30 साल के नरेंद्र 179 पाउंड लेकर शिकागो के लिए निकले थे, पता गुमा तो सड़क पर सोए, धर्मसंसद में बोले तो तालियां नहीं रुकीं

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Atul Tiwari
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30 साल के नरेंद्र 179 पाउंड लेकर शिकागो के लिए निकले थे, पता गुमा तो सड़क पर सोए, धर्मसंसद में बोले तो तालियां नहीं रुकीं

BHOPAL. स्वामी विवेकानंद की आज यानी 12 जनवरी को 160वीं जयंती है। आज ही के दिन विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी के कलकत्ता स्थित गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट के घर में उनका जन्म हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। पिता नामी वकील और वेस्टर्न कल्चर से पूर्ण व्यक्तित्व थे। 1871 में 8 साल की उम्र में नरेंद्र को शिक्षा के लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्यूट में डाला गया। 1877 में परिवार के रायपुर विस्थापित होकर आने तक वे वहीं पढ़ते रहे।



1879 में परिवार के कलकत्ता वापस जाने के बाद नरेंद्र प्रेसीडेंसी कॉलेज के एंट्रेंस में फर्स्ट डिवीजन लाने वाले पहले छात्र बने। वे जिम्नास्टिक, रेसलिंग में भी एक्टिव रहे। 

उनमें पढ़ने-समझने अद्‌भुत क्षमता थी। एक तरफ उन्होंने भगवद्गीता, वेद-उपनिषद को आत्मसात किया, दूसरी ओर पाश्चात्य दर्शन, इतिहास और आध्यात्मिकता का भी गहन अध्ययन किया। 



रामकृष्ण परमहंस में मिला गुरु



यह वह दौर था जब युवा नरेंद्र अपनी मां की ईश्वर भक्ति और स्वयं की आध्यात्मिक ज्ञानपिपासा के बीच एक शून्य-सा महसूस कर रहे थे। एक तरफ माया से भरपूर ईश्वर, जिसका आधार मुख्यत मानवीय भय था, तो दूसरी ओर ब्रह्म समाज के केशवचंद्र सेन के सान्निध्य में पनपा अनीश्वरवाद था। नरेंद्र आध्यात्मिक ऊहापोह से गुजर रहे थे। अंतर्द्वंद्व से जूझते हुए उन्होंने सभी धर्मों के गुरुओं से पूछा- क्या आपने ईश्वर देखा है? दिमाग़ में तूफान था। ईश्वर है या नहीं? क्या तर्क हैं ईश्वर के होने के? इस सृष्टि का रहस्य क्या है? क्या वाकई कोई शक्ति है या यूं ही हम भ्रम हैं? लेकिन जवाब नहीं मिला।



काफी कोशिशों के बाद उन्हें रामकृष्ण परमहंस मिले। वे दक्षिणी कालीबाड़ी कोलकाता के साधक रामकृष्ण परमहंस के पास दौड़े गए। नरेंद्र के सवाल- आपने ईश्वर को भेजा है, परमहंस ने कहा- हां, मैंने देखा है ईश्वर को ठीक उसी तरह, जैसे तुम्हें देख रहा हूं। नरेंद्र को उनके शब्दों में ब्रह्म सत्य की अनुभूति हुई। नरेंद्र बार-बार उनके पास जैसे किसी अदृश्य शक्ति के सहारे खिंचे चले आ रहे हों और हर बार उनका विश्वास पुख्ता हो जाता कि इनके चरणों में ही सारे प्रश्नों का समापन है। रामकृष्ण परमहंस को नरेंद्र ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। ज्ञान, भक्ति, त्याग, तप- सब कुछ!



ज्ञान-अर्जन करते हुए जब नरेंद्र चेतना के उच्चतम स्तर तक पहुंचे, तो उन्हें गुरु के आदेश से संन्यासी बन पूरे देश की लगातार पैदल यात्राएं करनी पड़ीं। आखिर में कन्याकुमारी आकर उन्होंने समुद्र के बीच बनी चट्टान पर लंबी समाधि लगाई। नरेंद्र को अपने गुरु से मानव सेवा का अमोघ मंत्र मिला था। निराकार को जीव-प्रेम में साकार करने का चरम उद्देश्य। इसे साकार करने में नरेंद्र ने पूरे भारत से आध्यात्मिक लोगों को एकत्र कर उन्हें दिव्य उद्देश्य के एक सूत्र में बांध दिया था। अपनी तार्किक, ओजस्वी वक्तृत्व क्षमता से वे पत्थर को भी समझा लेने में पारंगत थे। खेतड़ी (राजस्थान) के राजा अजित सिंह ने नरेंद्र नाथ दत्त को स्वामी विवेकानंद नाम दिया।



