राजेश बादल, BHOPAL. निर्वाचन आयोग ने मध्यप्रदेश में चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। मध्यप्रदेश में 17 नवंबर को वोटिंग होगी और 3 दिसंबर को रिजल्ट आएगा। अभी तक कांग्रेस ने अपने प्रत्याशियों के नाम रोके हुए हैं और बीजेपी ने भी कुछ पेंचदार क्षेत्रों से उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है। आमतौर पर विधानसभा चुनाव के समीकरणों और संभावित परिणामों का आकलन स्थानीय मुद्दों और चेहरों के आधार पर ही किया जाता है। इसलिए मतदान के ठीक 1 महीने पहले कोई सटीक विश्लेषण बहुत आसान नहीं होता। फिर भी प्रदेश के जमीनी हालात और सियासी पार्टियों का अंदरूनी मिजाज तो पढ़ा ही जा सकता है।
इस चुनाव की तस्वीर दिलचस्प
आमतौर पर मध्यप्रदेश में दोनों बड़े दल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ही आमने-सामने रहते हैं। राज्य के गठन के 67 साल बाद भी कोई ठोस तीसरी ताकत यहां नहीं उभर पाई है। करीब 5 फीसदी स्थानों पर ही अन्य पार्टियों का जोर रहता है। इसलिए वे सरकार बनाने वाले दल के रास्ते में कोई निर्णायक भूमिका नहीं निभा पातीं। इस बार भी यही दोनों पार्टियां मुकाबले में हैं। दिलचस्प है कि एकाध अपवाद को छोड़कर दोनों दलों का मत प्रतिशत भी लगभग समान ही रहता है। 1 से लेकर 3 फीसदी मतों के अंतर से एक पार्टी सरकार बना लेती है और इतने ही अंतर से दूसरी पार्टी विपक्ष की बेंचों पर चली जाती है, लेकिन इस बार चुनाव की तस्वीर दिलचस्प है। मध्यप्रदेश के मतदाताओं ने पिछले बार ही भारतीय जनता पार्टी को जनादेश नहीं दिया था। कांग्रेस ने सरकार बना ली थी, लेकिन सिंधिया राजघराने के प्रतिनिधि ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के चलते कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने सत्ता खो दी और एक बार फिर बीजेपी की तिकड़म से शिवराज सरकार बन गई। राज्य के इतिहास में दूसरी बार इस तरह सरकार गिराने की साजिश रची गई थी। इससे पहले सत्तर के दशक में ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजयाराजे सिंधिया ने ऐसी ही बगावत करके भारतीय राजनीति के चाणक्य पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र की कांग्रेस सरकार गिराई थी। कह सकते हैं कि नैतिक धरातल पर तो भारतीय जनता पार्टी पिछले चुनाव में ही हार चुकी थी।
साफ-सुथरे लोकतंत्र का तकाजा क्या है ?
वैसे किसी भी साफ-सुथरे लोकतंत्र का तकाजा तो यही है कि पक्ष और प्रतिपक्ष को अपने-अपने ढंग से सरकार चलाने का अवसर मिलना चाहिए। इससे समाज के अंतिम छोर पर खड़े मतदाता की सेवा और प्रदेश का विकास बेहतर ढंग से होता है। मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी सरकार पिछले 20 साल से सत्ता में है (कमलनाथ का अल्पावधि कार्यकाल छोड़कर)। 2 दशक काफी होते हैं। एक पार्टी के लंबी अवधि तक शासन करने के कारण राज रोग पनपने लगते हैं, लोकतांत्रिक भावना कमजोर होने लगती है और एक किस्म का सामंत भाव पनपने लगता है। पार्टी इस दर्प में डूबी रहती है कि वो अनंत काल तक सत्ता में रहेगी और मतदाता की मजबूरी है कि उसे चुने। इसका नतीजा भ्रष्टाचार के रूप में सामने आता है। दबंगी के साथ सत्तारूढ़ दल के नेता घोटाले करते हैं। सत्ता में सेवा का नहीं, मेवा का आकर्षण रह जाता है। सरकार और संगठन के बीच महत्वाकांक्षाओं का टकराव होता है। उनके गुट बन जाते हैं। स्वार्थों के चलते लोकहित के काम हाशिए पर चले जाते हैं। जब चुनाव आते हैं तो सरकार की उपलब्धियों की स्लेट कोरी होती है। फिर सरकार चुनाव जीतने के लिए मुफ्त दान की घोषणाएं करती है, जो कतई संवैधानिक और लोकतांत्रिक नहीं होता।
सीएम शिवराज ने की दूसरी पंक्ति के नेताओं की उपेक्षा
मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार का इन दिनों कम से कम मुझे तो यही रूप दिखाई दे रहा है। इस वजह से वो कांग्रेस से 3 से 5 फीसदी मतों से अभी पीछे चल रही है। उम्मीदवारों का नाम घोषित होने के बाद और उनके अपने निजी स्तर पर प्रचार अभियान का मूल्यांकन करने के बाद शायद स्थिति और स्पष्ट हो सकेगी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने अपनी दूसरी पंक्ति के नेताओं की भी उपेक्षा की है। इससे वे नाराज हैं। नरोत्तम मिश्रा, प्रभात झा, प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती, राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल, नरेंद्र सिंह तोमर से लेकर शिवराज सिंह से वरिष्ठ नेता रघुनन्दन शर्मा और सत्यनारायण सत्तन तक असहज महसूस कर रहे हैं। यह अलग बात है कि नाराजगी का एक बड़ा कारण आला कमान का रवैया और कामकाज की शैली भी है।
कांग्रेस प्रतिपक्ष की भूमिका में बहुत असरदार नहीं रही
जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो सदन के भीतर प्रतिपक्ष के रूप में उसकी भूमिका बहुत असरदार नहीं रही। कमलनाथ सरकार गिरने के बाद लगे झटके से अभी तक पार्टी उबर नहीं पाई है। ये अलग बात है कि सरकार गिराने के लिए जिम्मेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया की छवि भी धूमिल हुई है। आम जनता के बीच यही संदेश गया है कि यह राजवंश अपने हितों की खातिर लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार गिराने में भी कोई संकोच नहीं करता। यही सामंती भाव है, जो आज भी भारतीय लोकतंत्र के सामने बड़ी चुनौती है। हालांकि मल्लिकार्जुन खड़गे के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने जाने के बाद और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के सकारात्मक परिणामों ने पार्टी के भीतर उत्साह पैदा किया है। हिमाचल और कर्नाटक के विधानसभा निर्वाचन परिणामों ने पंचायत स्तर तक कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच आक्रामक शैली में चुनाव प्रचार करने का माहौल बना दिया है। इसके अलावा कांग्रेस छोड़कर जाने वालों पर भी लगाम लगी है। इन सबसे ऊपर शिवराज सरकार के प्रति मतदाताओं की नाराजगी ने व्यवस्था विरोधी वातावरण बना दिया है। नकारात्मक वोटों का लाभ कांग्रेस को मिल सकता है।
आज की तारीख में किसे बढ़त ?
मैं पिछले 46 साल से चुनाव कवर कर रहा हूं। शायद यह पहला चुनाव देख रहा हूं, जिसमें सत्ता पक्ष से विपक्ष की ओर पलायन की रफ्तार बहुत तेज है। इसका लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। हां, उसके बड़बोले नेताओं को अपने पर लगाम लगानी होगी। आज की तारीख में वह बढ़त बनाए हुए है। उम्मीदवारों की सूची आने के बाद और स्पष्ट कहा जा सकेगा कि वह कितने विधानसभा सीटों पर आगे रह सकती है। अलबत्ता मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ के लिए भी यह चुनाव चेतावनी भरा सन्देश लेकर आए हैं। उनके लिए प्रादेशिक स्तर का संभवतया यह अंतिम चुनाव है। उन्हें अपने को और सहज और सामान्य बनाने की आवश्यकता है। एक छोटा-सा सामंत उनके भीतर भी है। यदि वह उसे दूर कर लेते हैं तो कांग्रेस लगभग 25 सीटों से भारतीय जनता पार्टी को पटखनी दे सकती है। पर उनके लिए यह आसान नहीं है। विपक्ष के रूप में प्रादेशिक स्तर पर पार्टी की भूमिका बहुत सराहनीय नहीं कही जा सकती। मैं कह सकता हूं कि 1979 के बाद से जितने बार भी प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी है, उसमें विपक्ष का योगदान अधिक रहा है। कांग्रेस को एक तरह से तश्तरी में सत्ता मिली है। पहली बार 2023 के चुनाव में कांग्रेस जमीनी स्तर पर एकजुट होकर लड़ती दिखाई दे रही है।