NEW DELHI. बिहार में गोपालगंज के पूर्व डीएम जी.कृष्णैया की हत्या में सजायाफ्ता मुजरिम और बाहुबली नेता आनंद मोहन सिंह को जेल से रिहा करने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। जेल में उम्रकैद की सजा में बंद बाहुबली को छह साल पहले रिहा करने के फैसले पर सिर्फ विरोधी पार्टी बीजेपी ही नहीं बल्कि नीतीश सरकार में शामिल महागठबंधन के दल भी निशाना साध रहे हैं। वामदल पहले से ही आनंद मोहन की रिहाई का विरोध कर रहे हैं। शुक्रवार, 28 अप्रैल को भाकपा माले के विधायकों ने जेल में टाडा बंदियों समेत शराबबंदी कानून के तहत बंद मुजरिमों की रिहाई के लिए पटना में धरना दिया। उधर, बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने आरोप लगाया है कि नीतीश कुमार ने चुनाव जीतने के लिए कानून में बदलाव किया है। उन्होंने खुलासा किया कि 2016 में नीतीश सरकार ने ही कानून बदलकर इसमें प्रावधान जोड़ा था कि सरकारी अधिकारी की हत्या करने में दोषी पाए जाने मुजरिम को कभी भी माफी नहीं दी जाएगी। अब आपने अपने फायदे के लिए फिर से कानून बदला, जिससे आप चुनाव जीत सकें।"
महागठबंधन में महाभारत
बाहुबली पूर्व सांसद आनंद मोहन की रिहाई के मसले पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। आनंद मोहन की रिहाई के सवाल पर महागठबंधन में ही महाभारत छिड़ गई है। दरअसल वामदल पहले से ही आनंद मोहन की रिहाई का विरोध कर रहे हैं। शुक्रवार, 28 अप्रैल को भाकपा माले के विधायकों ने पटना में टाडा बंदियों समेत शराबबंदी कानून के तहत जेल में बंद लोगों की रिहाई के लिए धरना दिया। भाकपा माले का कहना है कि नीतीश सरकार आनंद मोहन जैसे लोगों को तो रिहा कर रही है लेकिन गरीबों की फिक्र नहीं कर रही। टाडा बंदी पिछले कई सालों से जेल में बंद है। कानून खत्म होने के बावजूद सरकार ने उन्हें छोड़ने का फैसला नहीं लिया। धरने पर बैठे भाकपा माले विधायक दल के नेता महबूब आलम ने सरकार के सामने बड़ी मांग रख दी है। महबूब आलम ने कहा कि बिना देरी किए टाटा बंदियों और शराबबंदी कानून के तहत बंद लोगों को सरकार रिहा करे।
ये भी पढ़ें...
सड़क पर आंदोलन होगा: सीपीआई (एम)
सीपीआई (एम) के विधायक सत्येंद्र यादव ने भी नीतीश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। यादव कह रहे हैं कि सामंती मानसिकता वाले आनंद मोहन को रिहा करने से महागठबंधन का वोट बैंक नहीं बढ़ने वाला। महागठबंधन को बिहार के गरीबों की चिंता करनी चाहिए। नीतीश कुमार के फैसले पर सत्येंद्र यादव ने सीधा सवाल खड़ा करते हुए ऐलान कर दिया है कि अगर टाडा और शराबबंदी कानून के तहत जेल में बंद किए गए लोगों को रिहा नहीं किया गया तो सड़क पर आंदोलन होगा।
नीतीश ने राजद के दबाव में बदला कानून: सुशील मोदी
बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने आरोप लगाया है कि नीतीश कुमार ने चुनाव जीतने के लिए कानून में बदलाव कर आनंद मोहन सिंह को जेल से रिहा करवाया है। उन्होंने मीडिया से चर्चा में खुलासा किया कि 2016 में नीतीश सरकार ने ही कानून बदलकर इसमें प्रावधान जोड़ा था कि सरकारी अधिकारी की हत्या करने में दोषी पाए जाने मुजरिम को कभी भी माफी नहीं दी जाएगी। इसके बाद उन्होंने अपने राजनैतिक लाभ के लिए राष्ट्रीय जनता दल का दामन थामने के बाद फिर से कानून बदला, जिससे चुनाव जीत सकें। उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार राजद के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि उनकी बदौलत वे देश के प्रधानमंत्री बन जाएंगे। इसीलिए वो उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को साथ-साथ लेकर घूम रहे हैं। राष्ट्रीय जनता दल में अपराधी भरे हुए हैं और नीतीश कुमार अब उन्हें संरक्षण देने का काम कर रहे हैं।
