महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : इस बार कहां जाएंगे मोमबत्ती और अगरबत्ती, किसका पलड़ा होगा भारी

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : महाराष्ट्र में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। महाराष्ट्र में दलित वोटर्स और चुनावी समीकरण को लेकर वरिष्ठ पत्रकार संदीप सोनवलकर की रिपोर्ट...

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Vikram Jain
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Maharashtra Assembly Elections Dalit Voters Story

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   संदीप सोनवलकर 
    वरिष्ठ पत्रकार 

 

महाराष्ट्र में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। महाराष्ट्र में इस बार सबसे बड़ा सवाल यही आ रहा है कि इस बार दलित कहां जाएंगे ,क्योंकि दलित जहां जाएंगे उसी का पलड़ा भारी हो जाएगा। राज्य में करीब 12 फीसदी दलित आबादी है। जिसमें से ज्यादातर महार जाति से है । अधिकांश ने बौद्ध धर्म अपना लिया है। अब भी उनका दलित समाज में रिश्ता कायम है। प्रदेश में चुनावी समर में मोमबत्ती और अगरबत्ती की लड़ाई बनाने की कोशिश की जाती रही है। जब सकल दलित समाज की बात आती है तो बाबा साहेब अंबेडकर के नाम तले ये फर्क मिट जाता है।

क्या है मोमबत्ती और अगरबत्ती

असल में  मोमबत्ती और अगरबत्ती जनभाषा से निकला मुहावरा है जो दलित अब बौद्ध बन गए वो भगवान बुद्ध के सामने मोमबत्ती लगाते हैं । दलित अब भी हिंदू देवी- देवताओं को मानते हैं वो देवताओं के सामने अगरबत्ती लगाते हैं, इसलिए महाराष्ट्र में पूछ लेते हैं कि मोमबत्ती या अगरबत्ती क्या है ? जब बाबा साहेब अंबडेकर की बात आती है तो दोनों वर्ग ही उनको अपना मसीहा मानते हैं। 

वंचित का असर कम हुआ

पिछले दो चुनावों से महाराष्ट्र के दलितों ने पुरानी आरपीआई के घटकों को छोड़कर एक नये समीकरण वंचित बहुजन आघाड़ी के प्रकाश आंबेडकर का साथ दिया। जिन्होनें मुस्लिमों के भी अपने साथ लेने का प्रयास किया। वंचित को पिछले विधानसभा चुनाव में करीब 6 फीसदी वोट मिला और उसके कारण कांग्रेस और एनसीपी के कई उम्मीदवार हार गए पिछली लोकसभा में भी वंचित ने यही किया और कांग्रेस को केवल एक सीट मिल पाई । इस बार लोकसभा में वंचित का जादू नहीं चला और उसके वोट तीन फीसदी से नीचे आ गए। इसकी क्या वजह है इस पर आगे चर्चा करेंगे अभी बात करते हैं वंचित के उभार की वजह क्या रही। 

भीमा कोरेगांव का आंदोलन...

असल में वंचित बहुजन आघाड़ी के उभार की वजह 2018 में हुए भीमा कोरेगांव के आंदोलन की वजह रही। भीमा कोरेगांव को महार बनाम पेशवा की लड़ाई का स्मारक माना जाता है जहां महार रेजिमेंट ने ब्राह्मण पेशवा को हरा दिया था लेकिन भीमा कोरेगांव की स्मृति दिवस जो एक जनवरी को होता है उस दिन वहां सरकार की सख्ती के कारण लाठी चार्ज हुआ और गोलीबारी भी हुई उसके बाद पूरे राज्य में आंदोलन फैल गया। जिसकी अगुआई प्रकाश अंबडेकर की वंचित बहुजन आघाड़ी ने की। जिसका उनको जमकर फायदा हुआ लेकिन पिछले पांच साल में प्रकाश अंबेडकर में बदलाव आ गया। वो बारगेनिंग पर उतर आए और अंदर से उन्होने बीजेपी के साथ मिलना शुरु कर दिया। 
धीरे-धीरे बात खुलने लगी यहां तक कि इस बार लोकसभा चुनाव के पहले भी जब इंडिया गठबंधन ने उनसे बात की तो वो आखिर तक बारगेन करते रहे और बाद में उनको बीजेपी का सहयोगी की तरह देखा जाने लगा इसलिए चुनाव में उनका भी वही हाल हुआ जो यूपी में मायावती और असददुदीन ओवैसी का हुआ। प्रकाश अब दलित राजनीति के हाशिये पर पहुंच गये हैं।