ऐसे शुरू हुई अमेरिका की यात्रा



21 मई 1893। नरेंद्र बंबई बंदरगाह से शिप कई देशों से होते हुए शिकागो (अमेरिका) रवाना होने वाला था। पॉकेट में उसके 170 पाउंड के नोट थे और नौ पाउंड की चेंज। ये पैसे भी मद्रास और खेतड़ी के भक्तगणों ने जुटाए थे। मद्रास और खेतड़ी के भक्तगण उन्हें सजल आंखों से विदा करने आए थे। समुद्र के नीले जल में जहाज अपने वेग से गतिमान था। विवेकानंद केबिन में बैठे सोच रहे थे। उनके गुरु परमहंस रामकृष्ण ठाकुर ने विश्व-मंच तक भारत की वाणी पहुंचाने का महाभार तो दिया था, लेकिन वे स्वयं सशरीर अब इस दुनिया में नहीं थे। 16 अगस्त 1885 को शरीर छोड़कर परमशक्ति में विलीन हो गए थे। अब कौन सम्बल होगा इस महारण में? रामकृष्ण देव की पत्नी गुरु मां शारदा देवी का आशीर्वाद उन्हें मिल चुका था, लेकिन गुरु नहीं थे।



जब पहुंचे शिकागो



कोलंबो, सिंगापुर, हॉन्गकॉन्ग, नागासाकी, योकोहामा से होते हुए शिप 25 जुलाई 1983 को कनाडा के वैंकूवर पोर्ट पहुंचा। स्वामी जी वहां से पैसिफिक रेलमार्ग के रास्ते 30 जुलाई शिकागो पहुंचे। ब्रिटिश भारत से आए, गेरुआ पहने संन्यासी को देखकर अमेरिकी लोगों को आश्चर्य हुआ। काफी मुश्किलों के बाद वे एक होटल में ठहर सके। एक-एक दिन गुजर रहा था और पाउंड खर्च हो रहे थे। धर्म संसद में अभी डेढ़ महीना था और इसके बाद भी उन्हें यहां हिंदू धर्म और विश्व-भ्रातृत्व के प्रचार-प्रसार के लिए कई दिन तक रहना था, लेकिन पैसा खाली हो रहा था। उन्होंने लोगों में उनके प्रति दिलचस्पी पैदा कर दी। कुछ लोग उनसे व्यक्तिगत रूप से जुड़ चुके थे।



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धर्म महासभा का दुर्गम प्रवेश द्वार, एक पहचान से खुला रास्ता



विवेकानंद जमीन से जुड़े संन्यासी थे। कुछ जोड़ना उनके लिए पापा था। ना तो पैसे थे, ना समुचित भोजन और ना ही भीषण ठंड के लिए गर्म कपड़े। उन्हें ये भी सुनने में आया कि धर्म महासभा में प्रवेश के लिए आडेंटिटी कार्ड होना चाहिए, जो उनके हिसाब से मान्य हों। वे सोच रहे थे कि व्यवस्था कैसे होगी?



किसी ओर से कोई रोशनी नहीं दिख रही थी। श्री गुरु और श्री मां का स्मरण करते रहे। सोच लिया इस परदेश में जीवन रहे या जाए, उद्देश्य पूरा करने में पीछे नहीं हटेंगे।

अब तक अमेरिका के कुछ अखबरा उन्हें अपने पन्नों पर थोड़ी जगह देने लगे थे। परिचय का दायरा बढ़ रहा था। स्वामी विवेकानंद को याद आया वैंकूवर से शिकागो आने के क्रम में ट्रेन में कैथरिन सैनबर्न से उनका परिचय हुआ था।



54 साल की सैनबर्न वक्ता, लेखिका और सामाजिक कामों में उत्साही थीं। किसी तरह उनसे कॉन्टैक्ट हुआ। सैनबर्न ने उन्हें इस मुश्किल घड़ी में निराशा से मुक्ति दिलाकर अपने घर बोस्टन शहर के मैसाच्युसेट्स के ब्रिजी मैडोज में बुला भेजा। सैनबर्न के जरिए वहां के गणमान्य लोगों के साथ स्वामी जी का परिचय बढ़ता रहा।



एक दिन सैनबर्न ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट के साथ विवेकानंद का परिचय कराया। प्रोफेसर राइट ने स्वामी विवेकानंद को खूब परखा और अंतत: स्वामी विवेकानंद के लिए प्रतिनिधि के तौर पर धर्म महासभा का परिचय पत्र बनवा दिया।