पिछले साल रिहाई से किया था इनकार
बता दें कि पिछले साल ही नीतीश सरकार ने बिहार विधानसभा में कहा था कि आनंद मोहन सिंह को उनकी जेल की अवधि खत्म होने से पहले रिहा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि बिहार जेल नियमावली सरकारी कर्मचारियों की हत्या के दोषियों की ऐसी रिहाई पर रोक लगाती है। लेकिन इसी साल (10 अप्रैल 2023) नीतीश सरकार ने इस मामले में यू टर्न लेते हुए जेल नियमावली में संशोधन कर दिया।
सुशील मोदी ने भी की थी रिहाई की मांग: नीतीश कुमार
बीजेपी के विरोध पर सीएम नीतीश कुमार ने 28 अप्रैल को मीडिया के सामने सुशील कुमार मोदी और आनंद मोहन की पुरानी तस्वीर दिखाते हुए कहा कि सुशील मोदी ने खुद आनंद मोहन की रिहाई की मांग की थी। आनंद मोहन 15 साल से भी ज्यादा दिन जेल में रहे, सभी से राय लेकर निर्णय लिया गया है। बिहार में 2017 से अभी तक 22 बार परिहार बोर्ड की बैठक हुई और 698 बंदियों को रिहा किया गया है। बिहार में इस कानून को खत्म कर दिया गया, इसमें क्या दिक्कत है। क्या सरकारी अधिकारी की हत्या और सामान आदमी की हत्या में फर्क होना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह पहले भी हुआ है। इस बार भी किया है। 27 लोगों में सिर्फ एक आदमी की ही चर्चा क्यों हो रही है। जब आनंद मोहन की रिहाई नहीं हुई थी तो कितने लोग बोल रहे थे कि उनकी रिहाई होनी चाहिए। अब हो गई तो विरोध कर रहे हैं।
रिहाई के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती
आनंद मोहन की रिहाई को बिहार में नीतीश कुमार के पॉलिटिकल कार्ड के तौर पर देखा जा रहा है। ये मामला हाई कोर्ट पहुंच गया है। सरकार के फैसले को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका पटना हाई कोर्ट में दायर की गई है। याचिका में मांग की गई है कि वह सरकार की तरफ से जेल मैनुअल में किए गए संशोधन पर रोक लगाए। इस बदलाव को याचिकाकर्ता ने गैरकानूनी बताया है। याचिकाकर्ता ने कहा कि सरकार के इस फैसले से सरकारी सेवकों का मनोबल गिरेगा।
आनंद मोहन सिंह की जेल से रिहाई क्यों ?
बिहार कोसी अंचल के बाहुबली और पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह 27 अप्रैल को सुबह 4.30 बजे सहरसा जेल से रिहा कर दिए गए। आइए जानते हैं अचानक बाहुबली आनंद मोहन राजनीतिक दलों के लिए क्यों महत्वपूर्ण हो गए हैं। बिहार में महागठंधन की सरकार ने जिस तरह कानून में बदलाव कर पूर्व सांसद और बाहुबली नेता सहित 27 लोगों को जेल से रिहा करने का निर्णय लिया और जिस तरह मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी भी आनंद मोहन की रिहाई को लेकर बच-बचाकर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही है, उससे यही सवाल उठने लगा है कि आखिर आनंद मोहन अचानक राजनीतिक दलों द्वारा इतने जरूरी क्यों हो गए हैं। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव पर सभी राजनीतिक दलों की नजर है। जिस तरह नीतीश कुमार राजद (RJD) के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं और जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों को एकजुट करने की कवायद में जुटे हैं, इससे साफ है कि वे किसी मामले में बीजेपी को बिहार में बढ़त देने के मूड में नहीं हैं। ऐसे में तय माना जा रहा है कि महागठबंधन की नजर सवर्ण वोटरों पर भी है। 1990 के दशक में बिहार की राजनीति में सवर्ण नेता खासकर राजपूत नेता के तौर पर जिस तरह आनंद मोहन की छवि उभरी थी, उसके जरिए नीतीश सरकार सवर्ण मतादाताओं को साधने में लगी है।
