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Lalbaugcha Raja: मुंबई का गणेशोत्सव सिर्फ एक त्योहार नहीं बल्कि एक भावना है, एक संस्कृति है। इसी संस्कृति का सबसे बड़ा प्रतीक हैं लालबागचा राजा। मुंबई के परेल-लालबाग इलाके में स्थापित 'लालबागचा राजा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल' भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित गणेशोत्सव मंडलों में से एक है।
हर साल गणेश चतुर्थी में लाखों लोग जिनमें आम आदमी से लेकर राजनेता, उद्योगपति और बॉलीवुड सितारे शामिल हैं, गणपति बप्पा के दर्शन करने आते हैं। इस गणेश को 'नवसाचा गणपति' भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है 'मन्नतों को पूरा करने वाले गणेश'।
हर साल गणेश चतुर्थी से पहले जब इनकी पहली झलक सामने आती है तो सिर्फ मुंबई ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में बसे गणेश भक्तों के बीच उत्साह की लहर दौड़ जाती है।
आइए, जानते हैं इस महान परंपरा की कहानी जो 1934 से शुरू होकर आज 2025 तक अपनी भव्यता और दिव्यता से सबको मंत्रमुग्ध कर रही है।
लालबागचा राजा की शुरुआत
लालबागचा राजा के जन्म की कहानी 1932 में शुरू होती है। उस समय लालबाग और परेल का इलाका जिसे 'गिरनगांव' या 'मिलों का गाव' भी कहा जाता था, कपास मिलों और छोटे-छोटे बाजारों से भरा हुआ था।
यहां के स्थानीय निवासी, जिनमें मुख्य रूप से मछुआरे और व्यापारी समुदाय के लोग शामिल थे अपनी आजीविका के लिए इन बाजारों पर निर्भर थे।
लालबाग के पेरू चाल इलाके में मछुआरे और व्यापारी एक खुले स्थान पर अपना बाजार लगाते थे। लेकिन 1932 में यह बाजार बंद कर दिया गया, जिससे इन व्यापारियों और मछुआरों के सामने रोजी-रोटी का गंभीर संकट आ गया।
उनके पास अपनी दुकानें लगाने के लिए कोई स्थायी जगह नहीं बची थी। अपनी आजीविका बचाने के लिए उन्होंने एक साथ मिलकर एक स्थायी बाजार की मांग की।
इसी दौरान उन्होंने यह मन्नत मानी कि अगर उनकी मांग पूरी होती है और उन्हें बाजार के लिए एक स्थायी जगह मिलती है, तो वे एक गणेश प्रतिमा स्थापित कर उसका सार्वजनिक उत्सव मनाएंगे।
मन्नत का पूरा होना
इसी संकट से उबरने के लिए उन्होंने एक साथ मिलकर निर्णय लिया कि वे एक स्थायी बाजार की मांग करेंगे। उस समय के प्रसिद्ध नेताओं और समाजसेवियों ने भी उनका साथ दिया।
व्यापारियों ने सामूहिक रूप से यह मन्नत मांगी कि अगर उन्हें बाजार के लिए एक स्थायी जगह मिल जाती है, तो वे वहां एक गणेश प्रतिमा स्थापित करेंगे और उसका सार्वजनिक उत्सव मनाएंगे।
उनकी मन्नत जल्द ही पूरी हो गई। स्थानीय नेता कुंवरजी जेठाभाई शाह और डॉ. वी.बी. कोरगांवकर के प्रयासों से, जमीन के मालिक रजबअली तय्यबअली ने बाजार बनाने के लिए अपनी एक जगह देने का फैसला किया। जैसे ही व्यापारियों को उनकी जमीन मिली, उन्होंने अपनी मन्नत पूरी करने का निर्णय लिया।
1934 में इस नए बाजार वाली जगह पर 'लालबागचा राजा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल' की स्थापना हुई और यहीं पर पहली बार गणेश जी की प्रतिमा स्थापित की गई। इस तरह, लालबागचा राजा का जन्म एक बाजार की स्थापना और स्थानीय लोगों की रोजी-रोटी के संघर्ष के प्रतीक के रूप में हुआ।
मन्नतों को पूरा करने वाले गणपति
शुरुआती वर्षों में यह मंडल बहुत छोटा था लेकिन जल्द ही इसकी प्रसिद्धि फैलने लगी। जिन व्यापारियों ने मन्नत मांगी थी, उन्हें अपने कारोबार में बहुत फायदा हुआ।
उनकी सफलता की कहानियों को सुनकर, अन्य लोगों ने भी अपनी मनोकामनाएं पूरी करने के लिए लालबागचा राजा के दरबार में आना शुरू कर दिया।
लोगों ने विश्वास करना शुरू कर दिया कि यह गणपति सिर्फ एक देवता नहीं, बल्कि 'मन्नतों को पूरा करने वाले' हैं। यही कारण है कि इन्हें 'नवसाचा गणपति' कहा जाने लगा।
आज भी यहां दर्शन करने के लिए दो अलग-अलग लाइनें होती हैं: एक 'मुख दर्शन' के लिए और दूसरी 'नवसाची लाइन' जहां भक्त गणपति के चरणों को छूकर अपनी मनोकामना पूरी होने का आशीर्वाद लेते हैं। यह 'नवसाची लाइन' कई बार 5 किलोमीटर से भी ज्यादा लंबी हो जाती है और इसमें दर्शन के लिए 24 घंटे तक का समय लग सकता है।
मूर्ति की पहचान
लालबागचा राजा की मूर्ति की एक अपनी विशिष्ट शैली है जो इसे अन्य गणेश मूर्तियों से अलग करती है। यह मूर्ति हमेशा सिंहासन पर बैठे हुए गणपति के रूप में बनाई जाती है, जिसका एक खास राजसी और प्रभावशाली रूप होता है।