अपरिचित शहर में खोया हुआ संन्यासी, फिर एक घर का दरवाजा खुला



विवेकानंद शिकागो आए। फिर वही अनजान चेहरे, अनजानी राहें, घरों के खिड़की-दरवाजे जैसे मुंह फिराए हुए हों। ऐसे में धर्म महासभा की जनरल कमेटी के चेयरमैन रेवरेंड जॉन हेनरी वैरोज का पता ही इस समर में एकमात्र संबल था, लेकिन वह पता खो गया था। अब ना तो ठौर था और ना ही ठिकाना। रात हो चली थी। हाड़ कंपाने वाली ठंड, ना गरम कपड़े, ना रहने की जगह। विवेकानंद रेलवे स्टेशन में रखे एक बड़े खाली बक्से के अंदर जाकर सो गए। थकी हुई सांसें रुकने सी लगीं। मन बेचैन होने लगा था कि विवेकानंद को गुरु नाम याद आया- डरो नहीं, गुरु सहाय, सब ठीक होगा!



सुबह हुई। भूख से बेहाल होने लगे। अब तक उनके पैसे खत्म हो गए थे। वहां किसी से कुछ कह नहीं पाए थे। सोचा था महासभा के चेयरमैन से मिलते ही सब कुछ सही हो जाएगा। मगर ऐसा नहीं हो पाया। संन्यास-धर्म की शिक्षा अनुसार उन्होंने कई घरों में उन्होंने भिक्षा भी मांगी, लेकिन वह भारत नहीं था। लोगों ने मजाक उड़ाया। विवेकानंद ने धर्म महासभा का पता पूछा। इस पर लोगों ने मुंह फेर लिया। निराश होकर सड़क के किनारे बैठ गए वे। गुरु को याद कर उनके आदेश की प्रतीक्षा करने लगे।



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तभी विवेकानंद पर एक गृहिणी की नजर पड़ी। दोनों के बीच बातें हुई। विवेकानंद धर्म महासभा में विदेशी प्रतिनिधि थे। शिकागो शहर में स्वामी जी को इस घर में शरण मिली। यह घर था मिसेज जॉर्ज डब्ल्यू हेल और मिस्टर जॉर्ज हेल का। युवा विवेकानंद के लिए वे विदेश भूमि में माता-पिता के समान हो गए। उनकी 4 बेटियां बहनें हो गईं। मिसेज हेल को वे मदर चर्च और मिस्टर हेल को फादर पोप कहते थे। हेल बहनें उनकी सहयोगी रहीं और उनमें मेरी हेल और इसाबेल मैक्काइगुली उनके कामों में ज्यादा सक्रिय रहीं। हेल परिवार ने उन्हें इस विदेशी भूमि में संरक्षित किया, उनकी चिटि्ठयों के आदान-प्रदान की देखरेख की और धर्म प्रचार के भाषण में मिले पैसों का हिसाब-किताब रखा।



यही नहीं, शिकागो में जब भी विवेकानंद के खिलाफ धार्मिक दुष्प्रचार हुआ, हेल परिवार ने इसका पुरजोर विरोध किया और उनके वास्तविक स्वरूप को लोगों के सामने लाने में पूरी मदद की। मेरी हेल स्वामी जी के संपर्क सूत्रों को बनाए रखती थीं। स्वामी जी की शिष्या मैकलाउड और निवेदिता के साथ मेरी हेल अक्सर ही संपर्क में रहतीं और स्वामी जी का संदेश उन तक पहुंचा देतीं।



विश्व मंच पर भारत का संन्यासी



11 सितम्बर 1893। धर्म महासभा का वैश्विक मंच। जहां दुनियाभर से ज्ञानी अमीर प्रतिनिधि आए थे। तभी ओज से पूर्ण स्वर गूंजा- ब्रदर्स एंड सिस्टर ऑफ अमेरिका। खचाखच भरे हॉल में लोगों ने उनके इस सम्बोधन भर से ही मंत्रमुग्ध होकर तालियां पीट दीं। विवेकानंद के अनुसार भारत के वेद मात्र किसी धर्मग्रंथ का नाम नहीं, बल्कि युगों की आध्यात्मिक विवेचना की अप्रतिम शृंखला है, जिनका चरम है वेदांत या उपनिषद में। यह एक धार्मिक जीवन प्रणाली है, जिसमें जीव मात्र के बीच अभेद यानी समभाव, विश्व बंधुत्व और अंततः ईश्वरीय प्रेम द्वारा मुक्ति लाभ का सर्वश्रेष्ठ उपाय बताया गया है। विवेकानंद का वेदांत जीवन-जिज्ञासा से प्रारम्भ होकर जीव प्रेम और विश्व मानवता में परिणत होता है।