बिहार में लोकसभा की 10 सीट पर राजपूत वोटर का प्रभाव
बिहार में महाराजगंज, औरंगाबाद सहित करीब आठ से 10 ऐसे लोकसभा क्षेत्र हैं जहां राजपूत मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी मानी जाती है। सबसे गौर करने वाली बात है कि आनंद मोहन की राजनीति में पहचान लालू प्रसाद के विरोध के कारण ही बनी है। 90 के दशक में जब अगडे़ और पिछड़े खुलकर सामने आने लगे थे, तब इनसे जुड़ी जातियों के नेता भी खुलकर सामने आए। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि जिस गठबंधन में राजद होगा, उसमें क्या सवर्ण के नेता के रूप में पहचान बनाने वाले आनंद मोहन रहेंगे।
सवर्णों का वोट किसी एक दल को नहीं मिलता
वैसे यह भी गौर करने वाली बात है कि बीजेपी भी आनंद मोहन को लेकर ज्यादा मुखर नहीं दिख रही है। उसके निशाने पर जेलों से रिहा 26 अन्य मुजरिम हैं जिसमें यादवों और मुस्लिमों की संख्या अधिक है। बिहार की राजनीति के जानकार भी कहते हैं कि सवर्णों का वोट कभी भी एक दल को नहीं जाता है। कोई भी दल इसका दावा नहीं कर सकते हैं कि उन्हें एकमुश्त सवर्ण मतदाताओं का वोट मिलता है। ऐसे में आनंद मोहन कोई बड़ा फैक्टर नहीं है। वैसे भी आनंद मोहन का दायरा सीमित रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो उनकी पत्नी लवली आनंद चुनाव नहीं हारती। आरजेडी को छोड़ महागठबंधन के अन्य साथी भी यह कहने लगे हैं कि आनंद मोहन की रिहाई से नीतीश कुमार को कोई ज्यादा फायदा नहीं होने वाला।
कौन सा नियम बदलने से आनंद मोहन रिहा?
बिहार सरकार ने 10 अप्रैल को कारागार नियमावली, 2012 के नियम 481(i)(क) में संशोधन कर दिया है। इसके तहत 'ड्यूटी पर तैनात लोक सेवक की हत्या' को अब अपवाद की श्रेणी से हटा दिया गया है। पुराने नियम के तहत सरकारी सेवक की हत्या करने वालों को पूरी सजा से पहले रिहाई की छूट का कोई प्रावधान नहीं था लेकिन नियम में संशोधन के बाद ऐसे अपराधियों के लिए भी अब छूट मिल सकेगी। इस नए नियम के तहत ही बिहार सरकार ने पिछले दिनों आनंद मोहन समेत 27 कैदियों की रिहाई की अधिसूचना जारी की थी।
1994 में कर दी गई थी IAS कृष्णैया की हत्या
बिहार के गैंगस्टर छोटन शुक्ला की 4 दिसंबर 1994 को हत्या कर दी गई थी, जिससे मुजफ्फरपुर इलाके में तनाव फैल गया था। 5 दिसंबर को हजारों लोग छोटन शुक्ला का शव सड़क पर रखकर प्रदर्शन कर रहे थे। तभी गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी. कृष्णैया वहां से गुजर रहे थे। गुस्साई भीड़ ने पहले तो उनकी कार पथराव किया, फिर उन्हें कार से बाहर निकाल कर पीट-पीटकर मार डाला। आरोप लगा कि डीएम की हत्या करने वाली उस भीड़ को आनंद मोहन ने ही उकसाया था। इस मामले में आनंद मोहन सिंह को 2007 में फांसी की सजा सुनाई गई। लेकिन 2008 में हाई कोर्ट ने फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया था। कृष्णैया मूल रूप से तेलंगाना के महबूबनगर के रहने वाले थे। वे बिहार कैडर में 1985 बैच के IAS अधिकारी थे। वह दलित समुदाय से आते थे और बेहद साफ सुथरी छवि वाले ईमानदार अफसर थे।