इस मूर्ति का निर्माण पिछले 90 वर्षों से एक ही परिवार, कांबली परिवार, द्वारा किया जा रहा है। संतोष कांबली और उनके पूर्वज इस मूर्ति को बनाने की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। वे हर साल गणेशोत्सव से कई महीने पहले ही इस मूर्ति पर काम शुरू कर देते हैं।
इस मूर्ति का चेहरा और शरीर का अनुपात इस तरह से तैयार किया जाता है कि इसमें भगवान गणेश का एक शक्तिशाली और शांत रूप दिखाई दे। यह कला और आस्था का एक अद्भुत संगम है जो हर साल लाखों लोगों को मंत्रमुग्ध कर देता है।
1934 से 2025 तक का सफर
शुरुआती दशकों में लालबागचा राजा मुख्य रूप से स्थानीय लोगों का ही केंद्र था। लेकिन 2000 के दशक में जब टेलीविजन और मीडिया का विस्तार हुआ तो इसकी लोकप्रियता पूरे देश में फैल गई।
मीडिया ने 'नवसाचा गणपति' की कहानियों को लोगों तक पहुंचाया, जिससे यहां आने वाले भक्तों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई। इन 92 सालों में लालबागचा राजा ने कई पड़ाव देखे हैं। एक छोटे से पंडाल से शुरू हुआ यह उत्सव आज दुनिया के सबसे बड़े गणेशोत्सवों में से एक बन गया है।
- शुरुआती साल (1930s-1950s): शुरुआती वर्षों में, उत्सव का मुख्य उद्देश्य सामाजिक एकता को बढ़ावा देना था। यह समाज के विभिन्न वर्गों को एक साथ लाता था।
- विकास का दौर (1960s-1980s): इस दौरान, उत्सव की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। पंडाल और प्रतिमा को और अधिक भव्यता दी जाने लगी। 'लालबागचा राजा' की ख्याति मुंबई से निकलकर पूरे महाराष्ट्र और फिर भारत तक फैल गई।
- भव्यता का युग (1990s-2010s): इस दौर में, पंडाल की सजावट में नई-नई थीम और तकनीक का प्रयोग होने लगा। हर साल एक नया विषय चुना जाता था, जो न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक संदेश भी देता था।
- डिजिटल और वैश्विक पहचान (2010s-2025): आज के दौर में, लालबागचा राजा सिर्फ एक पंडाल तक सीमित नहीं है। इसकी पूजा और आरती का सीधा प्रसारण टेलीविजन और सोशल मीडिया पर होता है। लाखों भक्त घर बैठे ही ऑनलाइन दर्शन का लाभ उठाते हैं। पंडाल में भीड़ प्रबंधन के लिए हाई-टेक सुरक्षा और सेवा दल का उपयोग किया जाता है।
2025 में 92 वर्षों की भव्यता
इस साल, लालबागचा राजा गणेश मंडल अपने 92वें वर्ष का गणेशोत्सव मना रहा है। जैसा कि आपके द्वारा साझा की गई जानकारी में बताया गया है इस वर्ष की भव्यता ने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया है।
- मुख्य थीम: इस साल का पंडाल भगवान तिरुपति बालाजी की थीम पर सजाया गया है, जो किसी स्वर्ण महल जैसा दिखाई दे रहा है।
- अनोखा श्रृंगार: बप्पा को इस साल बैंगनी रंग की धोती पहनाई गई है, जो उनके दिव्य रूप को और भी आकर्षक बना रही है। उनके हाथ में चक्र और सिर पर एक बेहद ही आकर्षक मुकुट है, जिसने उनके शाही स्वरूप को और बढ़ा दिया है।
- भक्तों की भीड़: गणेश चतुर्थी 27 अगस्त को है, लेकिन लालबागचा राजा की पहली झलक सामने आते ही मुंबई में उत्सव का माहौल बन गया है। लाखों की संख्या में भक्त दर्शन के लिए कतारों में लगे हैं, जो उनकी अटूट आस्था का प्रमाण है।
विसर्जन और विरासत
11 दिनों तक लाखों भक्तों को दर्शन देने के बाद अनंत चतुर्दशी के दिन लालबागचा राजा की प्रतिमा को गिरगांव चौपाटी पर एक भव्य विसर्जन यात्रा के साथ अरब सागर में विसर्जित कर दिया जाता है।
यह विसर्जन यात्रा भी एक अद्भुत अनुभव होती है, जिसमें पूरा मुंबई 'गणपति बप्पा मोरया' के जयकारों से गूंज उठता है। लालबागचा राजा की कहानी सिर्फ एक गणेश प्रतिमा की कहानी नहीं है, बल्कि यह संघर्ष, संकल्प और आस्था की कहानी है।
यह बताती है कि कैसे एक छोटे से वादे ने एक ऐसी परंपरा को जन्म दिया, जो आज 92 सालों बाद भी करोड़ों लोगों के दिलों में बसी हुई है। यह हर साल मुंबई की पहचान बनकर उभरती है और लोगों को एक सूत्र में बांधती है।Ganeshotsav begins
डिस्क्लेमर: इस आर्टिकल में दी गई जानकारी पूरी तरह से सही या सटीक होने का हम कोई दावा नहीं करते हैं। ज्यादा और सही डिटेल्स के लिए, हमेशा उस फील्ड के एक्सपर्ट की सलाह जरूर लें।
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