भोपाल. दुनिया में सबसे बड़ा संगठन है आरएसएस ( RSS ) यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( Rashtriya Swayamsevak Sangh )। जैसे किसी दूसरे संगठन से जुड़े परिवार प्रभावित होते हैं, वैसे ही स्वयंसेवकों के परिवार की महिलाओं की सोच पर प्रभाव दिखता है।
आरएसएस में भले सीधे तौर पर महिलाओं को स्थान नहीं मिलता, लेकिन पारिवारिक पृष्ठभूमि उनमें वैचारिक बदलाव की वजह बनती है। बीबीसी न्यूज द्वारा देश के अलग-अलग क्षेत्रों में आरएसएस कार्यकर्ताओं के परिवार की महिलाओं से बातचीत में भी यह बात सामने आई है।
महिलाओं की भागीदारी को लेकर सवाल
स्वयंसेवक संघ में महिलाओं की भागीदारी को लेकर सवाल उठते रहे हैं। हालांकि, उनके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेविका संघ का संचालन हो रहा है। संघ कार्यकर्ताओं की पत्नी, बेटी और अन्य महिलाएं भी आरएसएस की छाप से बच नहीं पातीं।
स्वयंसेवकों के परिवार की महिलाएं भी संघ से जुड़ाव से खुश हैं। उनमें स्वयंसेवक पति, पिता या भाई की विचारधारा और सोच का समन्वय दिखता है। वे भी परिवार के अलावा सोशल दायित्वों से जुड़कर सक्रिय हो जाती हैं।
पुरुष प्रधान समाज में जिस तरह सामान्य परिवार की महिलाएं अपने पति, पिता या भाई के विचारों को अपना लेती है, वैसे ही आरएसएस कार्यकर्ताओं के परिवार की महिलाओं की सोच और विचारों से बंध जाती है।
लोगों से मिलने और समझने का मिलता है मौका
राजस्थान के बांसवाड़ा के जेरलानी गांव की निरमा कुमारी बताती हैं कि उनके पति संघ के कार्यकर्ता हैं। वह भी 15 गांवों में संस्कार शालाओं का काम करती हैं और लोगों के बीच अपनी पहचान को लेकर खुश नजर आती हैं। वे बताती हैं पहले सनातन के बारे में उनकी जानकारी बहुत सीमित थी, लेकिन अब वे काफी जानने लगी हैं।
सोच में बदलाव आया है
उदयपुर के जिला अस्पताल में नर्स के रूप में सेवा दे रहीं सुशीला गमेती संघ के सह प्रांत कार्यवाह नारायण गमेती की पत्नी हैं। वे कहती हैं कि वे सीधे तौर पर तो संघ से नहीं जुड़ीं, लेकिन पति के साथ कार्यक्रमों में जाने से उनकी सोच बदली है। जहां ड्यूटी के दौरान वे घर और अस्पताल के बीच बंधी रहती हैं तो पति के साथ आने-जाने से उन्हें दूसरे लोगों से मिलने और समझने का मौका मिलता है।
दलित-आदिवासी परिवार की महिलाओं में पति के संघ में होने से नई पहचान मिलने से खुशी नजर आती है। सुशीला इस पर खुलकर बात भी करती हैं और कहती है संघ में होने से पति और परिवार को सम्मान मिला है।
धीरे-धीरे सब बदल जाता है
राजस्थान में इंजीनियर सुरेश उपाध्याय की पत्नी रेखा उपाध्याय का कहना है कि कई बार नाराजगी, गुस्सा होता है, लेकिन जब जिम्मेदारी संभालने लगते हैं तो धीरे-धीरे सब बदल जाता है। वे सीधे तौर पर तो संघ की जिम्मेदारी नहीं उठाते, लेकिन वैचारिक रूप से उससे जुड़ जाते हैं।
रेखा की बेटी सुकृति एक किस्सा सुनाती हैं। वे कहती हैं कि उनके घर संघ का अखबार पांचजन्य आता है। एक बार उन्होंने पिता से कहा क्या आप क्रेपी अखबार मंगाते हैं। पापा ने पूछा क्रेपी क्या होता है तो मैंने कहा बकवास। उनका सवाल था क्या आपने पढ़ा, तो मैंने कहा नहीं। उन्होंने कहा बिना पढ़े कैसे बकवास कह रही हो, पहले पढ़ो लगे बकवास तो मत पढ़ना।
राजनीतिक सशक्तिकरण के उदाहरण बहुत कम
हालांकि राजनीति से जुड़े पुरुषों के परिवार की महिलाओं को कितना एक्सपोजर मिलता है, यह कहना बहुत मुश्किल है। पिता या पति की वजह से उनके परिवारों की महिलाएं राजनीति से जुड़ तो जाती है, लेकिन उनके राजनीतिक सशक्तिकरण के उदाहरण बहुत कम हैं।
संघ की राष्ट्रवाद, मुस्लिम और गोडसे पर स्थापित विचारधारा से भी स्वयंसेवकों के परिवार की महिलाओं की राय बदली है। वे महात्मा गांधी का सम्मान तो करती हैं, लेकिन गोडसे उनके लिए आदर्श पुरुष हैं।
महिलाओं की संघ में भागीदारी क्यों नहीं
यानी वे भी संघ के राष्ट्रवाद को आत्मसात कर चुकी हैं। अब ऐसे सवालों के जवाब में उनके पास मजबूत तर्क भी हैं। हालांकि, अब भी सवाल है कि पति या पिता के विचारों से प्रभावित होकर इसका प्रचार-प्रसार करने वाली इन महिलाओं की संघ में भागीदारी क्यों नहीं है।