महाराष्ट्र में दलित राजनीति की असल शुरुआत तो आजादी के पहले से ही महात्मा फूले और शाहू महाराज ने कर दी थी और बाद में अंबेडकर ने उसे आगे बढ़ाया। उसी समय से संघ हमेशा से अंबेडकर का विरोधी रहा लेकिन बहुत कम लोगों को ये बात मालूम होगी कि उस समय बाबा साहेब अंबेडकर के साथ वीर सावरकर यानि विनायक दामोदर सावरकर खड़े हुए और महाड में मंदिर और तालाब से पानी पीने के आंदोलन में साथ दिया अंबेडकर के बाद वो तो दलितों के मसीहा बने रहे लेकिन राज्य में एक के बाद एक कई दलित संगठन और राजनीतिक दल बनते गये अभी कम से पांच आरपीआई है और उसके अलावा भी कई और संगठन है। बीएसपी प्रमुख कांशीराम ने भी दलित राजनीति की शुरुआत महाराष्ट्र से की थी लेकिन जब यहां सफलता नहीं मिली तो यूपी चले गये।

बीजेपी के साथ क्यों नहीं जाते दलित ?

महाराष्ट्र का दलित मतदाता आमतौर पर कांग्रेस के साथ रहा है कुछ उसमें से बाल ठाकरे की शिवसेना के साथ भी गए लेकिन बीजेपी के साथ जाने से दलित हमेशा बचते रहे हैं। 2014 में जरुर मोदी लहर में दलित बीजेपी के साथ गए लेकिन जल्दी ही वापस भी आ गए। उसकी एक बड़ी ऐतिहासिक और अभी की मौजूदा एक वजह भी है भीमा कोरेगांव।

असल में भीमा कोरेगांव का संघर्ष पेशवाओं के महार यानि दलित के प्रति भेदभाव की वजह रही। मराठा के कमजोर होने के बाद जब पेशवाओं ने पुणे पर अपना साम्राज्य बना लिया तो दलितों को कमर में एक झाड़ू और गले में मटका बांधने कहा गया ताकि वो जब चले तो उसकी धूल साफ होते जाए और वो थूके भी तो अपने मटके में ही। ये अपमान बढ़ता गया तो 1818 में अंग्रेजों के साथ मिलकर महारों ने पेशवा यानि ब्राह्मणों को हरा दिया। पुणे के चितपावन ब्राह्मणों में ये बात बनी रही उनमें से कई संघ के प्रमुख पदों पर है। इसलिए दलितों की नाराजगी हमेशा से रही है और वो संघ से नहीं जुड़े। गुरुजी गोलवलकर ने दलितों के घर खाने का कार्यक्रम दिया था लेकिन ये बहुत दिन नहीं चला। 

अब बात हाल की भीमा कोरेगांव के स्मृति दिन पर बवाल के बाद दलित बड़ी संख्या में वंचित बहुजन आघाड़ी के साथ गए लेकिन इस आंदोलन के नाम पर पुलिस और सरकारी एजेंसियों ने कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया। महाराष्ट्र में दलित समुदाय में ये सामाजिक संगठन एनजीओ बड़ी पैठ रखते हैं और पुलिस से लेकर प्रशासन तक के मसले पर उनके साथ रहते हैं। इस दमन को बीजेपी प्रणित माना गया और अब जब इस लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण का तड़का लगा तो पूरा दलित समुदाय कांग्रेस के साथ चला गया। 

दलित मुस्लिम मराठा गठजोड़

अब महाराष्ट्र में दलित मुस्लिम मराठा गठजोड़ बन गया है, लोकसभा में इसने कमाल दिखा दिया विधानसभा में भी ये बहुत कुछ कर सकता है। उसकी एक बड़ी वजह ये है कि दलित, मुस्लिम और मराठा तीनों का ही खानपान यानि मासांहारी है। महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज ने बड़ी संख्या में महार को अपने साथ रखा था इसलिए मराठों के साथ उनका संबंध गांव- गांव में है। साथ ही मुस्लिम और दलित की कई जातियां ढोर महार कैकय्या शैव सब जानवरों से जुड़े काम करते हैं और उनका व्यवहार पुराना है। इसको बीजेपी की हिंदूवादी और कहीं कहीं पर सवर्ण राजनीति ने और मजबूत कर दिया है। अरबन नक्सल के लिए बीजेपी जिस तरह की भाषा और कानूनी डंडा चलाती है उससे दलित संगठन और नाराज होते हैं। इसका असर भी चुनाव में दिखाई देगा।

असल में बीजेपी के पास कोई बड़ा दलित चेहरा ना केंद्र ना ही राज्य स्तर पर हैं, रामदास आठवले की आरपीआई का एक लिमिटेड असर है और वंचित बहुजन आघाड़ी की साख घटने के बाद अब अधिकतर दलित वोट कांग्रेस की तरफ जा रहा है। इसे तोड़े बिना बीजेपी को बेहतर परिणाम मिलना मुश्किल है।

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