बनने के बाद पिताजी को सरकारी शेवरले इम्पाला कार मिली थी। एक रात मैं चुपके से अपने दोस्तों के साथ उस कार को लेकर घूमने निकल गया और देर रात लौटा। हालांकि बाद में मुझे पिताजी को सच बताना पड़ा कि हम सरकारी कार में घूमने गए थे। यह सुनकर पिताजी ने कहा कि सरकारी कार सरकारी काम के लिए होती है, अगर तुम्हें कहीं जाना है तो घर पर ही कार का इस्तेमाल करो।

सरकारी खाते में जमा किए पैसे

सुनील शास्त्री के मुताबिक, उनके पिता ने अगली सुबह ड्राइवर से पूछा कि कल शाम से अब तक गाड़ी कितने किलोमीटर चली है? इसके बाद ड्राइवर ने जवाब दिया कि गाड़ी 14 किलोमीटर चली है। इस जवाब के बाद उन्होंने अपने ड्राइवर से कहा कि गाड़ी निजी काम के लिए इस्तेमाल की गई है, इसलिए 14 किलोमीटर के हिसाब से जो पैसा बनता है, वह सरकारी खाते में जमा करा दें। सुनील शास्त्री आगे कहते हैं कि इसके बाद न तो उन्होंने और न ही उनके भाई ने कभी सरकारी गाड़ी का निजी काम के लिए इस्तेमाल किया।

कोई फैसला जनता पर नहीं थोपते थे 

लाल बहादुर शास्त्री के बारे में ये भी कहा जाता है कि वो कोई भी फैसला देश की जनता पर लागू करने से पहले उसे अपने परिवार पर लागू करते थे। जब उन्हें भरोसा हो जाता था कि इस फैसले को लागू करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी, तभी वो उस फैसले को देश के सामने रखते थे। ये वाकया उस वक्त का है जब उन्होंने देशवासियों से एक वक्त का खाना छोड़कर उपवास करने को कहा था। ऐसा नहीं था कि लाल बहादुर शास्त्री ने ये फैसला देश की जनता पर थोपा था। सबसे पहले उन्होंने खुद पर और अपने परिवार पर ये आजमाया था। जब उन्हें समझ में आ गया कि ऐसा भी किया जा सकता है, उनके बच्चे भूखे रह सकते हैं, तब उन्होंने देश की जनता से ये अपील की।

प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कद और उनकी आवाज का मजाक कभी पाकिस्तान के मोहम्मद अयूब खान ने उड़ाया था। लेकिन शास्त्री के निधन पर भारत के साथ न केवल पाकिस्तान बल्कि सोवियत संघ का झंडा भी झुक गया था और अयूब खान उस दिन दुनिया के गमगीन व्यक्तियों में एक थे।

लाहौर की तरफ टहलने चले गए

1965 का भारत-पाक युद्ध लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल की एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसमें उन्होंने भारत का सफल नेतृत्व किया था। इस युद्ध की समाप्ति के चार दिन बाद जब वे दिल्ली के रामलीला मैदान में भाषण दे रहे थे, तो उनका आत्मविश्वास देखने लायक था। जिस आवाज का मज़ाक एक साल पहले अयूब खान ने उड़ाया था, वही आवाज अब हजारों लोगों के सामने गरज रही थी। उस समय शास्त्री ने कहा था कि अयूब साहब का इरादा अपने सैकड़ों टैंकों के साथ चलकर दिल्ली पहुंचने का था। जब हमारा ऐसा इरादा था, तो हम भी लाहौर की ओर थोड़ा चल दिए। मुझे लगता है कि हमने ऐसा करके कुछ गलत नहीं किया।

शास्त्री की दहाड़ ने बदला अयूब का नजरिया

लाल बहादुर शास्त्री से पहले जवाहर लाल नेहरू को राष्ट्र की आवाज माना जाता था। पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त शंकर वाजपेयी ने कहा था कि नेहरू की मौत के बाद अयूब खान दिल्ली सिर्फ यह जानने के लिए नहीं आए थे कि नेहरू के जाने के बाद वे भारत में किससे बात करेंगे। उस समय शास्त्री जी ने कहा था, "तुम मत आओ, हम आएंगे।" उस समय शास्त्री जी गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए काहिरा गए थे और लौटते समय वे कुछ घंटों के लिए कराची में भी रुके थे। हालांकि, तब भी अयूब खान लाल बहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व को पूरी तरह से समझ नहीं पाए थे। वे भारत को कमजोर समझने लगे थे। लेकिन 1965 के युद्ध ने पाकिस्तान की इस सोच को कुचल दिया था।