वे कहते हैं, धर्म मनुष्य की अंतर्मेधा को साधने की कला है। इसके द्वारा हम अनुशासन में बंधते हैं, जो हमारे बंधन के नाश का कारण बन सकता है। धर्म बंधन नहीं, मुक्ति का मार्ग है। आपस में लड़कर यह श्रेष्ठ साबित करने का विषय नहीं, बल्कि यह खुद की श्रेष्ठता को कसने वाला यंत्र है। वेदांत का सार किसी धर्म विशेष की जागीर नहीं थी, बल्कि भाईचारे और विश्व प्रेम से परिपूर्ण एक वैश्विक समाज के निर्माण का चिंतन था। वे कहते हैं, मनुष्य पवित्र और नीति परायण क्यों हो? क्योंकि इससे इच्छाशक्ति दृढ़ होगी, व्यक्ति कर्तव्यशील होगा, और नि:स्वार्थ होकर कर्म करते रहना ही व्यक्ति की स्वाधीनता या मुक्ति का द्वार है।



तो क्या सारे संन्यासी हो जाएं? विवेक इसका उत्तर देते हुए कहते हैं- दरिद्रता और त्याग भिन्न हैं। निष्काम कर्म करने से दरिद्रता नहीं त्याग की भावना पनपती है। सब कुछ होते हुए भी जकड़कर बैठ जाने की लिप्सा नहीं रहती। यही वेदांत का सत्य है। जगत में रहकर मिथ्या को समझते हुए आगे बढ़ना। नवंबर 1894 में विवेकानंद ने न्यूयॉर्क में वेदांत सोसायटी की स्थापना की।



धर्म महासभा के बाद विवेकानंद



धर्म महासभा में जब उन्होंने भारत का गौरव बढ़ाया, तो उन्हें अलग-अलग मंचों और प्रतिष्ठित सभाओं में भाषण के लिए बुलाया जाने लगा। इस समय उनके ओजस्वी व्यक्तित्व और दिव्य प्रतिभा से सम्मोहित होकर जॉन और एमिली लायन दंपती उन्हें अपने घर ले गए। स्वामी जी यहीं रहने लगे।



मिसेज एमिली ने इस युवा संन्यासी के संरक्षण का भार लिया, उन्हें शिकागो घुमाया और उनकी देखभाल की। भाषण से जिन रुपयों की प्राप्ति होती थी, उनका पूरा हिसाब रखा। एमिली युवा विवेकानंद के आकर्षक व्यक्तित्व के प्रति लोगों ख़ासकर स्त्रियों के अनुराग और आकर्षण को भलीभांति समझती थीं। इस बात पर जब वे परेशान हुईं, तब विवेकानंद ने उनकी मन की बात समझते हुए कहा था- मेरी अमेरिकन मां, मैं इस विषय से अभ्यस्त हूं और संभालना जानता हूं। आप मेरे लिए भयभीत ना हों। बाद में विवेकानंद अमेरिका से इंग्लैंड आए। वहां भी उन्होंने वेदांत को स्थापित किया।



अमेरिका में इस कर्मयोगी की साधना जहां रंग ला रही थी, वहीं कुछ कुंठाग्रस्त, संकीर्ण धार्मिक संस्थाओं ने स्वामीजी की सफलता पर रोष मनाकर अख़बारों और लोगों के बीच विद्वेषपूर्ण बातें फैलाईं। इस समय स्वामी जी अपने उद्देश्य में सफल होते हुए भी आघात-प्रत्याघात से जर्जरित थे।



महान उद्देश्य में लगे रहे, शरीर टूटता रहा



अत्यधिक श्रम, यात्राएं, लगातार भाषण, मौसम परिवर्तन से उन्हें कई तरह की बीमारियां हमेशा घेरे रहीं। गले में दर्द, किडनी और हृदय में समस्या, डिसपेप्सिया, गॉल स्टोन आदि ढेरों बीमारियों की चपेट में रहते हुए भी स्वामी जी आध्यात्मिक चेतना और वेदांत के सत्य के लिए काम करते रहे। छुआछूत, ऊंचनीच के विरुद्ध जनाधार विकसित करने को आजीवन लगे रहे। 1900 में वे भारत वापस आकर बेलूर मठ में रम गए। उनकी चेतना का दिव्य स्तर लगातार बढ़ रहा था। महीनों समाधिस्थ रहते चेतना की उच्चतम उपलब्धि उन्हें होने लगी थी। उनकी दिव्य चेतना अब सांसारिक देह में समाने लायक नहीं रह गई थी। 4 जुलाई 1902 को समाधि की अवस्था में उन्होंने देह त्याग दी। 


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