खुद भी मानते हैं कि- काम के बोझ के मारे, हम देश के जस्टिस बेचारे

2005 तक ट्रायल कोर्ट में जजों की संख्या प्रति 10 लाख लोगों पर 50 होनी चाहिए। मगर इस आदेश के 22 साल होने के बावजूद 2024 में यह अनुपात प्रति 10 लाख जनसंख्या पर 25 जज भी नहीं पहुंचा है।

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Dr Rameshwar Dayal
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Supreme Court expressed concern over the low number of judge
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एक कहावत है कि देर से न्याय मिलना, न्याय न मिलने के बराबर है। भारतीय न्याय व्यवस्था में यह कहावत पूरे तौर पर सटीक बैठती है क्योंकि जजों की कमी व अन्य कारणों से लोगों को न्याय मिलने में बहुत देरी का सामना करना पड़ रहा है। इस बात की तस्दीक इससे भी होती है कि वर्ष 2002 में ऑल इंडिया जजेज़ संगठन बनाम भारत सरकार मामले में आदेश जारी किया था कि साल 2005 तक ट्रायल कोर्ट में जजों की संख्या प्रति 10 लाख लोगों पर 50 होनी चाहिए। मगर इस आदेश के 22 साल भी जाने के बावजूद वर्ष 2024 में यह अनुपात प्रति 10 लाख जनसंख्या पर 25 जज भी नहीं पहुंचा है। इसी का परिणाम है कि देश की सुप्रीम व हाई कोर्ट के अलावा जिला अदालतों में काम का बोझ बहुत अधिक बढ़ता जा रहा है और वहां लोगों को न्याय मिलने में इतनी अधिक देरी हो रही कि अधिकतर मामलों में जब न्याय मिलता है तो उसका कभी-कभी अर्थ ही खत्म होता प्रतीत होता है। मध्य प्रदेश राज्य में तो हालात बेहद गंभीर हैं। वहां की हाई कोर्ट में जजों की गंभीर कमी के चलते लााखें केस पेंडिंग हो रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी गंभीरता बयान करती है

असल में भारत में जजों की कमी के चलते तो न्याय मिलने में देरी हो रही है, साथ की कई अन्य कारण भी इसमें देरी की वजह बनते हैं। एक सरकारी जानकारी के अनुसार लंबित मामलों के कारण देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) को 1.5- 2 प्रतिशत तक का घाटा होता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने लंबित मामलों की संख्या बढ़ने व उनके निपटारे के लिए मौजूदा जजों की कम संख्या को लेकर फिर से चिंता जाहिर की है। जस्टिस अभय एस ओक, जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने मौजूदा स्थिति पर गंभीर खेद जताते हुए कहा कि जजों पर काम इतना अधिक दबाव है कि इससे अक्सर उनके काम में गलतियां होती है।

कोर्ट ने कहा कि वर्ष 2002 में उन्होंने ऑल इंडिया जजेज़ संगठन बनाम भारत सरकार मामले में आदेश जारी किया था कि वर्ष 2005 तक ट्रायल कोर्ट में जजों की संख्या प्रति 10 लाख लोगों पर 50 होनी चाहिए मगर इस आदेश के 22 साल भी जाने के बावजूद वर्ष 2024 में यह अनुपात प्रति 10 लाख जनसंख्या पर 25 जज भी नहीं पहुंचा है।

मध्य प्रदेश के हालात बुरे हैं

इस मसले में मध्य प्रदेश के हालात भी काफी गंभीर हैं। वैसे तो लंबित मामलों में पहला नाम राजस्थान का आता है। भारत में लंबित केसों पर नेशनल ज्यूडिशल डाटा ग्रिड की एक रिपोर्ट के अनुसार देश की 25 हाई कोर्ट में 61,09,862 केस लंबित है। इनमें दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश है, जहां पर 4,69,462 केसों का भार 35 जजों पर है। राजस्थान हाई कोर्ट में यह संख्या तो और बढ़ी हुई है। वहां 6,56,141 केस लंबित है और केवल 32 जज है। सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी दिल्ली के एक सेशन जज को राहत प्रदान करते हुए की थी। दूसरी ओर नेशनल ज्यूडिशल डाटा ग्रेड की रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में 83,410 केस लंबित है, जिनमें से सिविल केस 65,545 और अपराधी केस 17,865 लंबित है। यहां पर जजों की स्वीकृत पद 34 है और वर्तमान में दो पद खाली है। सुप्रीम कोर्ट में 32 जजों पर प्रति जज औसतन 2,606 मामलों का भार है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में किस तरह से केसों के निपटारे में गंभीर रूप से देरी हो रही है, जिसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। 

