रमण रावल, INDORE.यदि किसी राजनीतिक दल के लिये राष्ट्रीय हो जाना किसी बड़ी उपलब्धि की तरह है तो आम आदमी पार्टी ने उसे हासिल कर लिया है। देश में जब से प्रमुख दल के तौर पर स्थापित कांग्रेस ने निचले स्तर की ओर जाने की स्पर्धा में दौड़ना शुरू किया है, तब से अनेक क्षेत्रीय दलों ने अपनी गति बढ़ा दी। आम आदमी पार्टी ने कम समय में उल्लेखनीय दूरी तय कर ली है। यह चुनौती भारतीय जनता पार्टी के लिये है या कांग्रेस व अन्य उन गैर भाजपा-कांग्रेस दलों के लिये, जो राष्ट्रीय हो जाने की चाहत तो रखते हैं, लेकिन उनके पास अरविंद केजरीवाल जैसी रणनीति, हिकमत, तिकड़म और लालच के शिकंजे में मतदाता को फासंने का हूनर नहीं है। ऐसे हालात में इसी वर्ष नवंबर 2023 में होने जा रहे मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव में आप की भूमिका पर विश्लेषकों की पैनी नजर होगी। साथ ही केजरीवाल की कोशिश यह रहेगी कि वह मप्र के विधानसभा चुनाव में इतनी ताकत जुटा ले कि जब भाजपा के खिलाफ 2024 के लोकसभा चुनाव में दूसरा या तीसरा मोर्चा बनने की नौबत आये तो गैर कांग्रेसी नेतृत्व के तौर पर उनका नाम मजबूती से उभरे। देखते हैं कि आप तुम, तू, तूतू-मैं-मैं बनती है या सबकी बन जाती है।
निर्णायक स्थिति में केजरीवाल
एक बात तो तय जानिये कि आप या केजरीवाल अब इस स्थिति में तो हैं कि खेलेंगे या खेल बिगाड़ेंगे। अभी यह गुंजाइश तो नहीं है कि मप्र में कांग्रेस और आप मिलकर लड़ें, लेकिन इस बात के पर्याप्त आसार हैं कि वह कांग्रेस-भाजपा दोनों को समान रूप से नुकसान पहुंचा सके। नगरीय निकाय चुनाव को याद करें तो पाते हैं कि सिंगरौली नगर निगम में महापौर इसलिये विजयी हुई थी कि वे अग्रवाल हैं, जिनका परिवार बरसोबरस भाजपा के साथ रहा है। ग्वालियर नगर निगम में विजयी तो कांग्रेस हुई थी, लेकिन भाजपा को हराया था आप के अग्रवाल प्रत्याशी ने। याने बेहद चालाकी और हिकमत से केजरीवाल ने पत्ते फेंटे थे, जो विधानसभा में भी किया ही जायेगा। इस तरह कहीं वे भाजपा तो कहीं कांग्रेस को निपटाने की हैसियत में रह सकते हैं।
आप को लेकर दोनों दल चिंतित
यूं देखा जाये तो आम आदमी पार्टी का उदय कांग्रेस के विकल्प के तौर पर ही हुआ है और उसने दिल्ली की सत्ता कांग्रेस से ही छीनी थी। पंजाब में भी उसने कांग्रेस को ही हराया है। गुजरात चुनाव में वह भाजपा का विकल्प नहीं बन सकी। इसलिये ये सोच लेना कि वह मप्र, छत्तीसगढ़ या राजस्थान में भाजपा को सीधे टक्कर देगी तो वह गलत ही होगा। हां, भाजपा को नुकसान पहुंचा सकती है, जो निर्भर करेगा प्रत्याशी- दर-प्रत्याशी के चयन पर। बेशक वह 2023 में इन तीनों राज्यों में उल्लेखनीय सफलता पाने से तो रही, किंतु दोनों प्रमुख दलों की सांसें ऊपर-नीचे करती रहेगी।
आप के पिटारे में लोक लुभावन घोषणाएं
मप्र में एक तरफ कांग्रेस है, जिसने चुनाव प्रबंधकों की सेवायें लेकर अपनी तैयारियां बता दी हैं तो सत्तारूढ़ दल भाजपा तो काफी पहले से इन प्रबंधकों के हवाले प्रदेश को कर ही चुकी है। आप की रणनीति का खुलासा होना अभी बाकी है। उसके कमंडल में तो लालच, तोहफे, मुफ्तखोरी के आकर्षक खिलौने रखे रहते हैं। वह उन्हीं को हवा में उछालेगी। तमाशबीन बच्चों की तरह मप्र का मतदाता कितना उस ओर दौड़ लगाता है और कितने मत आप की झोली में डाल देता है, इसके लिये छह महीने रुकना होगा। वैसे प्रारंभिक तौर पर मप्र में आप की आमद से कांग्रेस को खतरा कुछ ज्यादा दिखाई दे रहा है। दिल्ली में जिस तरह से अल्पसंख्यक समुदाय आप की तरफ आकर्षित हुआ है, वही यदि मप्र में भी हुआ तो आप की झोली में कुछ सीटें आयें न आयें, कांग्रेस के खीसे से कुछ, सीटें सीधे-सीधे खिसक जायेंगी।
बीजेपी के लिए रास्ता चुनौतीभरा
मप्र के विधानसभा चुनाव में भाजपा को रणनीति अलग-अलग स्तर पर बनाना होगा। एक सीधे तौर पर मतदाता को अपनी तरफ लाना। दूसरा,कांग्रेस का जनाधार खिसकाना। तीसरा, आप की तरफ जाने से मतदाता को रोकना। ऐसा नहीं है कि केवल अल्पसंख्यक मतदाता ही आप की ओर जायेगा, बल्कि भाजपा का परंपरागत मतदाता वैश्य, सवर्ण भी आप की तरफ भी जा सकता है, यदि आप ने अपने प्रत्याशी चयन का आधार वैसा ही रखा तो, जो कि वह रखेगी भी। इसलिये भाजपा को अपनी ताकत कांग्रेस और आप को रोकने के लिये बराबरी से लगाना होगा। यह तब हो पायेगा, जब भाजपा सिंधिया खेमे के प्रत्याशियों को टिकट उदारता से देने से बचे, अपने पुराने, कर्मठ कार्यकर्ताओं की नाराजी को टिकट वितरण में संतुलन से दूर करे। टिकट वितरण समय पर कर दे और उस वजह से उपजे असंतोष को यथासमय समेट पाये। इसमें कहीं भी कमी रहना भाजपा को संकट में ला सकता है।