अमेरिका के आगे झुकने से किया इनकार 

युद्ध के दौरान शास्त्री जी की दृढ़ता का एक और उदाहरण तब देखने को मिला जब उन्होंने अमेरिका के सामने झुकने से इनकार कर दिया। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन ने भारत से इस युद्ध से हटने को कहा था। उस समय भारत गेहूं उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था। उस समय अमेरिका से लाल गेहूं का निर्यात होता था और जॉनसन ने धमकी दी थी कि अगर पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध नहीं रोका गया तो भारत को गेहूं नहीं भेजेगा। इससे स्वाभिमानी शास्त्री जी को ठेस पहुंची। उन्होंने विदेशी देश के सामने भीख मांगने से इनकार कर दिया और भारतीयों से एक सप्ताह में एक बार भोजन न करने का आह्वान किया। लेकिन इससे पहले उन्होंने अपने घर में खाना बनाने से इनकार कर दिया था। जब उनके अपने बच्चे एक दिन के भोजन के लिए भूखे रह सकते थे, तो उन्होंने देशवासियों से अगले दिन ऐसा करने की अपील की।

जय जवान, जय किसान का नारा

लाल बहादुर शास्त्री का सबसे बड़ा योगदान उनका नारा 'जय जवान, जय किसान' था। यह नारा 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान दिया गया था, जब देश को एकजुट और आत्मनिर्भर बनने की सख्त जरूरत थी। उस समय एक तरफ देश के जवान सीमा पर लड़ रहे थे, तो दूसरी तरफ किसान देश की खाद्य सुरक्षा के लिए काम कर रहे थे। शास्त्री जी ने इस नारे के जरिए दोनों का सम्मान बढ़ाया और देशवासियों को एहसास दिलाया कि जवान और किसान दोनों ही देश की रीढ़ हैं। इस नारे ने न सिर्फ सेना और किसानों का मनोबल बढ़ाया, बल्कि पूरे देश को एक नई दिशा भी दी। उनके नारे ने किसानों के महत्व को उजागर किया और आज भी यह नारा प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। जब देश में अनाज की कमी हो गई थी, तो शास्त्री जी ने खुद एक दिन का उपवास रखा और लोगों से भी ऐसा करने की अपील की, ताकि संसाधनों को बचाया जा सके। यह उनका दूरदर्शी नेतृत्व और जनता से भावनात्मक जुड़ाव ही था, जिसने लोगों को प्रेरित किया।

पद से हटते ही बिजली का इस्तेमाल बंद

उनके आदर्श इतने ऊंचे थे कि जब 1963 में कामराज योजना के तहत उन्हें नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा तो उन्होंने अपने घर में बिजली का इस्तेमाल बंद कर दिया। जहां वे बैठते थे, वहीं रोशनी जलती थी। वे सरकारी खर्च पर बिजली का इस्तेमाल नहीं करना चाहते थे और उनके पास पूरे घर की बिजली का खर्च वहन करने का साधन नहीं था। इसलिए घर के बहुत सीमित क्षेत्र में ही बिजली का इस्तेमाल होता था। ऐसी ही एक घटना ताशकंद सम्मेलन की है जब लाल बहादुर शास्त्री सोवियत संघ गए थे। वे अपना खादी का ऊनी कोट पहनकर गए थे। तत्कालीन सोवियत संघ के प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन ने उन्हें एक गर्म कोट उपहार में दिया था। लेकिन शास्त्री ने वह कोट खुद पहनने के बजाय अपनी पार्टी के एक सहयोगी को दे दिया, जिसके पास कोट नहीं था। कड़ाके की सर्दी में शास्त्री अपने साधारण ऊनी कोट में ही रहे।

