ओटीटी पर इन दिनों स्पाई वेबसीरीज का दौर चल रहा है। इजराइली खुफिया एजेंसी मोसाद के एक जासूस पर आधारित एक वेबसीरीज SPY खूब पसंद की जा रही है। यह सीरीज बताती है कि किस तरह मोसाद का एक जासूस दुश्मन देश का रक्षा मंत्री बनने तक की स्थिति में आ जाता है। आपने कभी सोचा है कि क्या भारत में ऐसा कभी हुआ है? तो आपको बताते हैं कि ऐसा बिल्कुल हुआ है, जब देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। उनके दौर में जब जासूसी कांड का खुलासा हुआ तो पूरी सियासत हिल गई थी। आइए बताते हैं, क्या था देश का सबसे बड़ा जासूसी कांड…
एक मीटिंग ने किया खुलासा
दरअसल 1985 में भारत और श्रीलंका के अधिकारियों की एक बैठक दिल्ली में आयोजित की गई थी। जैसे ही बैठक शुरू हुई, श्रीलंकाई अधिकारियों ने भारतीय अधिकारियों को रॉ का एक गोपनीय दस्तावेज दिखाया, जिसमें श्रीलंका पर भारत सरकार की राय का खुलासा किया गया था। भारतीय खुफिया एजेंसियां हैरान थीं कि उच्चतम पदों पर भेजे गए इस टॉप सीक्रेट दस्तावेज की जानकारी श्रीलंका तक कैसे पहुंची? इस दस्तावेज की केवल तीन प्रतियां बनाई गई थीं, जिनमें से दो रॉ के वरिष्ठ अधिकारियों के पास थीं और एक प्रधानमंत्री कार्यालय में भेजी गई थी। जांच में खुलासा हुआ कि एक फ्रेंच अधिकारी ने एक भारतीय लाइजनर नारायण कुमार के नेटवर्क का उपयोग करके इस गोपनीय दस्तावेज को प्राप्त कर उसे श्रीलंका तक पहुंचा दिया था। इस खुलासे ने भारतीय खुफिया एजेंसियों के बीच हलचल मचा दी। इसके बाद खोजबीन हुई नारायण कुमार और उसके कारनामों की…
फिर मच गई हलचल
भारत में सन 1985 के जनवरी का महीना राजनीति में बेहद उथल-पुथल से भरा रहा। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के प्रधान सचिव पीसी एलेक्जेंडर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, और भारत के अनुरोध पर फ्रांस ने अपना राजदूत दिल्ली से वापस बुला लिया। इसके साथ ही, चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड और पूर्वी जर्मनी के कई राजनयिकों को निष्कासित किया गया था। इसका कारण एक जासूसी स्कैंडल था, जिसे भारतीय मीडिया ने 'मोल इन द पीएमओ स्कैंडल' का नाम दिया।
क्या था मोल इन द पीएमओ स्कैंडल
दरअसल इस जासूसी कांड में राजीव गांधी के प्रधान सचिव के निजी सचिव एनटी खेर, पीए मल्होत्रा और यहां तक कि कार्यालय के एक चपरासी के शामिल होने का आरोप था। 1985 में 16-17 जनवरी की रात को इंटेलिजेंस ब्यूरो के काउंटर इंटेलिजेंस विभाग ने सबसे पहले एनटी खेर को गिरफ्तार किया। जल्द ही पीए मल्होत्रा और चपरासी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। इन पर आरोप था कि ये एक भारतीय व्यापारी कुमार नारायण के जरिए गोपनीय सरकारी दस्तावेज विदेशी एजेंटों को बेच रहे थे।
आखिर कौन था कुमार नारायण
कुमार नारायण का जन्म 1925 में कोयंबटूर में हुआ था। 1949 में वह दिल्ली आया और विदेश मंत्रालय में स्टेनोग्राफर के रूप में काम करने लगा। बाद में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़कर एक निजी कंपनी में काम करना शुरू किया। उसने सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में काम करने वाले छोटे पदों पर पोस्टेड लोगों का एक गुप्त नेटवर्क बना लिया था। कुमार के संबंध छह यूरोपीय देशों के राजनयिकों के साथ थे, जिनमें फ्रांस, पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, सोवियत संघ और पोलैंड शामिल थे। कुमार नारायण अपने नेटवर्क के जरिए सूचनाओं को बेचकर बड़ा पैसा बना रहा था।
वह बाबूराज का दौर था
दरअसल वह लाइसेंस परमिट राज का दौर था। सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में काम करने वाले स्टेनोग्राफरों के पास गोपनीय सूचनाओं की पहुंच होती थी। ये लोग सिर्फ टाइपिस्ट नहीं थे, उनके पास ऐसी जानकारियां होती थीं, जो सरकार के महत्वपूर्ण निर्णयों और दस्तावेजों का हिस्सा होती थीं। उस समय, किसी भी मंत्रालय की अंदरूनी गतिविधियों की जानकारी स्टेनोग्राफर से बच पाना मुश्किल था।
बाबूराज का फायदा उठाया कुमार नारायण ने
कल्लोल भट्टाचार्जी ने अपनी किताब ‘अ सिंगुलर स्पाई: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ कुमार नारायण’ में लिखते हैं कि कुमार नारायण को बखूबी पता था कि एक स्टेनोग्राफर के पास ऐसी जानकारियां होती हैं, जिनसे लाभ उठाया जा सकता है। उन्होंने यह भी देखा कि ये सूचनाएं केवल टाइपिस्टों के पास ही सीमित नहीं थीं, बल्कि इनका उपयोग करने और इसे दूसरों के साथ साझा करने के मौके भी थे। इस स्थिति का कुमार ने बखूबी फायदा उठाया, और कई अहम मंत्रालयों की जानकारी अपने पास इकट्ठा कर लीं। एक साधारण सरकारी कर्मचारी से लेकर स्टेनोग्राफर बने कुमार नारायण अपने संपर्कों के माध्यम से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति कार्यालय तक पहुंच गए। अब कुमार के पास तमाम जगहों से महत्वपूर्ण दस्तावेज और सूचनाएं पहुंचने लगीं।
TOI की खबर ने मचाया हंगामा
द टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में 28 जनवरी, 1985 को लिखा गया था कि कुमार नारायण को विदेश में गोपनीय सूचनाएं इकट्ठा करने की बाकायदा ट्रेनिंग दी गई थी। यह खबर भारतीय राजनीतिक माहौल में हलचल मचा गई। गिरफ्तारी से पहले तक, उन्होंने दिल्ली में कई संपत्तियाँ खरीदी थीं, और अपने करीबी लोगों के साथ उनके बहुत ही अच्छे संबंध थे। उनके ये संबंध सिर्फ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि बेहद आत्मीय और नजदीकी थे, जिससे वह अपने खास लोगों को महंगे तोहफे देने में संकोच नहीं करते थे।
इस केस की जांच के दौरान एक महत्वपूर्ण बात सामने आई कि प्रधानमंत्री कार्यालय में काम करने वाले पी. गोपालन, कुमार नारायण को अपने पिता जैसा मानते थे। एक पासपोर्ट दस्तावेज में उन्होंने यहां तक लिखा था कि अगर उनकी मृत्यु हो जाती है, तो इसकी सूचना कुमार नारायण को दी जाए। इस घटना ने यह साफ कर दिया कि कुमार नारायण का जाल कितना व्यापक और प्रभावी था।
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