प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट पर CJI बोले- मंदिर-मस्जिद पर नया केस नहीं होगा दायर

सुप्रीम कोर्ट में 'प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991' मामले में सुनवाई फिलहाल टल गई है। इस मामले में कोर्ट ने केंद्र सरकार को 4 हफ्ते का समय देकर जवाब दाखिल करने को कहा है। 

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Sandeep Kumar
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सुप्रीम कोर्ट में 'प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई केंद्र के जवाब के अभाव में टल गई। चीफ जस्टिस (CJI) संजीव खन्ना ने केंद्र सरकार को 4 हफ्ते का समय दिया है ताकि वह इस मुद्दे पर अपना पक्ष रख सके। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक केंद्र का जवाब दाखिल नहीं होता, तब तक इस पर कोई सुनवाई नहीं होगी। इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि नई याचिकाएं दायर की जा सकती हैं, लेकिन उन्हें रजिस्टर नहीं किया जाएगा।

केंद्र के जवाब के बिना नहीं होगी सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को 4 हफ्ते का समय देते हुए कहा कि जब तक केंद्र की ओर से जवाब दाखिल नहीं किया जाता, इस मामले पर कोई सुनवाई नहीं होगी। CJI संजीव खन्ना ने साफ किया कि इस मामले में केंद्र सरकार का पक्ष जानना बेहद जरूरी है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट को आश्वासन दिया कि सरकार जल्द ही जवाब दाखिल करेगी।

मुस्लिम पक्ष की मांग खारिज

सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की उस मांग को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि देशभर की अदालतों में 'प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991' से जुड़े मामलों की सुनवाई पर रोक लगाई जाए। कोर्ट ने कहा कि स्थानीय अदालतें इन मामलों की सुनवाई कर सकती हैं, लेकिन वे कोई अंतिम आदेश नहीं जारी करेंगी। इस आदेश का सीधा असर वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद और संभल की शाही जामा मस्जिद जैसे चर्चित मामलों पर पड़ेगा।

'प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991' पर क्या है विवाद?

'प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991' के तहत, 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्थिति में था, वह वैसा ही रहेगा। इस अधिनियम के अनुसार, किसी धार्मिक स्थल के स्वरूप में बदलाव करने या उस पर दोबारा दावा करने के लिए कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता। इस एक्ट का उद्देश्य धार्मिक स्थलों की स्थिति में स्थायित्व बनाए रखना था। हालांकि, इस कानून को लेकर कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं, जिनमें से अश्विनी उपाध्याय की याचिका प्रमुख है। उन्होंने इस एक्ट की धारा 2, 3 और 4 को रद्द करने की मांग की है। उनका कहना है कि यह एक्ट लोगों के न्यायिक समाधान के अधिकार को छीनता है।

क्या है प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट?

उपासना स्थल अधिनियम 1991 (प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट) साल 1991 में कांग्रेस सरकार के समय लाया गया था। इस समय पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे और राम-मंदिर बाबरी मस्जिद का मुद्दा काफी गरम था। राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद के जोर पकड़ने के बाद देश के अन्य हिस्सों में भी मंदिर-मस्जिद विवाद सामने आने लगे थे। इससे देश में तनावपूर्ण माहौल बन गया था। इसी से निपटने के लिए यह कानून बनाया गया था। इस कानून में साफ लिखा है कि 1947 के समय देश में जिस धार्मिक स्थल की संरचना जैसी थी, उसे वैसा ही रखा जाएगा। धार्मिक स्थल की मूल संरचना के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। उस धार्मिक स्थल पर दावा करने वाली या धार्मिक स्थल को हटाने की मांग करने वाली हर याचिका को खारिज कर दिया जाएगा। यदि कोई आदमी इस नियम का उल्लंघन करता है तो उसे जुर्माना देना पड़ेगा और तीन साल तक की जेस भी हो सकती है।

