Geeta Jayanti पुरुषार्थ से समर्पण तक की यात्रा है- गीता

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Geeta Jayanti पुरुषार्थ से समर्पण तक की यात्रा है- गीता

ओमप्रकाश श्रीवास्‍तव। लगभग 5200 वर्ष पूर्व महाभारत के युद्ध के मैदान पर भगवान कृष्‍ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। जीवन की विषम परिस्थिति में निर्णय लेने का जब समय आया, तब समाज के अग्रणी शासक वर्ग का प्रतिनिधि अर्जुन जैसा अनुभवी, सुशिक्षित, वीर भी चक्‍कर में पड़ गया। वह समाज में प्रचलित रीति- रिवाजों को ही वैदिक सनातन धर्म समझने लगा। वह कर्तव्‍य पालन करने के पूर्व यह सोचने लगा कि सामने खड़े लोग उसके अपने हैं या पराये। वह चाहने लगा कि दोनों के लिए अलग-अलग व्‍यवहार करे। यदि सामने पराये हों तो युद्ध करे और यदि अपने हों तो पलायन कर जाए। वह संघर्ष के बिना ही समर्पण की बात करने लगा। अपनों की हानि के विचार से विषाद में डूब गया, भ्रमित होने के कारण निर्णय नहीं कर पा रहा था और इसलिए नैराश्‍य में डूब गया। शरीर कांपने लगा, पसीने-पसीने हो गया, चक्‍कर आने लगे। यहीं से गीता का जन्‍म हुआ...

ईश्वर हमारा मुलाजिम तो नहीं... 

जीवन और धर्म की परिभाषाओं के बारे में जो भ्रम व उलझाव उस समय था, लगभग वैसी ही परिस्थितियां आज फिर बन गई हैं। विज्ञान और तकनीकी के प्रचार ने जीवन की गति बढ़ दी है। बढ़ती आबादी और घटते संसाधनों ने जीवन-यापन का संकट खड़ा कर दिया है। हर समय आपाधापी, तनाव, भागदौड़ से समाज में नैराश्‍य के प्रकरण बढ़ रहे हैं। आत्‍महत्‍याएं बढ़ रही हैं। सौहार्द्र घट रहा है। अवैज्ञानिक रीतियां और अंधविश्‍वास ही धर्म के पर्याय बन गए हैं। सब से ज्‍यादा भ्रमित वे युवा हैं जो जीवन संग्राम में उतरने की तैयारी में हैं। आज की गला-काट प्रतियोगिता में वे जी-जान से लगे हैं। सफलता के शार्टकट की तलाश में वे गंडा-ताबीज पहनने से लेकर बाबा-ओझाओं तक के चक्‍कर लगा रहे हैं। परीक्षा के पूर्व कितने ही छात्रों को किसी मंदिर, मढ़‍िया या मजार पर माथा टेकते और ईश्‍वर को सवा किलो प्रसाद चढ़ाने का वादा करते हुए देखा जा सकता है। शायद उन्‍होंने ईश्‍वर को सरकारी मुलाजिम समझ रखा है जो प्रसाद के लोभ-लालच में सफलता दिला देगा। ऐसे लोग जब सफल नहीं होते तो ईश्‍वर और भाग्‍य को दोष देने लगते हैं। 

युवा कर्मयोग और उसका पालन सीखें

ऐसे समय में मार्गदर्शन के लिए हमारी दृष्टि मूल वैदिक ग्रंथों की ओर जाती है। वैदिक ग्रंथों में आत्‍मोद्धार की प्रक्रिया के साथ ही साथ संसार में कर्मों के नियम और उनके विज्ञान पर पर्याप्‍त प्रकाश डाला गया है। इन वैदिक ग्रंथों में श्रुति (वेद), उनके भाग - ब्राह्मण, आरण्‍यक, उपनिषद् – उपवेद, वेदांग, स्‍मृति (धर्मशास्‍त्र), पुराण, इतिहास, दर्शन, निबन्‍ध तथा आगम आदि वर्गों के अंतर्गत हजारों ग्रंथ हैं, जिनका अध्‍ययन एक जीवन में लगभग असंभव है। इसलिए भगवान श्रीकृष्‍ण ने कृपा करके गीता के 700 श्‍लोकों में इन सबका सार दे दिया। गीता माहात्‍म्‍य में कहा है कि सारे उपनिषद् गायें हैं और श्रीकृष्‍ण ने उनका दूध दुहकर गीता रूपी अमृत दे दिया है (सर्वोपनिषदो गावो दोग्‍धा गोपाल नन्‍दन:। पार्थों वत्‍स: सुधीर्भोक्‍ता दुग्‍धं गीतामृतं महत्।।)। गीता में वैदिक सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों के आधार पर जीवन जीने की वह प्रक्रिया बताई गई है, जिसका पालन करके तनाव व चिन्‍ता से रहित, उल्‍लासपूर्ण जीवन जीते हुए संसार के कार्यों में सफलता (अभ्‍युदय) प्राप्‍त की जा सकती है, वहीं अंतिम लक्ष्‍य मोक्ष (नि:श्रेयस) की उपलब्धि की जा सकती है। वैसे तो गीता में कर्मयोग, ध्‍यानयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग सभी कुछ है, परंतु आज की आवश्‍यकता के परिप्रेक्ष्‍य में स्‍वामी विवेकानन्‍द ने कहा था – ‘‘आज भगवद्गीता के तीव्र कर्मयोग की आवश्‍यकता है तभी भारतवासी जाग्रत होंगे।’’ आज के युवाओं को यही कर्मयोग सीखना और उसका अनुपालन करना आवश्‍यक है। आज समाज में दो तरह के लोग बहुतायत से हैं । प्रथम वे जो अकर्मण्‍य हैं, आलसी हैं, अजगर की तरह पड़े-पड़े अपना जीवन बरबाद कर रहे हैं। दूसरे वे हैं जो सदैव काम, काम और काम में लगे हैं और फलस्‍वरूप समय की कमी, चिन्‍ता, तनाव से उनके जीवन से प्रेम, शांति, सौहार्द्र, धैर्य, संतोष आदि गुण विदा हो चुके हैं। दोनों का ही जीवन नीरस हो गया है। संसार में रहना है तो काम तो करना पड़ेगा, उसे छोड़ा नहीं जा सकता। परंतु यह भी उचित नहीं है कि हम सदा काम, काम और काम ही करते रहें। यह तो कर्मवाद है कर्मयोग नहीं। कर्मवाद आधुनिक जीवनशैली की देन है जबकि कर्मयोग आध्‍यात्मिक जीवनशैली है। गीता वह तरीका बताती है जिससे हम काम करें, सफलता प्राप्‍त करें, जीवन उल्‍लासपूर्ण, सरस और प्रशांत बना रहे और अंतिम लक्ष्‍य ‘मुक्ति’ की प्राप्ति भी हो जाए।