मृत्यु पर झुके भारत सहित पाक के झंडे

11 जनवरी 1966 को ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटों बाद लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु हो गई थी। आज भी इस समझौते को उनकी मृत्यु के कारण अधिक याद किया जाता है। सोवियत संघ के प्रधानमंत्री की मौजूदगी में भारत और पाकिस्तान के बीच इस समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान भी लाल बहादुर शास्त्री के साथ मौजूद थे। शास्त्री की असामयिक मृत्यु के समय उनके पार्थिव शरीर तक पहुंचने वाले वे पहले लोगों में से एक थे। शास्त्री के पार्थिव शरीर को देखने के बाद अयूब खान ने कहा कि यहां एक ऐसा व्यक्ति लेटा है जो भारत और पाकिस्तान को एक कर सकता है। जब शास्त्री के पार्थिव शरीर को भारत लाने के लिए ताशकंद हवाई अड्डे पर ले जाया जा रहा था, तो रास्ते में हर सोवियत, भारतीय और पाकिस्तानी झंडे को झुका दिया गया और शास्त्री के ताबूत को कंधा देने वालों में सोवियत प्रधानमंत्री के अलावा अयूब खान भी थे। ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जब एक दिन पहले एक दूसरे के दुश्मन अगले ही दिन बिल्कुल अलग स्थिति में हों। अयूब खान शास्त्री के पार्थिव शरीर को अपने कंधों पर ले जाते हुए अपना दुख व्यक्त कर रहे थे। अपनी मृत्यु के समय शास्त्री जी के पास भारत में न तो कोई धन था और न ही कोई संपत्ति। 

लाल बहादुर शास्त्री जी का जीवन परिचय

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को मुगलसराय में हुआ था। उनका नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। लाल बहादुर शास्त्री के पिता शरद प्रसाद श्रीवास्तव एक शिक्षक थे। जब वे मात्र डेढ़ साल के थे तो उनके पिता का निधन हो गया था। उनकी मां, रामदुलारी देवी, जो अभी बीस वर्ष की थीं, अपने तीन बच्चों के साथ अपने पिता के घर चली गईं।

फिर वाराणसी के काशी विद्या पीठ में शामिल हुए। यहां वे महान विद्वानों एवं देश के राष्ट्रवादियों के प्रभाव में आए। विद्या पीठ द्वारा उन्हें प्रदत्त स्नातक की डिग्री का नाम ‘शास्त्री’ था लेकिन लोगों के दिमाग में यह उनके नाम के एक भाग के रूप में बस गया।

लाल बहादुर शास्त्री अपने शिक्षक निष्कामेश्वर प्रसाद मिश्र से प्रेरित होकर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गये। शास्त्री ने जनवरी 1921 में बनारस में गांधी और पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक सभा में भाग लिया।

जब वे 10वीं में थे तो मात्र 3 महीने पहले अपनी पढ़ाई बंद कर दी और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये। गांधी की शिक्षाओं का पालन करते हुए, उन्होंने लाला लाजपत राय की सर्वेंट्स ऑफ द पीपल सोसाइटी के सदस्य के रूप में हरिजनों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए संघर्ष किया।

1927 में उनकी शादी ललिता देवी से हुई जो कि मिर्जापुर से थीं। दहेज के नाम पर उन्होंने एक चरखा एवं हाथ से बुने हुए कुछ मीटर कपड़े लिए। 1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा की।

आजादी के बाद 1946 में जब कांग्रेस सरकार का गठन हुआ तो उन्हें अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया और जल्द ही वे गृह मंत्री बन गए। 1951 में नई दिल्ली आ गए एवं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला जैसे रेल मंत्री, परिवहन एवं संचार मंत्री और वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री।

इसी दौरान एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफी सराहा।

सत्ता में रहते हुए ही 27 मई, 1964 को नेहरू का निधन हो गया। शास्त्री 9 जून को कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के. कामराज के नेतृत्व में प्रधानमंत्री बने।

1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध को समाप्त होने के बाद ताशकंद में एक शांति समझौता हुआ। इसी के एक दिन बाद 11 जनवरी, 1966 को, लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया।

उन्हें राष्ट्रीय नायक के रूप में सम्मानित किया गया और उनके सम्मान में विजय घाट स्मारक बनाया गया। उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न भी मिला।

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