वर्शिप एक्ट को रद्द करने की हो रही मांग

प्लेसिस ऑफ वर्शिप एक्ट कहता है कि 1947 के समय देश में जो धार्मिक स्थल जैसा था। उसे वैसा ही रखा जाएगा। इसके खिलाफ किसी भी याचिका पर सुनवाई नहीं होगी। ज्ञानवापी मस्जिद, संभल मस्जिद और अन्य कई जगहों पर मंदिर-मस्जिद विवाद चल रहा है। हिंदू पक्ष का दावा है कि मंदिर तोड़कर उस जगह पर मस्जिद बनाया गया। उस जगह पर पूजा करने का अधिकार हिंदुओं को मिलना चाहिए। बाबरी मस्जिद की तरह अन्य विवादित मस्जिदों की भी जांच की जानी चाहिए और मंदिर होने की पुष्टि होने पर वहां मंदिर बनाया जाना चाहिए। हालांकि, प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट के तहत किसी भी धार्मिक स्थल के मूल रूप से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है। इस वजह से कई जगहों पर चल रहे विवाद की सुनवाई नहीं हो रही है। इसी वजह से इस एक्ट को रद्द करने की मांग की जा रही है। ताकि मंदिर-मस्जिद से जुड़े अन्य विवादों पर याचिका लगाई जा सके।

किस धारा में क्या लिखा है ?

इसमें पांच धाराएं हैं. प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट धारा -2 के मुताबिक 15 अगस्त 1947 में किसी धार्मिक स्थल में बदलाव को लेकर कोर्ट में केस लंबित है तो उसे रोक दिया जाएगा। प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट धारा-3 के मुताबिक किसी भी पूजा स्थल को दूसरे धर्म के पूजा स्थल के रूप में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट धारा – 4 (1) के मुताबिक विभिन्न धर्मों के पूजा स्थलों का चरित्र  बरकरार रखा जाएगा. वहीं धारा – 4 (2) कहती है इस तरह के विवादों से जुड़े केसों को खत्म करने की बात कहती है।

1991 में कानून क्यों बनाया गया था?

यह अधिनियम पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार के समय आया था, तब राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा, बिहार में उनकी गिरफ्तारी और उत्तर प्रदेश में कारसेवकों पर गोलीबारी ने सांप्रदायिक तनाव बढ़ा दिया था। इसी दौरान संसद में विधेयक को पेश करते हुए तत्कालीन गृहमंत्री एस बी चव्हाण ने कहा था सांप्रदायिक माहौल को खराब करने वाले पूजा स्थलों के रूपांतरण के संबंध में समय-समय पर उत्पन्न होने वाले विवादों को देखते हुए इन उपायों को लागू करना आवश्यक है। लेकिन तब के मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इस विधेयक का पुरजोर विरोध किया था।

क्या हैं दोनों पक्षों की दलीलें?

इस कानून को रद्द करने की याचिका अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है। उपाध्याय ने उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की धाराओं दो, तीन और चार को रद्द किए जाने का अनुरोध किया है। याचिका में दिए गए तर्कों में से एक तर्क यह है कि ये प्रावधान किसी व्यक्ति या धार्मिक समूह के पूजा स्थल पर पुन: दावा करने के न्यायिक समाधान के अधिकार को छीन लेते हैं। उपाध्याय ने दावा किया कि पूरा कानून असंवैधानिक है और इस पर फिर से व्याख्या करने का कोई सवाल ही नहीं उठता। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और महाराष्ट्र के विधायक जितेंद्र सतीश अव्हाड ने भी उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कई लंबित याचिकाओं के खिलाफ याचिका दायर करके कहा है कि यह कानून देश की सार्वजनिक व्यवस्था, बंधुत्व, एकता और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करता है। अधिकतर मामलों में मुस्लिम पक्ष ने 1991 के कानून का हवाला देते हुए तर्क दिया है कि ऐसे मुकदमे स्वीकार्य नहीं हैं। इस कानून के प्रावधानों के खिलाफ पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर याचिका सहित छह याचिकाएं दायर की गई हैं।

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