निकम्मों की मदद तो ईश्वर भी नहीं कर सकता

गीता कहती है कि हम कर्म करने या न करने का निर्णय लेने में स्‍वतंत्र हैं। हम कर्म करने के तरीके का निर्धारण करने में भी स्‍वतंत्र हैं, परंतु उसका परिणाम हमारे हाथ में नहीं है। परिणाम या फल तो कर्म के नियम के अनुसार मिलेगा ही। इसलिए कर्म करने का सही तरीका यह बताया है कि हम कर्म पूरी क्षमता से करें, कर्म को ईश्‍वर के प्रतिनिधि के रूप में करें, कर्मफल में आसक्ति न रखें और कर्म को ईश्‍वर को अर्पित करते चलें। कर्म तो वह पुष्‍प है जिसे अर्पित करके हमें ईश्‍वर की पूजा करना है। गीता कहती है कि जब हम पुरुषार्थ या कर्म करते हैं, तभी ईश्‍वर की सहायता मिलती है। निकम्‍मे की मदद ईश्‍वर भी नहीं कर सकता। हमारा पुरुषार्थ, हमारी पात्रता विकसित करता है और ईश्‍वर उसमें कृपा का प्रसाद देता है। यदि हमारे पास पात्रता रूपी कटोरा नहीं है तो ईश्‍वर की कृपा रखेंगे कहॉं? कहा गया है, जब हम पुरुषार्थ से किए गए कर्म प्रभु को अर्पित करते हैं तो वह हमें निमित्‍त बनाकर कार्य करने लगते हैं। हमारा बुद्धि-बल सीमित है, पर जब ईश्‍वर हमें अपना यंत्र बना लेते हैं तो हमारी क्षमताएं असीमित हो जाती हैं। अभी भी हमारा अस्तित्‍व है, हम यंत्र हैं और ईश्‍वर चालक है। इसके बाद अगला सोपान आता है जब हम सारा प्रयत्‍न कर चुके होते हैं और अपनी क्षुद्रता को पहचान लेते हैं तब ईश्‍वर के समक्ष पूर्ण समर्पण कर देते हैं। श्रीकृष्‍ण कहते हैं सब धर्म-कर्म अर्थात् लोकव्‍यवहार आदि को त्‍यागकर मेरी शरण में आ जा। इसके बाद हमारी सारी जिम्‍मेदारी ईश्‍वर ले लेता है। फिर हमें यंत्र बनने की भी जरूरत नहीं होती। जो करना है वह ईश्‍वर स्‍वयं ही करने लगते हैं तब सफलता शत— प्रतिशत सुनिश्चित हो जाती है। यह पूरी यात्रा पुरुषार्थ से प्रारंभ होती है और पूर्ण शरणागति तक जाती है। अपने पुरुषार्थ पर भरोसा करना, पूरी क्षमता से कार्य करना, ईश्‍वर से सहायता की याचना करना, कार्य को ईश्‍वर को अर्पण करना और अंत में ईश्‍वर पर ही सब कुछ छोड़ देना ही कर्म का सही तरीका है। यदि कोई पुरुषार्थ के पड़ाव को लॉंघ कर सीधे शरणागति की बात करता है तो वह कायरता है, पलायन है। गीता पुरुषार्थ विहीन, अकर्मण्‍य भक्ति की हिमायत नहीं करती। यही सफल जीवन की कुंजी है। ( लेखक आईएएस अधिकारी एवं धर्म, दर्शन और साहित्‍य के अध्‍येता हैं)

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