कैसा है न्यायपालिका का सिस्टम

देश में न्याय देने का सिस्टम तीन प्रकार से काम करता है। खास बात यह है कि लोगों को न्याय मिलने में इसलिए देरी हो रही है कि लंबित मामलों में सरकार सबसे बड़ी वादी है। एक आधिकारिक जानकारी के अनुसार देश में न्यायपालिका तीन स्तरों पर काम करती है- सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट व जिला अदालतें। अदालती मामलों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है, सिविल और क्रिमिनल। नेशनल ज्यूडिशल डाटा ग्रिड के अनुसार वर्ष 2022 में पूरे भारत में लंबित रहने वाली सभी कोर्ट केस की संख्या बढ़कर पांच करोड़ हो गई है। दिसंबर 2022 तक पांच करोड़ मामलों में से 4.3 करोड़ यानी 85 प्रतिशत से अधिक मामले सिर्फ जिला न्यायालयों में लंबित हैं।

ग्रिड के अनुसार सरकार स्वयं सबसे बड़ी वादी है, जहां 50 प्रतिशत लंबित मामले सिर्फ राज्यों द्वारा प्रायोजित हैं। इसी का परिणाम यह निकला है कि लंबित मामलों के कारण देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) को 1.5- 2 प्रतिशत तक का घाटा होता है। यह भी जानकारी मिली है कि भारत में दुनिया के सबसे अधिक अदालती मामले लंबित हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट (वर्ष 2018) के अनुसार देश की अदालतों में मामलों को तत्कालीन दर पर निपटाने में 324 साल से अधिक समय लगेगा। वर्ष 2018 में 2.9 करोड़ मामले कोर्ट में लंबित थे।

इन कारणों से हो रही न्याय में देरी

न्याय मिलने में एक बड़ी वजह जजों की कमी तो मानी ही जाती है, लेकिन अन्य कारण भी इस कमी को बढ़ाते हैं। इसमें फंडिंग की कमी, बुनियादी ढांचे में अस्त-व्यस्तता के अलावा कानून का दुरुपयोग भी शामिल है। देश में सुप्रीम कोर्ट का खर्च केंद्र सरकार वहन करती है, जबकि हर राज्य के हाई कोर्ट व जिला अदालतों के खर्चों को संबंधित राज्य सरकार वहन करती है। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में देश ने अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 0.08 प्रतिशत न्यायपालिका पर खर्च किया। इसके अलावा अधिकतर राज्यों राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपने वार्षिक बजट का 1 प्रतिशत से भी कम न्यायपालिका पर आवंटित किया था।

ये भी हैं देरी के लिए जिम्मेदार

विभिन्न राज्यों की जिला अदालतों में इंफ्रास्ट्रक्चर (बुनियादी संरचना) बेहद लचर देखी जाती है। कानूनी थिंक टैंक ‘विधि’ के अनुसार साल 2022 में न्यायिक अधिकारियों के लिए केवल 20,143 कोर्ट हॉल और 17,800 आवासीय इकाइयाँ उपलब्ध थीं, जबकि निचली अदालत में 24,631 जजों की संख्या स्वीकृत है। इसके अलावा निचली अदालत के केवल 40 प्रतिशत भवनों में शौचालय प्रयोग करने योग्य हैं जिनमें से कुछ में तो नियमित सफाई का कोई प्रावधान भी नहीं है। इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए साल 2021 में मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने बुनियादी ढांचे के विकास सहित न्यायपालिका के प्रशासनिक कार्य करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (NJIAI) की स्थापना का प्रस्ताव रखा था। यह प्रस्ताव आज भी धूल फांक रहा है।

एक बड़ा आरोप यह भी है कि कोर्ट में जानबूझकर केसों को पेंडिंग रखने का प्रयास किया जाता है। इसके लिए कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग होता है। गौरतलब है कि देश में आज भी सैकड़ों कानून अंग्रेजों के जमाने के हैं, जिन्हें जनविरोधी माना जाता है। इन्हें बदलने का जब-तब प्रयास किया जाता है।

किस हाई कोर्ट में कितने मामले

          हाईकोर्ट       लंबित केस     जजों की संख्या    प्रति केस जज
           बॉम्बे           652890             69         9462   
      हिमाचल प्रदेश         94344            11         8576
     पंजाब-हरियाणा        433427            53         8177
        पटना       199425           35         5697
     छत्तीसगढ़       84723           17        4983
      झारखंड       75999          18        4222
      दिल्ली      127522          37         3446

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